बच्चे सीख नहीं पा रहे या शिक्षक सिखा नहीं पा रहे ? दोषी सरकार या शिक्षाविद्?

Children''s learning ability is decreasing

इन दिनों देश भर में सीखने के अकाल पर चर्चा हो रही है। चर्चा तो इस बात की हो रही है कि बच्चों में सीखने की क्षमता और दक्षता दिन प्रति दिन नीचे की ओर जा रही है। कक्षा छह में पढ़ने वाले बच्चे की पढ़ने−लिखने की दक्षता कक्षा दूसरे के स्तर की है।

इन दिनों देश भर में सीखने के अकाल पर चर्चा हो रही है। चर्चा तो इस बात की हो रही है कि बच्चों में सीखने की क्षमता और दक्षता दिन प्रति दिन नीचे की ओर जा रही है। कक्षा छह में पढ़ने वाले बच्चे की पढ़ने−लिखने की दक्षता कक्षा दूसरे के स्तर की है। वह चाहे भाषा की बात की जाए या फिर गणित या फिर विज्ञान की। बच्चों की सीखने की गति और दिशा तय करने की बजाए हमारी रिपोर्ट इस बात पर ज़्यादा जोर देते नज़र आती हैं कि इतने प्रतिशत बच्चे पढ़−लिख नहीं पाते। हमारे टीचर, करिकूलम स्कूल आदि ही वे घटक हैं जो बच्चों के सीखने को प्रभावित करते हैं। हम कहीं भूल जाते हैं कि यदि बच्चे असफल हो रहे हैं तो वहां बच्चों से ज़्यादा असफल हमारी शैक्षिक नीति हो रही है। हमारी नीतिगत निर्णय फेल हो रहे हैं।

बच्चों की बच्चों की लर्निंग इंडिकेटर बताते नहीं थकते कि हमारे बच्चे भाषा, गणित, विज्ञान आदि विषयों में अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतरते। हमारे बच्चों को भाषा में शब्दों, वाक्यों आदि को पढ़ने और लिखने में दिक्कतें आती हैं। बच्चे अपने कक्षायी स्तर के अनुसार भाषायी दक्षता हासिल करने में पीछे हैं। इन रिपोर्टों की मानें तो भारत में स्कूली स्तर पर बच्चों की लर्निंग स्थिति चिंताजनक है। लेकिन कई बार वास्तविकता इन रिपोर्ट से भिन्न मिलती है। हाल ही में पटना स्थित बाल भवन में तकरीबन पैंतीस बच्चों की कार्यशाला में बातचीत करने का अवसर मिला। वह भी कुछ घंटे नहीं बल्कि पूरे तीन दिन। पूरे दिन सुबह दस से शाम पांच और छह बच्चे तक बच्चे कार्यशाला से जाने का नाम नहीं ले रहे थे। इस बाल भवन की किलकारी के नाम से जानते हैं। जहां विभिन्न आयु के बच्चे आते हैं। कुछ समर कैंप में तो कुछ पूरे साल। इन बच्चों के सर्वांगीण विकास को ध्यान में रखते हुए विभिन्न गतिविधियों को अंज़ाम दिया जाता है। इनमें थिएटर, नृत्य, संगीत, नुक्कड़ नाटक, सृजनात्मक लेखन आदि शामिल हैं। इन तमाम गतिविधियों से परिसर गुलजार रहा करता है। बच्चों से बातचीत के दौरान यह भी मालूम चला कि इन बच्चों के सुझाव, राय आदि को प्रमुखता से परिसर में स्थान दिया जाता है।

सृजनात्मक लेखन के इन तीन दिनों में विभिन्न आयु वर्ग के बच्चों से जिन मुद्दों पर बातचीत की और काम हुए वह वास्तव में उक्त रिपोर्ट को आईना दिखाती हैं। क्या पढ़ना और क्या लिखना है, इन भाषायी कौशलों में बच्चे खास दक्ष थे। इनकी लिखी कहानियों, कविताओं आदि से गुज़रते हुए ज़रा भी एहसास नहीं होता कि इन्हें लिखने वाले बच्चे कक्षा दूसरी, तीसरी या पांचवीं के हैं। इन बच्चों की लेखन क्षमता और लिखने के प्रति जिज्ञासा और ललक को देखते हुए हमें यह एहसास होता है क्या ये रिपोर्ट आसमान में बनाई जाती हैं ? इन रिपोर्ट लेखन में किन्हें नजरअंदाज़ किया जाता है? कहां से आते हैं ऐसे डेटा जो बताते हैं कि बच्चे पढ़ नहीं सकते। बच्चे लिख नहीं सकते।

कक्षा दूसरी और तीसरे के बच्चे जब नाटक क्या है और कहानी में क्या महत्वपूर्ण घटक होते हैं जो कहानी को रोचक बनाते हैं आदि का समुचित और प्रासंगिक विश्लेषण के साथ बताएं तो क्या कहना चाहेंगे। इस प्रकार के जवाबों से तीन दिन रूबरू होने का अवसर मिला। इनमें यह उत्कंठा प्रबल थी कि मैं कहानी तो लिखता हूं। कविताएं तो लिख लेता हूं लेकिन मंच पर या सब के सामने अच्छे से प्रस्तुत नहीं कर पाता। आप तो बड़े हैं आपने तो कई प्रस्तुतियां देखी होंगी हमें भी वे कौशल बताएं ताकि हम और बच्चों से पीछे न रहें। हम भी अपनी कहानी को बेहतर तरीके से प्रस्तुत कर सकें। इन बच्चों की तार्किक क्षमता और तथ्यपरक चिंतन एक बार के लिए सोचने पर मजबूर करता है कि क्या हम इतने छोटे बच्चों से मिल रहे हैं या एक प्रखर और इतनी छोटी आयु में सृजनशीलता की बारीक बुनावटों को समझ और इस्तमाल कर रहे थे।

हम लर्निंग क्राइसिस की बात करे रहे हैं। यह चिंता व्यापक स्तर पर देखी और महसूस की जा रही है। इस बाबत असर से लेकर एनसीईआरटी द्वारा आयोजित नास की रिपोर्ट पर पूरे देश में यह चर्चा गरम है कि हमारे बच्चे पढ़ने−लिखने में पिछड़ रहे हैं। बच्चे क्यों पढ़ और लिख नहीं पा रहे हैं। जब इस मसले पर बात होती है तो सीधे सीधे टीचर प्राजाति की गर्दन कसी जाती है। टीचर ठीक से पढ़ाते नहीं हैं। टीचर को अच्छी ट्रेनिंग नहीं मिल रही है। स्कूल और क्लास में टीचर की कमी है। टीचर पढ़ाते नहीं हैं आदि सवाल टीचर की ओर उछाले जाते हैं। हालांकि जो कमजोर कड़ी होती है उसे ही तोड़ने की कोशिश की जाती है। लेकिन हमें इस पर भी मंथन करने की आवश्यकता है कि जिन असफलताओं के लिए टीचर कॉम्यूनिटी को दोषी ठहरा रहे हैं क्या हमने टीचर ट्रेनिंग की प्रक्रिया और कंटेट को चेक किया कि किस प्रकार के कंटेंट टीचर को ट्रेनिंग के दौरान दिये जाते हैं। इन टीचर ट्रेनिंग प्रोग्राम में कौन रिसोर्स पर्सन आते हैं ? क्या वे विशेषज्ञ वास्तव में टीचर की अपेक्षाओं को पूरा करने की दक्षता रखते हैं आदि। यह सब ऐसी ज़मीनी हक़ीकतें हैं जिन्हें अकसर हाशिए पर धकेला जाता है और शिक्षक के माथे दोष मढ़ दिया जाता है।

भाषा, गणित, विज्ञान आदि विषय जिस प्रकार से और जिस शैली में पढ़ाये जाते हैं वह कहीं से भी बच्चों की जिज्ञासा और उत्सुकता को प्रोत्साहित करते नज़र नहीं आते। स्कूल चाहे निजी हो या फिर सरकारी। स्कूल से ज़्यादा अंतर नहीं पड़ेगा। बल्कि स्कूलों में इन विषयों के साथ बरताव कैसा है इसे समझने की आवश्यकता है। आज की तारीख में प्रोजेक्ट बेस्ड, एक्टीविटी बेस्ड टीचिंग और लर्निंग की आंधी सी चली है। हर कोई इसे अंतिम औज़ार के तौर पर इस्तेमाल करता है। इनके अपने तर्क होते हैं। इससे बच्चे जल्दी और रूचि लेकर सीखते हैं आदि। जबकि एक पहलू यह भी है कि टीचर को एक्टीविटी के माध्यम से पढ़ाने में सहजता होती है। जबकि एक्टीविटी मुख्य चिंता नहीं है बल्कि बच्चे जैसे सहजता से सीखते हैं उन्हें वह विधियों से पढ़ाया जाए तो संभव है लर्निंग क्राइसिस से बच पाए।

भाषा को पढ़ाने के लिए तरह तरह की गतिविधियों का सहारा लिया जा सकता है। लेकिन ध्यान रहना ज़रूरी है कि गतिविधियां मुख्य नहीं हैं बल्कि भाषा कौशल की दक्षता प्रदान करना हमारा मुख्य मकसद है। कहीं गतिविधियों के अंतरजाल में भाषायी शिक्षण कला न पीछे रह जाए इसका भी ख़्याल रखा जाना चाहिए। जो किलकारी के इन तीन दिनों की कार्यशाला में स्पष्टता के साथ ध्यान रखा गया। आज की तारीख में बच्चे सिर्फ हांकने वाले जीव नहीं रह गए हैं। बल्कि वे आज निर्णय लेने और निर्णय की प्रक्रिया में अपनी सकारात्मक भूमिका भी निभाने के लिए तैयार हैं। मसलन किलकारी में ही ऑफिस का नाम उन्होंने माथा पच्ची रखा है। वहीं अलग अलग कमरों व परिसर के विभिन्न कोनों का नाम बच्चों ने डाइरेक्टर सुश्री ज्योति परिहार को लिख कर दिया। इसे आम सहमति से स्वीकार कर लिया गया। ज्योति बताती हैं कि बच्चे बहुत बढ़-चढ़कर तमाम चीजों में हिस्सा लेते हैं। यदि कोई भी चीज खराब लगती है तो वे स्वयं डाइरेक्टर से संवाद करते हैं। उन्हें लिखकर या बोलकर अपनी बात पहुंचाते हैं।

हमें अपने बच्चों की क्षमता को कमतर कर आंकने से बचने की आवश्यकता है। क्योंकि हम जिन्हें मान कर चलते हैं कि उन्हें यह नहीं आता होगा जबकि बच्चे बेहद करीबी से आकलन और मूल्यांकन भी करते हैं। बच्चों की दुनिया और उन्हें पढ़ाई जाने वाली भाषायी व विषयी समझ को दुबारा से फ्रेम करने की आवश्यकता है। बच्चे फेल हो रहे हैं या भाषा, गणित आदि विषय में पिछड़ रहे हैं तो इसके पीछे की वज़हों को गंभीरता से लेना होगा। इसे कैसे ठीक किया जाए इस पर देश भर में विभिन्न तरह के कदम उठाए जा रहे हैं। इसमें सरकारी पहलकदमियों के साथ ही साथ विभिन्न गैरसरकारी संस्थाएं भी हाथ मिलाकर स्कूलों में बच्चों और शिक्षकों के साथ काम कर रही हैं।

गौरतलब है कि 2009 में जब प्रोग्राम फोर इंटरनेशनल स्टूडेंट्स एसेस्मेंट (पीसा) ने भारत में एसेस्मेंट के लिए एप्रोच किया तब तो सिर्फ दो ही राज्यों ने इसमें शामिल होने के लिए हामी भरी। वो दो राज्य हैं−  तमिलनाडु और हिमाचल प्रदेश। इन दोनों राज्यों में बच्चों की सहभागिता और आउटकम 72 और 73 स्कोर रही थी। बाकी के राज्यों ने इसमें हिस्सा ही नहीं लिया। इस एसेस्मेंट में भारत के साथ ही साथ विश्व के अन्य सत्तर देश भी शामिल थे। पीसा के इस मूल्यांकन में 15 वर्ष के आयु वर्ग के बच्चे शामिल होते हैं। इसमें साइंस, पढ़ना और मैथ्य की समझ और दक्षता को आंका जाता है। यह भी जानना दिलचस्प होगा कि जब बात इसकी हो कि लर्निंग इंडिकेटर और बच्चों की लर्निंग स्तर कितना है तब हमें मालूम चलता है कि तमाम प्रशिक्षण, शिक्षण सिर्फ कार्यशालाओं तक ही महदूद रह जाता है और बच्चे सीखने में पीछे रह जाते हैं। 

- कौशलेंद्र प्रपन्न

(शिक्षा एवं भाषा पैडागोजी विशेषज्ञ)

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