भाजपा चुनाव हारी जरूर है पर जनता ने उसे खारिज नहीं किया है

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अजय कुमार । Dec 17 2018 1:51PM

पांच राज्यों के चुनाव नतीजों के बाद कांग्रेस को इस समय सब हरा ही हरा दिख रहा है, लेकिन जानकारों की राय थोड़ा जुदा है। वह कांग्रेस को सलाह दे रहे हैं कि अभी कांग्रेस को ज्यादा उत्साहित नहीं होना चाहिए।

सियासत में ठप्पे की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है। एक बार किसी नेता के ऊपर कोई ठप्पा लग जाए तो फिर वर्षों लग जाते हैं ठप्पे के दाग मिटाने में। ऐसा नहीं है कि ठप्पा हमेशा नुकसानदायक ही होता है। अच्छे कामों के लिये भी ठप्पे लगते हैं। इसी के चलते तो मोहनदास करम चंद गांधी को महात्मा की उपाधि मिल गई। सुभाष चन्द्र बोस को नेताजी, प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को चाचा नेहरू, उनकी पुत्री और पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को आयरन लेडी, पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी को मिस्टर क्लीन कांग्रेस नेता और देश के प्रथम गृह मंत्री सरदार बल्लभभाई पटेल को सरदार के नाम से, पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को मौनी बाबा के नाम से संबोधित किया जाता था। इसी तरह से बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू यादव को चाराचोर, समाजवादी नेता और पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह को मुल्ला मुलायम, अपने आप को दलित की बेटी बताने वाली मायावती को दौलत की बेटी, छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री डॉ. रमन को चावर बाले बाबा, मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को मामा, राहुल गांधी को पप्पू और नरेन्द्र मोदी को फेंकू अथवा जुमलेबाज की संज्ञा हो अथवा नीतीश कुमार को सुशासन बाबू की उपाधि का मिलना इसी कड़ी का हिस्सा है।

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ठप्पा सकारात्मक हो तो नेताओं को फायदा मिलता है और नुकसान हो तो नेता ही नहीं पार्टी को भी नुकसान उठाना पड़ता है। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी इस बात के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। अपनी पप्पू वाली छवि से उबरने के लिये राहुल को वर्षों तक इंतजार करना पड़ा। अब जाकर तीन बड़े राज्यों के नतीजे कांग्रेस के पक्ष में आने के बाद राहुल गांधी को लोग गंभीरता से लेने लगे हैं। इसी के चलते आम चुनाव से पूर्व राहुल गांधी से दूरी बनाकर चल रहे अखिलेश यादव और बसपा सुप्रीमो मायावती को अब कांग्रेस के साथ चलने में कोई बुराई नजर नहीं आती है। आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चन्द्रबाबू नायडू, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, राष्ट्रवादी कांग्रेस के अध्यक्ष शरद पवार, वामपंथी नेता सीताराम यचुरी, दिग्गज नेता शरद यादव आदि को भी राहुल के मीडिया से रूबरू होने के समय हाथ बांधे पीछे खड़ा देखा जाना बताता है कि सियासत मौका परस्त और बेशर्म दोनों ही है।

बहरहाल, राहुल गांधी के सियासी सफर के कुछ पुराने पन्ने खोलना भी जरूरी है। एक दशक लंबी मांग के बाद 16 दिसंबर 2017 को जब राहुल गांधी की कांग्रेस के 60वें अध्यक्ष रूप मे ताजापेशी हुई, तब भाजपा बहुत खुश हुई थी। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और उनके दल के प्रवक्ता सार्वजनिक मंचों से और मीडिया की बहसों में दावा करते नहीं थकते थे कि राहुल गांधी की ताजपोशी उनके लिये वरदान जैसी है। इसकी वजह यह थी कि भले ही इससे पूर्व राहुल गांधी की अध्यक्ष के नाम की घोषणा जरूर नहीं हुई थी, लेकिन पार्टी में चल उन्हीं की रही थी और कांग्रेस लगातार हारती जा रही थी। या यह कहें कि बीजेपी के दिग्गज नेता और पीएम नरेन्द्र मोदी के सामने राहुल गांधी अपनी छवि नहीं बना पर रहे थे। इस पर उनको सोशल मीडिया से लेकर तमाम मंचों तक ट्रोल तक होना पड़ता था, जिस कराण मीडिया के माध्यम से जनता में यह संदेश गया कि वह राजनीति के लिए परिपक्व नहीं हैं। इसकी वजह भी थी, राहुल अक्सर कुछ खास मौकों पर छुट्टी के नाम पर देश से बाहर चले जाया करते थे। इसीलिये कहा जाने लगा कि वह प्रधानमंत्री पद के लायक तो बिल्कुल ही नहीं हैं। कांग्रेस प्रवक्ताओं को राहुल गांधी को लेकर बचाव करना मुश्किल हो जाता था, लेकिन मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ विधानसभाओं के नतीजे के बाद भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ परिवार कांग्रेस के इस अध्यक्ष को लेकर पुनः समीक्षा कर सकता है, ताकि अगले वर्ष होने वाले लोकसभा चुनाव के संभावित नुकसान को रोका जा सके। राहुल गांधी मीडिया से बात करने में कतराते और संसद में बोलने से हिचकिचाते थे।

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कहा जाता है कि इसके बाद राहुल के रणनीतिकारों ने उन्हें सलाह दी कि दिन−प्रतिदिन प्रधानमंत्री पर सीधे आक्रमण कर वह अपनी आक्रामक छवि गढ़ें। इसके बाद राहुल गांधी अपने भाषणों में मोदी शैली का अनुकरण करने लगे। वह अपने मोदी की तरह सरल और सीधी भाषा में जनता से पूछते हैं, भैया, आपके बैंक खाते में 15 लाख रूपये आए? आपको नौकरी मिली? आपकों फसल की कीमत मिली? आपका कर्ज माफ हुआ? वन रैंक−वन पेंशन पर अमल हुआ? फिर खुद ही उसका जवाब देते हुए वह कहते हैं, नहीं, क्योंकि मोदी जी के पास आपके लिए पैसा नहीं है, परंतु अनिल अंबानी, अडानी और 15−20 उद्योगपतियों का कर्ज माफ करने के लिये मोदी जी के पास पैसा है। राहुल ने एक काम और किया वह भी जुमलों में बात करने लगे, बिना यह सोचे समझे कि सच क्या है और झूठ क्या है।

कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री मोदी पर 'सूट बूट की सरकार' के बाद 'चौकीदार बन गया चोर' जैसे जुमले गढ़े तो बुद्धिजीवी वर्ग में इसकी विपरीत प्रतिक्रिया हुई, लेकिन राहुल तोते की तरह बार−बार हर मंच से ऐसी ही बातें दोहराते रहते। इसका परिणायम यह हुआ कि आमजन को भी लगने लगा कि राहुल की बातों में कुछ न कुछ तो दम जरूर होगा, जिसकी परिणति तीन हिन्दी शाषित राज्यों में कांग्रेस की सत्ता में वापसी के रूप में हुई। भाजपा और केन्द्र की मोदी सरकार को झटका लगना स्वाभाविक था। राहुल की बातों ने मोदी के प्रसिद्ध बयान 'न खाऊंगा न खाने दूंगा' पर धब्बा लगाया तो 14 में बीजेपी के दिए नारे 'अच्छे दिन आने वाले हैं' का भी खूब मजाक उड़ने लगा। इतना ही नहीं जिस तरह से प्रधानमंत्री रह चुके कांग्रेस के बागी नेता वीपी सिंह (अब दिवंगत) ने बोफोर्स तोपों में दलाली का हो−हल्ला मचाकर पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की मिस्टर क्लीन की छवि को दागदार किया था, उसी तरह राहुल गांधी ने तथ्यों और दावों के विपरीत राफेल सौदे में सब कुछ ठीकठाक होने के बाद भी राफेल सौदे में धांधली को बड़ा मुद्दा बना दिया। हर सभा में राफेल सौदे में धांधली की बात कह−कहकर राहुल गांधी ने कम से कम शहरी आबादी में तो यह धारणा बना ही दी कि 'दाल में कुछ काला' जरूर है।

खैर, तीन बड़े राज्यों में कांग्रेस की सत्ता में वापसी के बाद तो लगता है राहुल और भी आक्रामक हो जायेंगे। इस बात का अहसास तब हुआ जब पांच राज्यों में चुनाव के बाद लोकसभा की कार्यवाही शुरू हुई तो नोटबंदी और राफेल पर कांग्रेस ने बुरी तरह से न केवल मोदी सरकार को घेरा बल्कि लोकसभा और राज्यसभा की कार्यवाही भी नहीं चलने दी।

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पांच राज्यों के चुनाव नतीजों के बाद कांग्रेस को इस समय सब हरा ही हरा दिख रहा है, लेकिन जानकारों की राय थोड़ा जुदा है। वह कांग्रेस को सलाह दे रहे हैं कि अभी कांग्रेस को ज्यादा उत्साहित नहीं होना चाहिए। भाजपा को हार जरूर मिली है, लेकिन 15 वर्षों की सत्ता विरोधी लहर के बाद भी कम से कम मध्य प्रदेश और राजस्थान में जनता ने बीजेपी को खारिज नहीं किया है। कांग्रेस को इतना बहुमत भी नहीं मिला है कि वह पूरी आजादी से काम कर सकेगी। बीजेपी दोनों जगह मजबूत विपक्ष की भूमिका में रहेगी। सबसे बड़ी समस्या इन राज्यों में कांग्रेस की गुटबाजी पर लगाम लगाना होगा। राहुल की इस मुद्दे पर भी असली परीक्षा होगी।

लब्बोलुआब यह है कि बीजेपी की हार के बाद भी उसमें और कांग्रेस के प्रदर्शन में 19−20 का ही अंतर है। अगर अगले छह महीने में कांग्रेस सरकारों ने जरा-सी गलती की तो बीजेपी इसे भुनाने का मौका नहीं छोड़ेगी। सबसे बड़ी बात यह है कि मध्य प्रदेश और राजस्थान में कांग्रेस के स्थानीय नेतृत्व ने भी काफी मशक्कत की थी और मतदाताओं को उन पर भरोसा था, लेकिन केन्द्र में अभी राहुल या अन्य कोई नेता मोदी के समकक्ष खड़ा नजर नहीं आता है। दूसरी तरफ कांग्रेस को यह भी ध्यान में रखना होगा कि भारतीय मतदाताओं की आदत है कि वह किसी को पूरी तरह से नाराज नहीं करते हैं। अगर उन्होंने तीन राज्यों में कांग्रेस को मौका दिया है तो लोकसभा चुनाव के समय मोदी सरकार के पक्ष में वोटिंग करके अपनी आदात बरकरार रख सकते हैं। वैसे भी इन राज्यों में मोदी को लेकर ज्यादा नाराजगी नहीं दिख रही थी। मोदी की छवि अभी भी लोग बेदाग मानते हैं। मतदाताओं ने बीजेपी को हार के रूप में कड़वी दवा जरूर पिलाई है, हो सकता है इस कड़वी दवा से बीजेपी स्वस्थ्य हो जाए और फिर से उभर कर सामने आए।

-अजय कुमार

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