बच्चों को सिर्फ सुनाइये नहीं, जरा उनकी सुनिये भी, वह बहुत कुछ कहना चाहते हैं

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संवाद के नाम पर हम शायद उन्हें आदेश दे रहे होते हैं, सूचनाएं परोस रहे होते हैं या फिर उनसे रोजनामचा ले रहे होते हैं। बताओ कि आज स्कूल में क्या हुआ? यह भी बताओ कि ट्यूशन में क्या पढ़ा आदि।

बच्चों से हम कब बात करते हैं? कहां बात करते हैं? कैसे बात करते हैं आदि सवाल आज की तारीख में खत्म होती कड़ी नज़र आते हैं। संवाद के नाम पर हम शायद उन्हें आदेश दे रहे होते हैं, सूचनाएं परोस रहे होते हैं या फिर उनसे रोजनामचा ले रहे होते हैं। बताओ कि आज स्कूल में क्या हुआ? यह भी बताओ कि ट्यूशन में क्या पढ़ा आदि। क्या इसे संवाद की श्रेणी में रखें? क्या हम इसे मुकम्म्ल संवाद मानें? जहां तक जे. कृष्णमूर्ति का मानना है कि हम संवाद प्रकृति के तमाम चीजों से किया करते हैं। हम पेड़ पौधों, पहाड़, जीव−जंतुओं से भी चाहे तो कर सकते हैं। और ये तमाम तत्व हमारे संवाद में हिस्सा भी लेते हैं। लेकिन हम बच्चों से संवाद स्थापित नहीं करते। जैसा कि ऊपर कहा गया हम बच्चों से संवाद करने की बजाए सूचनाओं का आदान प्रदान ज़्यादा किया करते हैं। ऊपर से बच्चों पर आरोप लगाते थकते नहीं हैं कि बच्चे सुनते नहीं हैं। बच्चे हमारी बातों में दिलचस्पी नहीं लेते। सोचना हमें है कि यदि हम सुनना चाहते हैं तो हमें कहना भी आना चाहिए। कैसे कहें और कितना कहें, कब कहें इसकी समझ हमें विकासित करनी होगी। 

पहली बात तो यही कि हम स्वयं सुनना नहीं चाहते। यानी भाषा के एक कौशल सुनने में हम कितने कमजोर हैं और दोषी बच्चों को ठहराते हैं कि बच्चे सुनते नहीं हैं। हम कब उन्हें कहते हैं उसका समय, स्थान, और परिवेश का भी ख़्याल नहीं रखते। जब मेहमान आए हुए होते हैं तब हम कहते हैं अजी ये तो सुनता नहीं है। स्कूल से आने के बाद सामान, कपड़े इधर उधर फेंक देता है। पढ़ने में तो ज़रा भी इसका मन नहीं लगता। एक हमारा समय था इस उम्र में हम कितने गंभीर थे। मजाल है हम अपने मां−बाप को जवाब दे दें। वैसे सोचने वाली बात यह है कि क्या आपका बच्चा उस वक़्त सुन रहा है या सुनने का स्वांग कर रहा है। दरअसल उस वक़्त हम बच्चे से संवाद स्थापित करने की बजाए अपनी आपबीती और बच्चे की दुनिया की उपेक्षा और अस्वीकार्यता औरों के समक्ष रख रहे होते हैं। हमें अनुमान नहीं होता कि इस पूरी प्रक्रिया में बच्चा कहीं न कहीं स्वयं को उपेक्षित और हेय मानने और समझने लगता है। दूसरे शब्दों में कहें तो बच्चा अंदर ही अंदर कुंठित होने लगता है। जब पापा या मम्मी को मेरी बुराई ही करनी है तो करें। मैं तो ऐसा ही हूं। हम अनजाने में बच्चे की अस्मिता और सम्मान को ठेस पहुंचा रहे होते हैं। हमें इसका खामियाजा आगे चल कर भुगतना पड़ता है। जब बच्चा उच्च या माध्यमिक स्कूल में आ जाता है। अब वह खुल कर अपना तर्क रखने लगता है। आपसे भी तर्क और प्रतितर्क करने लगता है। तब हमें महसूस होता है कि यह हमसे जबान लड़ा रहा है। जबकि वह जबान नहीं लड़ा रहा है बल्कि वह समझने की कोशिश करता है कि जो चीज पापा−मम्मी को पसंद नहीं है वह हमारे लिए कैसे हितकर हो सकते हैं।

आज की तारीखी हक़ीकत यह है कि बच्चों के आत्मस्वाभिमान को हम तवज्जो नहीं देते। बल्कि अपनी प्रतिष्ठा और आत्मपहचान को ज़्यादा अहम मान बैठते हैं। यदि बच्चा फेल हो जाए या आपके कहने पर कोई कविता, कहानी दूसरों को न सुना पाए तो यह आपके लिए प्रतिष्ठा की बात हो सकती है। क्या हमने उस वक़्त बच्चे की पसंदगी पूछी? क्या बच्चे का बाह्य संसार अभी कविता व कहानी सुनाने के लिए माकूल है? हमें इन बातों को भी ध्यान में रखने होगा लेकिन हम जिस प्रकार की प्रतिस्पर्धा की दुनिया में सांसें ले रहे हैं ऐसे ही माहौल में हमारा बच्चा भी जी रहा है। अक्सर हमारी तुलना के खेल बचपन से ही शुरू हो जाते हैं जिसका दबाव मां−बाप पर और आगे चल कर बच्चों पर पड़ता है तो वह संक्रमित होते नज़र आते हैं। मसलन हर बच्चे की अपनी प्रकृति होती है वह उसी तरह विकसित होता है। कुछ बच्चे जल्दी बोलने और चलने लगते हैं। हम अपने भाग्य और बच्चों के बरताव पर चिल्लाने लगते हैं कि हमारा बच्चा तो बोलता ही है। फलां का देखो इससे छोटा है मगर साफ बोलता है। चलने भी लगा है। हमें धैर्य से काम लेने की आवश्यकता है।

जैसा कि ऊपर प्रमुखता से इस बात की तस्दीक की गई कि बच्चों से संवाद स्थापित किया जाये न कि सूचनाओं का आदान प्रदान। यदि ठहर पर मंथन करें तो पाएंगे कि बच्चों से संवाद करने की संभावनाएं दिन प्रति दिन कमतर होती जा रही हैं। बच्चों से संवाद की कड़ी जब अभिभावकों के हाथ से निकल कर बाजार के हाथ में आ जाती है तब स्थिति बिगड़ने लगती है। बाजार अपनी शर्तों पर, अपने तरीके से बच्चों से संवाद कम अपना कन्ज्यूमर ज्यादा बनाने लगता है। वह अपने प्रोडक्ट्स के उपभोक्ता तैयार करने लगता है। यही कारण है कि हमारे घरों में बच्चे हमारी कम बाजार और विज्ञापन की भाषा ज़्यादा जल्दी समझने और बोलने लगते हैं। बाजार की यही तो ताकत है कि बाल मनोविज्ञान का इस्तेमाल इन्हीं उपभोक्ताओं को फांसने में करता है। हम धीरे धीरे बच्चों की भाषायी और संवादी परिधि से बाहर होने लगते हैं। जब हमारे हाथ से बाल−संवाद की डोर छूटने लगती है तब हमारी चिंता बढ़ने लगती है। हम आनन−फानन में टीवी के रिमोट छुपाने लगते हैं। केबल कटवाने लगते हैं और न जाने कैसे कैसे रास्ते अपनाने लगते हैं लेकिन हमारा बच्चा हमारी नहीं सुनता और न ही हमसे बातें करना पसंद करता है।

बाल−संवाद स्थापित करना जितना आसान और सहज है यह प्रकृति उतनी ही चुनौतिपूर्ण भी है। वह इस रूप में कि यहां प्रतिउत्तर देने वाला कई बार हमें निराश भी करते हैं और धैर्य की परीक्षा भी लेते हैं। हमें धैर्य बनाए रखना होता है। पूर्वनिर्धारित जवाबों से बाहर निकल कर नए उत्तरों को सुनने का कला भी हमें सीखनी होगी। 

बच्चों से संवाद के मुख्य सरोकार− बच्चों से संवाद स्थापित करने में हमारे आस−पास का भाषायी भूगोल काफी मदद करता है। बच्चा किस भाषा−भाषी परिवेश से जुड़ा है यदि उसे उस भाषा में प्रचुर मात्रा में ध्वनि, गीत, संगीत, कविता आदि सुनने को मिल रहे हैं तो वह बच्चा जल्द बोलना शुरू करता है। हमें बच्चों से जितना ज्यादा हो सके बातचीत करनी चाहिए। संभव है उस बच्चे की सफ्फाक आंखों में वह चमक न मिले लेकिन वह बच्चा गौर से आपकी बात और ध्वनि को सुनता है। सुनने के दौरान वह हमारे चेहरे, होठों की भंगिमाओं को देखता और बाद में अनुकरण करता है। इन पंक्तियों के लेखक ने अपने बच्चे के साथ गर्भ में ही पांच माह से ही श्लोक, मंत्र, कविता सुनना शुरू किया। समय और स्थान रोज दिन तय था। जब बच्चा गर्भ में ही था और सात और आठवें माह का हुआ तो श्लोक व मंत्र सुनने के दौरान उसकी गति और हलचल बढ़ जाती थी। जब पैदा हुआ कविश तो उसी तय समय पर उसे रोज दिन वही श्लोक, गीत और मंत्र सुनाने की प्रक्रिया जारी रही लेखक ने पाया कि कविश उन श्लोकों और मंत्रों को सुन कर चुप हो जाता है या फिर गौर से वक़्ता का चेहरा देखा करता है। ग़लत नहीं कहा गया कि अभिमन्यू गर्भ में मंत्रणा सुना रहा था।

हम यदि अपने बच्चे को अच्छा श्रोता और व़क्ता बनाना चाहते हैं तो उसे पहले हमें श्रव्य और बोलने के अवसर मुहैया कराने होंगे। लेकिन अफसोसनाक बात यह है कि हम भाषा के तीसरे और चौथे कौशल यानी पढ़ना और लिखने के कौशल को पहले पायदान पर देखने की जिद्द किया करते हैं। अमूमन देखा गया है कि बच्चे जिन्हें पढ़ना नहीं आता लेकिन उन्हें यदि कहानी या कविता की चित्रकथात्मक किताब दी जाए तो उन्हें गौर से देखते, उलटते पलटते हैं। बेशक वे अल्फाज़ न पढ़ पाएं लेकिन उन्हें चित्र बेहद पसंद आते हैं। चित्रों के ज़रिए वे कहानी के मर्म और कथानक तक की यात्रा का आनंद लेने की कोशिश करते हैं। बच्चे बड़ों से जिद्द किया करते हैं कि उन्हें कोई पढ़कर कहानी सुनाए। उन्हें बताए कि इस किताब में इस चित्र के साथ क्या कहानी चल रही है। अभी उन्हें ऐसे वाचक की ज़रूरत पड़ती है जो उन्हें कहानियों को पढ़कर उन्हें सुना सकें। जैसे जैसे उन्हें इन कहानियों में मजा आने लगता है वो कोशिश करते हैं कि उसे स्वयं भी पढ़ने लगें। जिन बच्चों के आस−पास किताबों का मेला हुआ करता है वे बच्चे किताबों का सम्मान भी करना सीख जाते हैं। किताबों के पन्ने दुरूस्त रहें, फटे नहीं जब तक यह चिंता हमें सताती रहेगी तब तक बच्चे किताबों से दूर ही होंगे।

बाल किताबों, बाल पत्रिकाओं और बच्चों को सुनने के मौहाल जितने सकारात्मक और प्रचुर होंगे उस माहौल में बच्चे जल्द बोलने और पढ़ने भी लगते हैं। इन पंक्तियों के लेखक ने पाखी, विभू को बचपन से ही चित्रकथा और बाल कहानियों की किताबें भेंट की हैं। इसका परिणाम यह हुआ कि इन दोनों ही बच्चों में किताबें पढ़ने की ललक पैदा हुई और मांग मांग कर किताबें पढ़ करते हैं। जब पाखी छोटी थी तब कहानी सुनाने और किताब को पढ़कर कहानी कहने की जिद्द किया करती थी। अब वो चौथी कक्षा में आ गई है। हाल ही में उसने एक कहानी लिखी है। उसका कहना है ज़रा इसे सुनना और पढ़ना भी। उस कहानी को पढ़ने के बाद उससे पोस्ट स्टोरी लेखन संवाद किया। क्यों फलां पात्र को चुना, क्यों ऐसी घटना हुई। कहानी में आए पात्र कहां से आए आदि। उसके उन पात्रों के चुनाव और गठाव के पीछे के तर्क शास्त्र भी साझा किए। संवाद का एक सूत्र हमें हमेशा बच्चों के देने होंगे। कहानी एक माध्यम है जिसके मार्फत हम बच्चों की दुनिया को समझ सकते हैं।

हम इस कदर व्यस्त हैं कि बच्चों की कहानी व बच्चों की किताबों से हमारा कोई खास सरोकार नहीं होता। हम बाजार से महंगी से महंगी चीजें और फोन तो देने में ज़रा भी पीछे नहीं हटते। बच्चा सोशल मीडिया पर पोस्ट करने लगे। फिल्म देखने लगे तो हमारा सीना दोगुना चौड़ा हो जाता है। लेकिन हमारा बच्चा पढ़ नहीं पाता तो यह हमारी चिंता से बाहर होती है। कितना अच्छा हो कि हम बच्चों से लगातार संवाद स्थापित किया करें। संवाद का अर्थ सवाल जवाब तक महदूद नहीं होता। बल्कि संवाद में वाद और संवाद शामिल हैं। बच्चा तर्क भी करेगा। बच्चा अपना प़क्ष भी रखेगा। कहानी की मूल प्रकृति को जब बदलने लगे और क्यों कैसे कब जैसे प्रश्न उठाने लगें तो समझना चाहिए हमारा संवाद सही राह पर है।

-कौशलेंद्र प्रपन्न 

(भाषा एवं शिक्षा पैडागोजी विशेषज्ञ)

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