लकड़ी उठाने से लेकर ओलंपिक में सिल्वर जीतने वाली मीराबाई चानू की कहानी
बचपन में एक समय पर मीराबाई जलाने वाले लकड़ी का गट्ठर उठाती थी। उस समय शायद ही उन्हें भी पता होगा कि एक समय पर वो पूरे भारत के दिलों पर राज करेगी। मीराबाई मणिपुर के इंफाल ईस्ट की रहने वाली है।
साइखोम मीराबाई चानू इस नाम को आज पूरा भारत ही नहीं पूरा विश्व भी जानता है। यह वो नाम है जिसने विश्व में भारत के नाम के डंका बजाया है। यह वो नाम है जिसने पूरे भारत को उम्मीद दी है कि वो भी दुनिया में अपनी एक अलग पहचान बना सकता है। मीराबाई चानू ने संपूर्ण भारतीय को एक विश्वास दिया है कि हार कर भी जीता जाता है। भले ही आप पिछड़ गए हो दुनिया आपसे उम्मीद नहीं कर रही है लेकिन आप अपने ऊपर विश्वास कर बस अपने लक्ष्य की ओर बढ़े चलो और अब इसका नतीजा हर किसी के सामने है। जापान के टोक्यो शहर में जारी ओलंपिक में भारत के लिए मीराबाई चानू ने रजत पदक जीता है। वह पहली भारतीय महिला वेटलिफ्टर हैं जिन्होंने भारत के लिए इस खेल में रजत पदक जमाया है। इससे पहले भारत के लिए कर्णम मल्लेशवरी 2000 के सिडनी ओलंपिक में कांस्य पदक जीत चुकी है। मीराबाई चानू ने टोक्यो ओलंपिक में महिला वेटलिफ्टिंग के 49कि.ग्रा वर्ग में रजत पदत जीता। इस मुकाबले में मणिपुर की 26 साल की वेटलिफ्टर ने कुल 202 किग्रा जिसमें 87 किग्रा स्नैच+ 115 किग्रा क्लीन एंड जर्क का भार उठाकर रजत पदक अपने नाम किया था। मीराबाई अब भारत लौट चुकी हैं। दिल्ली एयरपोर्ट पर उनका जोरदार स्वागत किया गया। चानू के एयरपोर्ट पर पहुंचते ही भारत माता की जय के नारे लगाए गए। मीराबाई को देखकर आज पूरा भारत गर्व महसूस कर रहा है। मीराबाई के प्रदर्शन से हर भारतीय महिला खिलाड़ी की उम्मीद और ज्यादा बढ़ गई है कि वो भी देश का नाम ऐसे ही रोशन कर सकती है। लेकिन क्या मीराबाई की यह सफलता इतनी आसान है। क्या मीराबाई ने आसानी से ये मुकाम हासिल कर लिया। क्या मीराबाई का टोक्यो ओलंपिक में पदक जीतने का सफर आसान रहा है तो इसका जवाब नहीं में है। मीराबाई के संघर्ष की एक ऐसी कहानी है जिससे पढ़कर इस वेटलिफ्टर के सफर की कहानी जुनून से भर देगी।
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लकड़ी का गट्ठर उठाने से टोक्यो के रजत पदक का सफर
बचपन में एक समय पर मीराबाई जलाने वाले लकड़ी का गट्ठर उठाती थी। उस समय शायद ही उन्हें भी पता होगा कि एक समय पर वो पूरे भारत के दिलों पर राज करेगी। मीराबाई मणिपुर के इंफाल ईस्ट की रहने वाली है। बचपन में जब उन्हें खेलों में करियर बनाने का मन किया तो उनके पास जोश और जुनून तो था लेकिन हर छोटे शहर या गांव के भारतीय नागरिक की तरह सुविधाएं नहीं थी। मीराबाई के गांव में ट्रेनिंग सेंटर नहीं था, वो 50-60 किलोमीटर दूर ट्रेनिंग के लिए जाया करती थीं। इस दौरान उन्होंने कभी भी अपनी ट्रेनिंग में कमी नहीं होने दी। मीराबाई भले ही 50-60कि.मी. का सफर रोज तय करती लेकिन वो कभी भी अपने ट्रेनिंग को छोड़ती नहीं थी। ऐसे में मीराबाई के इस बचपन के संघर्ष की ही वो स्क्रिप्ट है जो आज दुनिया भर के लिए मिशाल वाली कहानी बनकर सामने आई है।
जब रियो ओलंपिक में लगा था मीराबाई के आत्मविश्वास को झटका
हर चार साल में ओलंपिक आता है। साल 2016 में भी आया इस बार जगह थी ब्राजील का रियो जहां मीराबाई अपना ओलंपिक मेडल जीतने का सपना लेकर पहुंची। उस समय इस वेटलिफ्टर के नाम से लोग अंजान थे। लेकिन मीरा को पता था कि कामयाबी और पहचान एक दिन में बनाई जा सकती है बस उसके लिए जरूरत है ओलंपिक में दुनिया भर के सामने अपना बेस्ट प्रदर्शन करने की। लेकिन उस ओलंपिक में मीराबाई के उम्मीदों को झटका लगा। मीराबाई का रियो ओलंपिक में क्लीन एवं जर्क में तीन में से एक भी प्रयास वैध नहीं हो पाया था, जिससे 48 किग्रा में उनका कुल वजन दर्ज नहीं हो सका था। मीराबाई के इस तरह के प्रदर्शन से जरूर उनको ठेस लगी लेकिन मीराबाई ने इसे नाकामी ना मानकर अपने लिए सीख बनाया और अगले कुछ सालों में दुनिया को बताया कि आखिर मीराबाई चीज क्या है।
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जब पदक और पुरस्कार की भरमार लगाने लगी मीराबाई
रियो ओलंपिक के बाद हर किसी को लगा होगा कि मीराबाई के लिए ये हार कही उनके आगे की राह को कठिन ना बना दें। लेकिन मीराबाई ने कुछ और ही ठान रखा था। रियो ओलंपिक के बाद से तो वो और ज्यादा मेहनती और बेहतर खिलाड़ी बनकर निकली। साल 2017 विश्व चैम्पियनशिप में और फिर एक साल बाद राष्ट्रमंडल खेलों में स्वर्ण पदक जीतकर उन्होंने अपने नाम का डंका बजा दिया। इस दौरान मीराबाई पीठ में परेशानी की वजह से कई बार अपने रंग में नहीं दिखाई दी लेकिन जैसे ही वो फिट होती अपने प्रदर्शन से हर किसी को चौंका देती। मीराबाई इस दौरान पद्मश्री और राजीव गांधी खेल पुरस्कार से भी सम्मानित हुई। मीराबाई वक्त के साथ अपनी पहचान बनाते जा रही थी और देखते देखते उन्होंने उम्मीद जगा दी थी कि वो इस बार तो टोक्यो ओलंपिक में नहीं चूकने वाली है। इस दौरान उन्होंने अंतरराष्ट्रीय महासंघ के नए वजन वर्ग को शामिल किए जाने के बाद अपने 48 किग्रा वजन को बदलकर 49 किग्रा कर दिया। एक वक्त पर मीराबाई के पास अच्छी डाइट के लिए पैसे नहीं थे। जब मीराबाई ने वेटलिफ्टिंग में करियर बनाने की ठानी थी उस समय उनके घर की आर्थिक हालात ठीक नहीं थी। इस वजह से उन्हें कई बार अच्छी डाइट नहीं मिल पाती थी। मीराबाई को वेटलिफ्टिंग में ताकत बढ़ाने के लिए अच्छे प्रोटीन पूर्ण खाने की जरूरत थी लेकिन उनके लिए ये मिलना मुश्किल था। लेकिन अब मीराब के पास सबकुछ है और उनके पास अब वो जरिया है जिससे वो अपने खेल की सभी जरूरतें पूरी कर सकती हैं। मीराबाई ने अपने खेल से हर उस इंसान को साहस दिया है जो पैसों की कमी या सहयोग के अभाव में खेल छोड़ने की ठान लेता है। मीराबाई आज करोड़ों हिंदुस्तानियों की नई उम्मीद बनी है जिससे उन्हें पता चल गया कि अगर विश्वास हो तो एक इंसान क्या कुछ नहीं कर सकता।
- आयशा आलम
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