दूसरों के लिए तालियां ही बजाते रहेंगे या अपने खेलों पर भी ध्यान देंगे

India must reform games other than cricket

फीफा वर्ल्ड कप का बुखार जैसा और देशों में चढ़ा था, वैसे ही भारत में भी चढ़ा। आबादी और प्राकृतिक संसाधनों की दृष्टि से भारत जैसा विशाल देश इस बार भी विश्व कप के दौरान तालियां ही बजाता रह गया।

रूस में हुए फुटबाल के विश्व कप के समापन के साथ ही इसकी खुमारी भी उतरने लगी है। फीफा वर्ल्ड कप का बुखार जैसा और देशों में चढ़ा था, वैसे ही भारत में भी चढ़ा। आबादी और प्राकृतिक संसाधनों की दृष्टि से भारत जैसा विशाल देश इस बार भी विश्व कप के दौरान तालियां ही बजाता रह गया। यह सिलसिला फीफा कप की शुरुआत से ही चला आ रहा है। हर चार साल बाद यह भव्य आयोजन किसी न किसी देश में होता है और भारत जैसा विश्व की सर्वाधिक नम्बर दो की जनसंख्या वाला देश टीवी पर ही मैचों को देख कर अपनी हसरत पूरी करता है। भारत में भी फुटबाल के क्रिकेट जितने दर्शक हैं। भारत दूसरे देशों को जीतते−हारते देखते हुए कभी अफसोस तो कभी खुशी जाहिर करने तक सीमित रहता है। फीफा कप की चमक−दमक, फुटबाल की व्यवसायिक और खेल प्रतिद्वंद्विता, कौशल और तकनीक का जादू ही कुछ ऐसा है कि प्रतियोगिता में भाग नहीं ले सकने के बावजूद भारत जैसे देश भी उसके जादू का झौंक में आ जाते हैं। सवाल यह है कि भारत कब तक दूसरों को खेलते हुए, जीतते−हारते हुए तालियां बजाता रहेगा। आखिर हमारे स्वाभिमान कब जागेगा। हम इस लायक कब बनेंगे की फीफा में भारत का राष्ट्रगान सुनाई दे सके। देश में खेलों के मौजूदा हालात के मद्देनजर तो फीफा का आयोजन भारत में होना ठीक उसी तरह का सपना है, जिस तरह इसमें शिरकत करने का ख्वाब। 

क्या एक अरब की आबादी वाले देश में पन्द्रह−बीस विश्वस्तरीय खिलाड़ी नहीं मिल सकते। क्या केन्द्र−राज्यों के खेल मंत्रालय और खेल संगठनों को इस पर कोई शर्मिंदगी महसूस नहीं होता कि हम हर बार सिर्फ दूसरों के लिए तालियां बजाते ही रह जाते हैं। आखिर हमारी खेल की रीति−नीति ऐसी क्यों हैं कि मुट्ठी भर सफलता भी हमारी झोली में नहीं आती। ऐसे विषय राष्ट्रीय अफसोस का कारण और राजनीति का मुद्दा क्यों नहीं बनते। हम ऐसे आयोजनों और उनमें शिरकत करने को चुनौती के रूप में क्यों नहीं लेते। फुटबाल सहित दूसरे खेलों में हमारी हालत शर्मनाक है। 

फुटबाल में भारत की विश्व में 97वीं रैंक है। दूसरे टीम वाले खेलों में भी कमोबेश यही स्थिति है। वॉलीबाल में पुरूष टीम की 38वीं और महिला टीम की 55वीं रैंक हैं। बॉस्केटबाल में पुरूष टीम 63 और महिला टीम की 45वीं रैंक है। कुछ ऐसा ही हाल हैंडबाल का है। इसमें पुरूष टीम की 48वीं और महिला टीम की 59वीं रैंकिंग है। वाटरपोलों की तो देश में कोई टीम ही नहीं है। देश का राष्ट्रीय खेल हाकी राष्ट्र तक ही सिमट कर रह गया है। हाकी के प्रदर्शन में कुछ सुधार जरूर हुआ है, किन्तु इतना नहीं कि ओलम्पिक और हाकी की विश्व चैम्पियनशिप में पदक की दावेदारी पेश कर सकें। जहां तक निजी प्रतिस्पर्धाओं में उपलब्धियों का सवाल है, वह उंगलियों पर गिनने लायक हैं। 

स्नूकर, टेनिस, कुश्ती, बैटमिंटन, निशानेबाजी, भारोत्तोलन, कुश्ती, एथलेटिक्स, बॉक्सिंग और जिम्नास्टिक में विश्वस्तरीय प्रदर्शन ज्यादातर खिलाड़ियों ने अपने बलबूते किया है। फाकाकसी की हालत में दर्जनों खिलाड़ियों के विश्व स्तर तक पहुंचने की खबरें आती रहती हैं। निजी स्पर्धाओं में चुनिंदा उपलब्धियों से जाहिर है कि खेल संगठन दशकों से देश पर बोझ बने हुए हैं। रही−सही कसर सरकारी खेल नीति ने पूरी कर दी। सरकारी नजरिये में खेलों की प्राथमिकता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पंचायत से लेकर लोकसभा चुनाव तक राजनीतिक दल खेलों के विकास को घोषणा पत्रों में शामिल करने लायक तक नहीं समझते। 

भ्रष्टाचार की गन्दगी से खेल भी अछूते नहीं हैं। क्रिकेट के मामले में सुप्रीम कोर्ट का दखल देना, इसका सबसे बड़ा प्रमाण है। दूसरे खेल भी इससे अछूते नहीं हैं। राष्ट्रमंडल खेलों में हुए भारी भरकम भ्रष्टाचार की गूंज अभी तक सुनाई पड़ती है। ऐसा नहीं है कि चाहे फीफा कप हो या ओलम्पिक की स्पर्धाएं, इनमें हमारे पास संभावनाएं नहीं हैं। किन्तु खेलों मे युवा अपना भविष्य तलाश नहीं करते। खेलों में कोई पैकेज नहीं मिलता। कुछ हजार की सैलेरी के लिए युवा अपना कॅरियर दांव पर लगाना नहीं चाहते। यदि लगा भी दें तो इस बात की गारंटी नहीं कि उन्हें नौकरी मिल ही जाएगी। सरकारी नौकरियों में जातिगत आरक्षण खेलों पर हावी है। विश्वस्तरीय प्रदर्शन करने वाले खिलाड़ियों को एक−दो प्रतिशत आरक्षण मिलता भी है, तो बगैर संसाधनों के अपने बलबूते विश्वस्तर तक पहुंचना आसान भी नहीं है। 

खेलों की हालत करेला और नीम चढ़ा जैसी है। अव्वल तो विभिन्न खेलों में उम्दा खिलाड़ियों का अकाल पड़ा हुआ है, रही−सही कसर खेल संगठनों और सरकारों की नीतियों ने पूरी कर दी। सभी को खेल देखना अच्छा लगता है। स्वास्थ्य के लिए स्कूल तक खेलना भी ठीक माना जाता है। अभिभावक बच्चों को इससे आगे भेजने को तैयार नहीं होते। बच्चों को खिलाड़ी बनने के लिए प्रोत्साहित करने का वातावरण ही गायब है। 

अभिभावक जब अपने आस−पास देखते हैं कि उनके समकक्ष परिवारों के बच्चे लाखों के पैकेज पर नौकरी पर जा रहे हैं, तब अपने बच्चे के सामने भी उन्हीं को आदर्श के तौर पर पेश करते हैं। खेलों को अब भी वक्त बर्बाद करन माना जाता है। सचिन तेंदुलकर, विराट कोहली जैसे खिलाड़ी चर्चा में ही अच्छे लगते हैं। क्रिकेट में भी गिने−चुने युवा ही अपना भविष्य देखते हैं। उसका कारण भी स्टार खिलाड़ियों की चमक−दमक है। यह निश्चित है कि देश में खेलों का उत्थान तभी होगा जब सुदृढ़ खेल नीति बनेगी। लुंजपुंज नीति की बदौलत फीफा या दूसरी विश्वस्तरीय प्रतियोगिताओं में शिरकत और सफलता हासिल नहीं की जा सकती।

-योगेन्द्र योगी

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