छुटि्टयों भरे हमारे देश में लोग और छुट्टी का जुगाड़ लगाते रहते हैं

India is full of holidays
संतोष उत्सुक । Feb 24 2018 10:31AM

एक तरफ छुट्टियों की छुट्टी कर दी गई है तो दूसरी तरफ आराम से मिलने वाली छुट्टियां भी कम लगती हैं। देखा जाए तो अस्तव्यस्त हो चुकी हमारी जीवन संस्कृति में सरकारी छुटि्टयां अब इस तरह से रच बस गई हैं जैसे भ्रष्टाचार।

संचार व्यवस्था के बढ़ते प्रभुत्व के कारण सामाजिक व मानवीय रिश्तों के धागे कमज़ोर हुए हैं। समय का बेहतर प्रबंधन भी निरंतर विकसित हो रहा है, अभिव्यक्ति व गपशप के लिए फेसबुक जैसे कई प्लेटफार्म उपलब्ध हैं लेकिन व्यक्तिगत मिलना जुलना अब अप्रचलित हो चुका है। आमने आमने बैठ भी लो तो भी फ़ेस टू फ़ेस होने में वो मज़ा नहीं रहा। फिर भी हम में से कुछ लोग हैं जो छुट्टी के दिन चाय पीने के बहाने आपस में मिल बैठ कर, ज़िंदगी के दुख सुख सही मायनों में बांट लेते हैं। अब पारिवारिक आयोजन शनिवार रात या रविवार या फिर अन्य छुट्टियों में रखा जाता है ताकि अधिकांश लोग पहुँच सकें। किसी को भी दूसरों के लिए अपनी छुटि्टयां खराब करना नहीं सुहाता।

कार्य व्यवस्था निजी व सरकारी दो हिस्सों में है। एक तरफ छुट्टियों की छुट्टी कर दी गई है तो दूसरी तरफ आराम से मिलने वाली छुटि्टयां भी कम लगती हैं। देखा जाए तो अस्तव्यस्त हो चुकी हमारी जीवन संस्कृति में सरकारी छुटि्टयां अब इस तरह से रच बस गई हैं जैसे भ्रष्टाचार। किसी सरकारी कार्यालय में स्टाफ पूरा है दूसरे में बहुत कम है। कुछ लोग काम के कारण पिस रहे हैं तो दूसरों के पास आराम का जुगाड़ है। छुटि्टयां कम नहीं होतीं तभी तो आम जनता के काम लटकते, सरकते व फिसलते रहते हैं। छुट्टी का अचरज भरा प्रारूप यह है कि सभी विभागों में समान रूप से अवकाश नहीं होता। समाज में किसी स्तर पर भी समानता नहीं है तो यहां कैसे हो सकती है भला। कोई छह दिन दस घंटे काम करे मगर रविवार नहीं आता तो कितनों के पास धूप सेंकने व गप्पबाज़ी का अनंत समय है। अपने निजी काम तो सरकारी कार्यसमय के दौरान निबटाने के ईमानदार प्रयास सब करते ही हैं।

सरकारी नौकरी में खूब छुटि्टयां रहती हैं। कितनी छुट्टियां राष्ट्रीय, ऐतिहासिक कारण, सर्वधर्म सद्भाव, धर्म निरपेक्षता, धर्मगुरु, वर्गगत नेता के नाम पर मिल जाती हैं। अपनी जाति के महा पुरुषों के नाम पर छुट्टियों की खतरनाक परंपरा कुछ नेताओं ने खूब उगा रखी है। कुछ दर्जन बंदे धार्मिक नारे लगा दें तो सरकार की छुट्टी होने लगती है और छुट्टी घोषित हो जाती है। राज्य दिवसों, शोभायात्रा अवकाशों के इलावा  ज़िलाधीश द्वारा घोषित स्थानीय छुटि्टयां और हां बार-बार चुनाव होने के सुअवसर पर वोट न डालने पर भी मिलने वाली पेड छुटि्टयां। सरकारी दफ्तर कई बार चार दिन भी बंद हो लेता है। कभी कभी तो एक या दो छुटि्टयां लेने से सात दिन की छुट्टी खड़ी हो जाती है चाहे कई देश घूम आओ। हर बरस लगभग इक्कीस गजटेड, तेरह रिस्ट्रक्टड अवकाश होते हैं। इतनी छुटि्टयों से भी काफी लोग खुश नहीं होते जबकि इनके इलावा तीस दिन अर्जित अवकाश, बारह आकस्मिक, सभी शनिवार व हर रविवार उनकी जेब में होते हैं। प्राईवेट जॉब वाले छुटि्टयां न मिलने का दर्द सही बयां कर सकते हैं। उन्हें छुट्टी का असली मोल पता है कि क्या होती है, कैसे मिलती है, कितनी मिलती है। निजी क्षेत्र में काम करना बाध्यता है। इधर गूगल व फेसबुक जैसी कंपनियों ने काम करने का माहौल सहज, हल्का व अनुकूल बनाया है ताकि कर्मचारी आनंदित रहें। अन्य कंपनियों में ऐसा माहौल आते बरसों लगेंगे। ज़्यादा असुविधा तो असंगठित क्षेत्र में काम करने वालों को है।

थोड़ा हिसाब किताब किया जाए तो औसतन दो सौ सरकारी कार्यदिवस ही बनते हैं। हम बातें अमरीका, जापान व इंग्लैंड की करते हैं जहां बेहतर कार्यसंस्कृति है। वहां देश व काम पहले है और यहां हम प्रतीक्षा में रहते हैं कि अगली छुट्टी कब आ रही है। जुगाड़ लगाते रहते हैं कि किस तिथि की छुट्टी लेकर तीन की चार हो जाती हैं या दो लेकर चार की छह हो जाती हैं हमारी छुटि्टयां। हम प्रार्थना करते रहते हैं कि छुट्टियां बढ़ें और ऐसा भी होता रहे जैसे मोरारजी देसाई की मृत्यू पर छुट्टियां जुड़ जाने पर देश एक सप्ताह के लिए ब्रेक में चला गया था। हिमाचल प्रदेश में सिर्फ महिलाओं को रक्षा बंधन, भाई दूज व करवा चौथ पर गजेटिड छुट्टी होती है, साथ में बस में मुफ्त यात्रा सुविधा भी उपलब्ध होती है।

हमारे लिए छुट्टी का दिन, बस छुट्टी है चाहे स्वतंत्रता दिवस, गणतन्त्र दिवस क्यूं न हो। कुछ लोगों का मत है कि जीवन में छुट्टियों का लुत्फ और बढ़ाने के लिए त्योहारों के मौकों पर होने वाली छुटि्टयां आगे पीछे कर देनी चाहिए यानि त्योहारों को ही खिसका देना चाहिए। उदाहरणार्थ यदि कोई त्योहार या उत्सव मंगलवार को पड़ रहा हो तो उसे शिफ्ट कर सोमवार को कर देना चाहिए यदि शुक्रवार को हो तो शनिवार। विकसित होते जा रहे सभ्य समाज का कसैला सच बताता है कि हमने अपने त्योहारों का क्या हाल किया है। अब ज़्यादातर लोगों के लिए उत्सव, स्वार्थपूर्ति दिवस बन गए हैं। वैसे भी स्कूल वाले त्योहारों को अपने सुविधा दिवस पर मना ही रहे हैं। बच्चे तो सीख ही रहे हैं, उनके अभिभावकों को भी तो खालिस लाभ मिल रहा होगा।

यह सुझाव सार्थक है कि महापुरुषों के संदर्भ में हो रही छुट्टियों को कार्यदिवस में बदल कर उनके रास्ते पर चलकर ज़्यादा काम करने का समय आ गया है। हर बरस होने वाली छुटि्टयों में से क्या कभी, किसी साल में कुछ छुटि्टयों की छुट्टी कर दी जाएगी ? इस बारे विकास पथ पर दौड़ रहे हमारे देश के कर्णधारों को एक दिन तो सोचना पड़ेगा ताकि हमारा देश दुनिया में सबसे अधिक पब्लिक हॉलिडेज़ वाला देश तो न रहे। वैसे 2018 में सबसे लम्बी दस दिन की छुट्टी का सुनहरी मौका आ रहा है, बधाई ‘न्यु इंडिया वालो’।

-संतोष उत्सुक

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