कारों के विज्ञापन तो खूब आ रहे जरा पैदल चलने को भी प्रेरित कर देते

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ज़िंदगी में लाजवाब कारों के ग़ज़ब विज्ञापन देखने को मिल रहे हैं। इधर सड़कों के किनारे, बाज़ारों में पैदल चलना वाकई हिम्मत का काम हो चला है, मगर पैदल चलने के लिए कोई प्रेरक विज्ञापन आज तक नहीं देखा गया।

ज़िंदगी विज्ञापन होती जा रही है और इस एक मात्र ज़िंदगी में लाजवाब कारों के ग़ज़ब विज्ञापन देखने को मिल रहे हैं। इधर सड़कों के किनारे, बाज़ारों में पैदल चलना वाकई हिम्मत का काम हो चला है, मगर पैदल चलने के लिए कोई प्रेरक विज्ञापन आज तक नहीं देखा गया। अब तो सही ढंग से पैदल चलने के लिए हम तब तैयार होते हैं जब डॉक्टर परामर्श स्लिप पर लिख दे। कभी पिछड़े हुए जमाने में, ‘सेक्सी सेक्सी सेक्सी मुझे लोग बोलें’ जैसे गाने हमारे पारंपरिक समाज में स्वीकृत नहीं हुए थे। मगर अब जैसे जैसे विकास का राज्य फैलता जा रहा है, हम हर बदलाव चुपचाप गले लगा रहे हैं।

पिछले दिनों एक नई कार का ‘रोमांटिक’ विज्ञापन देखने पढ़ने का अवसर मिला। अखबार के पन्ने लाल रंग की शानदार कार से सजे हुए थे। विज्ञापन की टैग लाइन रही ‘द आल स्मूद, आल सेक्सी सिविटी’। विज्ञापन में कार की खूबियां बखान करते हुए उकसाया गया था, ‘सी सेक्सी इन ए न्यू लाइट’। हर शब्द की तरह इस शब्द के भी कई अर्थ निकाले जा सकते हैं। विज्ञापन के लिए की जा रही फोटोग्राफी कहती है कि किसी चीज़ पर खास कोण से रोशनी डालने से उसका प्रभाव बदल जाता है और बढ़ भी सकता है। हमारी ज़िंदगी में सही रोशनी का बहुत महत्व रहा है। दिवाली के चमकीले विज्ञापन अब दिमाग पर छा गए हैं। यह कार खरीदने पर लंदन व पेरिस का पेड लक्की ट्रिप भी उपलब्ध है।

आजकल कार खरीदना आसान है लेकिन गला घोंटू ट्रैफिक में कार चलाने में, घर के बाहर उपयुक्त पार्किंग मिलने में सौ ज़हमतें हैं। समय सचमुच बदल गया है तभी कार को भी सेक्सी बताया जा रहा है। क्या यह एक रोमांटिक अनुभव है। इधर डिजाइनर वस्त्रों को को भी आभामंडित किया जाता रहा है कि उन्हें पहनने वाले सेक्सी लगेंगे। पहले यह बात महिलाओं पर लागू होती थी अब पुरुषों पर भी समान प्रभाव के साथ लागू होने लगी है। सेक्सी लगने के लिए फेशियल क्रीम ही नहीं कई दूसरे फार्मूले भी प्रयोग में आने लगे हैं। यह निरंतर विकासजी की महिमा है कि सेक्सी कार भी बाज़ार की रौनक बना दी गई है। हालांकि भौतिक दुनिया में शारीरिक भूख को शांत करने के लिए, समाज में कोई वस्तु खोजी जानी अभी तो बाकी है तभी तो रोज़ अखबार में सामूहिक दुष्कर्म की खबरें खोजनी नहीं पड़ती। सख्त कानून ईमानदारी व सख्ती से लागू करने से भी ऐसा कोई आकर्षण अभी तक तो पैदा नहीं हुआ कि लोग अपनी वासनात्मक भूख को खेल, धार्मिक, आध्यात्मिक रास्ते पर ले जाने के प्रयास करें। बरसों तक, धर्म स्थलों में रहकर, धार्मिक वस्त्र पहन कर भी यह भूख जवान रहती है। हमें लगता है कंडोम के विज्ञापन सुबह से रात तक न दिखाने से नई सोच उगेगी। सेंसर बोर्ड की कैंची को अंगूठा दिखाने वाले कई आ गए हैं जहां सब के लिए खुला आसमान है। यूट्यूब है और पूर्णतया डिजिटल होता देश भी। यह खुले रास्ते मनोरंजन कम, इच्छाएं जवान करने के बीहड़ ज़्यादा हैं।

हमारे यहाँ जो चीज़ बैन है वही उपलब्ध है। चिकित्सक ही बताते हैं कि ज़िंदगी को सहज रूप से जीने के लिए ‘सेक्स’ आवश्यक है तो फिर कोई और चीज़ या क्रिया इसका विकल्प कैसे हो सकती है। क्या असीम दौलत या खूबसूरती, शरीर की इस कुदरती ज़रूरत का विकल्प हो सकती है। खजुराहो की मूर्तियां इसलिए बनवाई गई थीं ताकि उस समय काल में भक्ति भाव में आसक्त होते जा रहे नागरिकों का झुकाव पारिवारिक दुनिया की तरफ भी हो। यह मनोवैज्ञानिक चिकित्सा शैली का एक स्पष्ट रूप था। क्या मानवीय शरीर की शारीरिक ज़रूरतें बदल गई हैं या विकसित चिकित्सा सुविधा से बदली जा सकती हैं। आशा और आशंका कहती हैं कि हो सकता है कार के इस विज्ञापन से प्रेरित हो, सेक्सी फूड, बर्तन, जूते, वाशिंग मशीन व फ्रीज़ वगैरा भी भारतीय मानसिकता के बाज़ार में पेश कर दिए जाएं। क्या हम सब तैयार हैं। हो सकता है कोई हमें चौंकाने वाला नया विज्ञापन शीघ्र हमारे सामने हो।

-संतोष उत्सुक

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