दलित बनाम सवर्ण, हिंदू बनाम मुसलमान... आखिर मकसद क्या है?

Dalit versus upper class, Hindu versus Muslim ... What is the purpose?

दलितों के आंदोलन में तो नेतृत्व नजर आया तथा जिन लोगों ने बाहर से समर्थन दिया वे भी खुलकर सामने आ गए किन्तु गत दिवस आयोजित बंद सोशल मीडिया के नेतृत्व में हुआ जिस वजह से किसी व्यक्ति अथवा संगठन को जिम्मेदार नहीं माना जा सकता।

2 अप्रैल के बाद बीती 10 तारीख को भारत बंद से क्या हासिल हुआ ये सवाल कई मायनों में अहम है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा एससी−एसटी एक्ट में किये गये मामूली फेरबदल के बाद से जिस तरह की प्रतिक्रियाएं व आंदोलन दोनों ओर से देखने को मिल रहे हैं, वो सोचने को मजबूर करता है। दोनों बंद अपने−अपने ढंग से प्रभावशाली रहे। फर्क केवल इतना था कि दलितों के आंदोलन में तो नेतृत्व नजर आया तथा जिन लोगों ने बाहर से समर्थन दिया वे भी खुलकर सामने आ गए किन्तु कहा जा रहा है गत दिवस आयोजित बंद सोशल मीडिया के नेतृत्व में हुआ जिस वजह से किसी व्यक्ति अथवा संगठन को उसके लिए जिम्मेदार नहीं माना जा सकता।

सवाल यह है कि ऐसी हिंसा बार−बार क्यों हो रही है? देश को दलित बनाम सवर्ण, हिंदू बनाम मुसलमान, नफरत बनाम धर्म−जाति में आखिर बांट कौन रहा है? उनके मकसद क्या हैं? क्या 2019 के चुनावों तक ऐसे ही हिंसक आंदोलन जारी रहेंगे? क्या विकास पीछे छूट गया है और देश का बंटवारा किया जा रहा है? देश में राजनीतिक रणनीतियां जरूरी हैं या देश को बचाने की राष्ट्रनीति की दरकार है? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राष्ट्रपिता गांधी के सत्याग्रह की जन्मभूमि मोतिहारी में भी यही सवाल उठाया है। उन्होंने कहा कि देश की सरकार जन−जन को जोड़ने में लगी है, वहीं विरोधी जन−जन को तोड़ने में लगे हैं। बदलते भारत का स्वरूप विरोधियों को स्वीकार नहीं हो रहा है। 

भारत बंद के दौरान जिस प्रकार आतंक का माहौल बनाते हुए हत्या, लूट, तोड़फोड़ और आगजनी हुई उसकी जितनी निंदा की जाए, कम है। लेकिन केवल निंदा से कुछ नहीं होगा जब तक कि दोषियों के विरुद्ध कड़ी कार्रवाई न जाए। आश्चर्य की बात है कि किसी भी राजनीतिक दल ने इसकी खुल कर आलोचना नहीं की। क्या प्रजातंत्र में यही सब होगा? यदि ऐसे हिंसक आंदोलनों पर अंकुश नहीं लगाया गया तो कोई न कोई वर्ग ऐसी आग लगाता रहेगा और नुकसान उस आम नागरिक को उठाना पड़ेगा जिसका इन सबसे कुछ लेना−देना नहीं।

गांधी जी के अछूतोद्धार से चलते−चलते आरक्षण के जरिये सामाजिक न्याय की जो व्यवस्थाएं की गईं उनका लाभ कितना हुआ ये तो गहन विश्लेषण का विषय है ही लेकिन इससे समाज के दूसरे वर्ग में जो कुंठा बढ़ रही है उसका भी अध्ययन होना चाहिए। गत दिवस हुआ बंद इस लिहाज से चिंताजनक था क्योंकि उसका कोई घोषित या प्रकट नेता नहीं था। ऐसे में दिशाहीनता का खतरा बढ़ता है जिसकी परिणिति अक्सर अराजकता के तौर पर नजर आती है। तकरीबन एक सप्ताह के अंतर पर आयोजित दो भारत बंद से किसे क्या हासिल हुआ तो इस सवाल के उत्तर में कहा जा सकता है कि तुम्हारी भी जै जै, हमारी भी जै जै न तुम हारे न हम हारे वाली बात ही होकर रह गई किन्तु राष्ट्रीय जीवन में इस तरह के वाकये 20 ओवरों के क्रिकेट मैच सरीखे नहीं होते जिन्हें कुछ देर बाद भुला दिया जाये। इस विषय में गंभीरता से चिंता और चिंतन दोनों करने का समय आ गया है। 

सवर्ण युवाओं में जो गुस्सा है उसे निरर्थक नहीं माना जा सकता। अतीत में हुई सामाजिक गलतियों को सुधारने का ये अर्थ कतई नहीं होता कि जिसने अन्याय किया उसके वंशजों पर अन्याय किया जाये। जाति के नाम पर शोषण और अत्याचार के लिए सभ्य और स्वतंत्र समाज में कोई गुंजाइश नहीं होनी चाहिए। छुआछूत जैसी बात भी आज के दौर में गले नहीं उतरती। सामाजिक और आर्थिक उन्नयन हेतु वंचित वर्ग को प्रोत्साहन और संरक्षण मिले ये भी आवश्यक है किंतु किसी भी चीज का अतिरेक बुरा होता है। सामाजिक न्याय का अर्थ सभी के किये समान अवसर और भेदभाव रहित व्यवस्था से है। 

ये कहने में कुछ भी गलत नहीं है कि आजादी के बाद आरक्षण सामाजिक तौर पर जरूरी था वहीं अब इसे जारी रखना राजनीतिक मजबूरी बन गई है। सवर्ण समाज को ये बात समझ लेनी चाहिए कि वे जब तक अपने बिखरे वोट बैंक को सहेज कर एक दबाव समूह नहीं बनेंगे तब तक उनके अपने नेता भी उन्हें भाव नहीं देने वाले। गत दिवस हुए बंद में किसी भी दल के नेता की गैरमौजूदगी काफी कुछ कह गई। उस दृष्टि से देखें तो आरक्षण की स्थिति में किसी भी तरह के सुधार अथवा बदलाव की संभावना न के बराबर है। प्रजातन्त्र में चुनाव जीतने के लिए वोट बैंकों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। उस लिहाज से दलित, आदिवासी, पिछड़े, अल्पसंख्यक सभी चुनाव परिणामों को प्रभावित करते हैं।

बहरहाल मुद्दा आरक्षण का है और आजादी के 70 साल बाद आरक्षण की समीक्षा होनी ही चाहिए। जब सरसंघचालक मोहन भागवत ने बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान यह मुद्दा उठाया था, तब ऐसा दुष्प्रचार किया गया कि भाजपा−संघ आरक्षण व्यवस्था ही समाप्त करना चाहती हैं। उस मिथ्या प्रचार ने भाजपा को पराजित कर दिया। अब कांग्रेस−बसपा गलत प्रचार कर रही हैं कि भाजपा की मोदी सरकार आरक्षण ही खत्म करना चाहती है और अनुसूचित जाति जनजाति अत्याचार निवारण कानून को भी रद्द किया जा रहा है। दंगा भड़काने, हिंसा को हवा देने और देश को बांटने के मद्देनजर ऐसी गलतबयानी ही काफी है। 

इन दिनों भारत में चलन−सा बन गया है कि यदि हम सरकार की नीतियों या न्यायालय के आदेश से सहमत नहीं हैं तो बस जला देंगे, रेलवे लाइन उखाड़ फेंकेंगे, सार्वजनिक संपत्ति को अपार क्षति पहुंचाएंगे, आदि। क्या इसीलिए हमें अनुच्छेद 19 के अंतर्गत अधिकार मिले हैं? एससी-एसटी एक्ट के अंतर्गत तत्काल गिरफ्तारी पर रोक लगाने के सर्वोच्च न्यायालय के दिशा−निर्देश के बाद दो अप्रैल को भारत बंद में भी लगभग दस लोगों की मौत हुई और सार्वजनिक संपत्ति को भारी क्षति पहुंचाई गई। लोगों को समझने की जरूरत है कि हम अपने लाभ के लिए दूसरों को क्षति न पहुंचाएं। हमारा अधिकार वहीं समाप्त हो जाता है जहां हमारी वजह से दूसरों के अधिकारों का हनन होने लगता है। लोगों की सुरक्षा केवल राज्य का कर्तव्य नहीं है, राष्ट्र के प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य है कि सार्वजनिक संपत्ति की सुरक्षा और संविधान का सम्मान करे।

दलित आदिवासी, गरीब, ओबीसी आदि तबकों की सुरक्षा एवं कल्याण को लेकर सरकार कितने भी दावे करे, पर इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती है कि देश के विभिन्न प्रदेशों में हाल के वर्षों में दलितों व आदिवासियों पर अत्याचार की वारदातों में बढ़ोतरी हुई है। दलितों को जलील करना व मारा जाना दुर्भाग्यपूर्ण है। बताया जाता है कि भारत बंद के बाद कुछ प्रादेशिक सरकारें कथित तौर से दलितों को प्रताड़ित कर रही हैं, जिसे उचित नहीं माना जा सकता है। इतना ही नहीं उत्तर प्रदेश में कुछ दलितों को कथित तौर से पलायन करने पर मजबूर होने जैसी खबरें हमें भयावह करती हैं, लेकिन इसमें कितनी सच्चाई है, यह कहना बहरहाल मुश्किल है। सरकार से अपेक्षा की जाती है कि वह दलितों पर राजनीति करने के बजाय दलितों, आदिवासियों, गरीबों व दूसरे पिछड़े वर्ग के लोगों की भावनाओं को समझे और इस दिशा में उचित कदम उठाए। तुच्छ और स्वार्थ राजनीति के बीच देश की सामाजिक समरसता तार−तार नहीं होनी चाहिए। राजनीतिक दलों को अपने गिरेबां में झांकना चाहिए कि आखिरकर वो देश को किस दिशा में ले जा रहे हैं। 

−तारकेश्वर मिश्र

(लेखक मान्यता प्राप्त स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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