अच्छे पड़ोसी मिलना सचमुच बड़े सौभाग्य की बात होती है

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शिमला के पांच साल के प्रवास में कितने ही मौके आए जब हम पड़ोसी एक दूसरे के काम आए। यह अनुभूति कितनी बार हुई कि पड़ोसी ही असली रिश्तेदार होते हैं। यह बात एक बार फिर से साबित हो गई कि अच्छे पड़ोसी सचमुच नियामत होते हैं।

देश, समाज और व्यक्तिगत प्रगति की फसल हमने कुछ खास अंदाज़ में ही उगाई, पकाई और हज़म की लगती है। इसका ख़ासा असर हमारी रोज़मर्रा की ज़िंदगी पर हुआ है। आपसी स्नेह, प्यार व सहयोग के मौसम को इतना प्रदूषित कर दिया है कि रविवार को, बिना सूचित किए बेहद ज़रूरी काम से मिलने जाना पड़े तो भी चार छह महीने में एक आध बार मुस्कान बतौर उपहार में देने वाला पड़ोसी भी टेढ़े मुंह से बड़बड़ाता हुआ लगता है, ‘लोग रविवार को भी परेशान करते रहते हैं’। बढ़ते अनंत संपर्क के मौसम में संवाद परेशान हो गया है। संपर्क ने इतना कब्ज़ा कर लिया है कि एक छत के नीचे रहने वाले लोग गुड मॉर्निंग भी पड़ोसियों की तरह वहट्स एप पर करने लगे हैं।

    

कुछ सरकारी विभागों की नौकरी में तबादला ज़रूरी है इसलिए कर्मचारियों को नियमित अंतराल पर दूसरे शहर जाना ही पड़ता है। हमारा भी ट्रांसफर हुआ शिमला। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध पर्यटक स्थल शिमला में प्रवास की उत्कण्ठा तो थी मगर साथ साथ एक असमंजस भी था कि वहां पड़ोसी कैसे होंगे। मैंने कहीं पढ़ा था कि अच्छे पड़ोसी सौभाग्य से मिलते हैं अगर ऐसा हो जाए तो रिश्तेदारों से बेहतर सहयोगी, स्नेही व उदार साबित होते हैं इस दौरान जीवन काटा नहीं, जिया जाता है। पैकिंग जारी थी, मौका भी था और दस्तूर भी, मित्र-परिचित आते व नौकरी में ट्रांसफर व ज़िन्दगी में पड़ोसी के बारे में अपने अनुभव अवश्य बांटते। हमें भी सहज लगता, आ रहे समय के लिए लाभदायक फीडबैक भी मिलता।

शिमला पहुंचकर, जिस मकान में रहना था, तक पहुंचे तो रास्ते से लिया पीने का पानी ख़त्म हो गया था। सामान घर के अंदर शिफ्ट हो रहा था, कुछ देर तक लगा कि कम से कम पीने का पानी लेकर अभी कोई पड़ोसी आएगा मगर किसी ने झांका तक नहीं। मज़बूरन मैंने खुद ही पड़ोस के घर में दस्तक दी, खिड़की खुली तो मैंने कहा पीने का पानी दीजिएगा। उन्होंने घर का मुख्य द्वार नहीं खोला और खिड़की से ही पानी का जग पकड़ा दिया। मुझे लगा अब यह हमें गरमागरम चाय पिलाएंगे और शायद रात के खाने के लिए भी पूछेंगे तो। मगर उन्होंने बदल चुके वक्त के मुताबिक व्यवहार किया, एक कप चाय के लिए भी पूछना उन्हें उचित नहीं लगा। मेरी पत्नी द्वारा उस मकान को घर बनाने के तीन-चार दिन बाद, हमने अपने केवल पानी पिलाऊ पड़ोसी पति पत्नी को चाय पर बुलाया और वे समय निकाल कर आए भी। पड़ोस में आए एक अपरिचित ने सही पड़ोसी धर्म की शुरूआत की।

खैर उस मकान में हम ज़्यादा दिन नहीं रहे, हमने एक और जगह घर ढूंढा। हमें अब फिर से नए लोगों का पड़ोसी बनना था। यह ठीक है हर जगह सब तरह के लोग होते हैं। मगर, हमारे पड़ोसी पता नहीं कैसे होंगे यह प्रश्न तो मटक ही रहा था। सामान लोड़ होते, निकलते फिर देर हो गई व रात को नए मोहल्ले में पहुंचे। मकान मुख्य सड़क से दूर नीचे था, मज़दूरों को सामान ढोते ढोते रात के बारह बज गए। इस बार हमारे पड़ोसी ने जिस तरह से पड़ोसी की भूमिका अदा की वह नायाब रही। जब तक पूरा सामान पहुंच नहीं गया शर्माजी मेन रोड़ पर सामान के आस पास रहे। घर गए तो फिर आ गए। मैंने उन्हें बार बार गुज़ारिश मगर वह माने नहीं। रात को जब हम अपने फ्लैट में जाने लगे तो श्रीमती शर्मा ने पूरे अदब से कहा कि आप बहुत थक गए होंगे, बहुत ठंड है रैस्ट किजीए। आप आज हमारे यहां ही सोएंगे। उन्होंने हमें रजाई में बिठाया और अदरक व काली मिर्च की चाय पिलाई पूरे अधिकार के साथ। हम सोते समय कभी चाय नहीं लेते मगर उनके अनापेक्षित अद्भुत व्यव्हार को सलाम करते हुए मज़े से पी। सुबह बैड टी के बाद जब हम पति पत्नी और बेटी मिलकर सामान खोलकर अरेंज करने लगे तो आफिस जा रही श्रीमती शर्मा ने कहा आपके लिए नाश्ता तैयार कर दिया है और लंच भी उनके यहां खाना होगा। हमने उनसे हाथ जोड़कर कहा कि आपने हमारे लिए पहले ही काफी कर दिया है अब और तकलीफ न करें, शुक्रिया। वह तपाक से बोलीं अगर आप हमारा आग्रह नहीं मानेंगे तो हम आपके घर कैसे आ सकेंगे और भाभीजी के हाथ का पकाया खा पाएंगे। उनके लाजवाब, खुले, आत्मीय व्यव्हार के कारण हम चुप, सोचने लगे क्या ऐसे लोग सचमुच अभी हैं दुनिया में। दिलचस्प यह कि उस दिन शर्माजी का जन्मदिन था। हमें अपने नए पड़ोसियों के उम्दा सद्व्यव्हार के सामने नतमस्तक होना पड़ा। शिमला के पांच साल के प्रवास में कितने ही मौके आए जब हम पड़ोसी एक दूसरे के काम आए। यह अनुभूति कितनी बार हुई कि पड़ोसी ही असली रिश्तेदार होते हैं। यह बात एक बार फिर से साबित हो गई कि अच्छे पड़ोसी सचमुच नियामत होते हैं।

-संतोष उत्सुक

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