त्वरित न्याय के लिए देश में लोक अदालतों की संख्या बढ़ाई जानी चाहिए

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नेशनल ज्यूडिशियल डाटा ग्रिड के ताजातरीन आंकड़ों के अनुसार देश की अधीनस्थ अदालतों में 3 करोड़ 12 लाख से अधिक प्रकरण विचाराधीन चल रहे हैं। इनमें 3 लाख 86 हजार मुकदमे तो 20 से 30 साल पुराने हैं।

राजस्थान में राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण द्वारा आयोजित एक दिनी लोक अदालत में ही 61 हजार मामलों का निस्तारण इस मायने में महत्वपूर्ण हो जाता है कि आपसी समझाइश से मामलों का निस्तारण कर न्यायालयों में वर्षों से लंबित विचाराधीन मामलों को आसानी से निपटाया जा सकता हैं। हालांकि सर्वोच्च न्यायालय की पहल पर अब लोक अदालतों का आयोजन होने लगा है और उसके सकारात्मक परिणाम भी मिलने लगे हैं। पर इस तरह की लोक अदालत राज्यों के विधिक सेवा प्राधिकरणों द्वारा भी समय−समय पर आयोजित की जाती रहें तो अदालतों में लंबित करोड़ों प्रकरणों में से लाखों प्रकरणों का निस्तारण हो सकता है और इससे न्यायालयों का काम का बोझ भी कम हो सकता है।

अभी पिछले दिनों ही केन्द्र सरकार द्वारा संसद में प्रस्तुत आर्थिक सर्वेक्षण में बताया गया है कि देश की अदालतों में साढ़े तीन करोड़ से अधिक मामले लंबित चल रहे हैं। नेशनल ज्यूडिशियल डाटा ग्रिड के ताजातरीन आंकड़ों के अनुसार देश की अधीनस्थ अदालतों में 3 करोड़ 12 लाख से अधिक प्रकरण विचाराधीन चल रहे हैं। इनमें 3 लाख 86 हजार मुकदमे तो 20 से 30 साल पुराने हैं। यही कारण कि पिछले साल देश की सर्वोच्च अदालत ने केन्द्र सरकार से उच्च न्यायालयों में 93 और अधीनस्थ न्यायालयों में 2773 न्यायाधीशों के पद स्वीकृत करने का पत्र लिखकर पद सृजन करने का आग्रह किया है।

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आज देश भर के न्यायालयों में मुकदमों का अंबार लगा हुआ है। इसमें कोई दो राय नहीं कि न्याय मिलने में समय कितना भी लगे पर लोगों का देश की न्याय व्यवस्था पर विश्वास है। हिंदी फिल्म 'जॉली एलएलबी-2 के अंतिम दृश्य में माननीय न्यायाधीश द्वारा यह कहना कि लोगों का आज भी न्यायपालिका पर विश्वास है तो यह अतिश्योक्ति नहीं कही जा सकती है। ज्यूडिशियल ग्रिड की रिपोर्ट और संसद में प्रस्तुत आर्थिक सर्वेक्षण की रपट के अनुसार देश भर की अदालतों में साढ़े तीन करोड़ मुकदमे लंबित चल रहे हैं। निश्चित रूप से इनमें से बहुत से मुकदमे तो कई दशकों से चल रहे हैं। इनमें से कई मुकदमे इस प्रकृति के भी हैं कि जिनका निस्तारण आपसी समझाइश व सरकार के सकारात्मक रुख से आसानी से हो सकता है। अब यातायात पुलिस के चालान, बैंकों के कर्ज वसूली से संबंधित प्रकरण, पारिवारिक विवाद, चैक बाउंस होने या इसी तरह की छोटी−छोटी प्रकृति के लाखों की संख्या में विवाद न्यायालयों में लंबित होने से मुकदमों की संख्या बढ़ने से न्यायालयों पर अनावश्यक कार्य भार बढ़ता है। ऐसे में अभियान चलाकर इस तरह के मुकदमों का आपसी सहमति से निस्तारण निश्चित रूप से सराहनीय पहल हैं। अच्छी बात यह भी है कि लोक अदालत में निस्तारित मुकदमों की अपील नहीं की जा सकती, इससे बड़ी राहत मिलती है नहीं तो अपील दर अपील मुकदमे एक अदालत से दूसरी अदालत तक चलते ही रहते हैं और अंतिम निस्तारण की स्थिति आती ही नहीं। दशकों तक वाद का निस्तारण नहीं होने से वादी भी निरुत्साहित और ठगा हुआ महसूस करता है। हालांकि मुकदमों के अंबार को कम करने की दिशा में ठोस प्रयास निरतंर जारी है। कम्प्यूटरीकरण के माध्यम से मुकदमों की स्थिति, वाद की तारीख और अन्य जानकारी मुहैया कराई जाने लगी है। इससे वादियों को इस मायने में राहत है कि मुकदमे की स्थिति, तारीख आदि के लिए चक्कर नहीं काटने पड़ते हैं पर काम के बोझ और न्यायाधीशों की कमी के कारण निस्तारण में तेजी नहीं आ पा रही है।

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हमारे देश में 14 हजार के लगभग निचली अदालतें कार्यरत हैं। इसी तरह से 24 हाईकोर्ट और इनकी 300 बैंच सेवाएं दे रही हैं। सर्वोच्च न्यायालय की 13 बैंचों में 29 न्यायाधीशों द्वारा मुकदमों का निस्तारण किया जा रहा है। सर्वोच्च न्यायालय देश में लंबित मुकदमों के प्रति काफी गंभीर है। लोक अदालत की पहल से लंबित मुकदमों की संख्या कम करने की दिशा में किए जा रहे प्रयासों की दिशा में यह एक महत्वपूर्ण कदम माना जा सकता है।

लोक अदालत के माध्यम से 61 हजार मुकदमों का निस्तारण इस मायने में महत्वपूर्ण हो जाता है कि लोक अदालत के दौरान 1970 यानी कि करीब 50 साल से लंबित प्रकरण का निस्तारण आपसी समझाइश से संभव हो सका वहीं 1989 से लंबित मुकदमों का निस्तारण भी राजीनामे से हो सका। 61 हजार के अतिरिक्त 10 हजार प्री लिटिगेशन के मामले भी निपटाए जा सके। लोक अदालत का आयोजन इस मायने में महत्वपूर्ण हो जाता है कि इसमें लाखों की संख्या में देश भर में दर्ज यातायात नियमों के उल्लंघन के प्रकरणों, मामूली विवाद के प्रकरणों, पारिवारिक राजस्व विवादों, भुगतान के लिए दिए गए चैक बाउंस होने के मामलों आदि को आपसी समझाइश से आसानी से निपटाया जा सकता है। दहेज और पति−पत्नी के बीच के विवादों को तो और भी आसानी से निपटा कर बड़ी राहत दी जा सकती है। क्योंकि यह सब इस तरह के प्रकरण हैं जिनको वादी−प्रतिवादी के बीच ही या सरकार व वादी के बीच दोनों ही पक्ष इनके निस्तारण में अपनी भलाई ही समझते हैं और इससे न्यायालयों में भी बेकार के काम का बोझ आसानी से कम हो सकता है। ऐसे में लोक अदालत की इस तरह की पहल को प्रोत्साहित करना चाहिए। लोक अदालतों के आयोजन का व्यापक प्रचार−प्रसार होने से सकारात्मक माहौल बन सकेगा।

-डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा

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