शिक्षा जगत में बढ़ती मैनेजरों की भूमिका ने शिक्षाविदों की चिंता बढ़ाई

managers in the education world new worry for academics

पिछले पंद्रह सालों में जिस तेजी से अकादमिक क्षेत्र में मैनेजमेंटनुमा लोगों की इंट्री हुई है उसे देखते हुए कॉलेज, विश्वविद्यालय, अकादमिक संस्थानों में मैनेजमेंट बनाम अकादमिक वर्ग के बीच वर्चस्व की अनकही तनातनी शुरू हो गई।

कुछ अकादमिक मैनेजर होते हैं। सभी अकादमिक मैनेजर होते हैं। अकादमिक लोग मैनेजर नहीं होते। मैनेजर अकादमिक नहीं होते। कुछ कह नहीं सकते। बहुवैकल्पिक प्रश्नों को संभव है किसी परीक्षा में पूछा जा सकता है। इनमें से किसी एक पर सही का निशान लगाएं। दरअसल अकादमिक और मैनेजर के रोल और जिम्मेदारियों के बीच एक ऐसा संघर्ष, द्वंद्व चलता है जिसमें हर कोई जीतना चाहता है। अकादमिक लोगों का मानना होता है कि मैनेजर उनकी बात नहीं समझते। मैनेजर अकादमिक कामों की प्रकृति, गंभीरता और ऐकांतिक कर्म की महत्ता स्वीकार नहीं कर पाते आदि। वहीं मैनेजर के अपने तर्क होते हैं। उनका तर्क ही होता है कि माना कि हम आपके विषय और डोमेन की गहरी जानकारी नहीं रखते किन्तु यह ज़रूर जानते हैं कि इंटलैक्चुअल प्रोपर्टी को बाजार में कैसे बेचने लायक बनाना है। आपके ऐकांतिक श्रम को सही और उचित मूल्य और स्थान दिलाने में हम आपकी मदद करते हैं आदि। संभव है काफी हद तक दोनों ही धड़ों के तर्कों में दम हो। लेकिन अकादमिक धड़ों की हमेशा शिकायत मैनेजर वर्ग से रहा है कि ये अकादमिक श्रम को कमतर आंका करते हैं। जैसे और व्यवसाय चला करता है। जैसे और व्यवसाय में टारगेट निर्धारित किया जाता है वैसे अकादमिक में नहीं चल सकता। यहां टाइम लाइन और सुबह नौ से पांच की तरह काम नहीं किया जा सकता। अकादमिक लोगों को सोचने, चिंतन करने की आज़ादी होनी चाहिए। चिंतन में छूट मिले इसको लेकर मैनेजर और अकादमिक के बीच एक अकथ खींचतान की स्थिति महसूस की जाती है। मैनेजर वर्ग के तर्कों को अकादमिक लोग स्वीकार नहीं करते और आकदमिक के तर्क को मैनेजर हमेशा दरकिनार किया करते हैं। कई बार तो ऐसा लगता है कि दोनों में सत्ता और अस्मिता की लड़ाई का भी मसला हो जाता है।

हालांकि अकादमिक और मैनेजर के रिश्ते को ठहर कर समझने और श्रम−प्रकृति को कबूल करने की आवश्यकता है। अकादमिक वर्ग खुले विचार, चिंतन, मनन और विमर्श के पक्षधर होते हैं वहीं मैनेजमेंट इस छूट को टाइम, मनी, मैनपावर, मैनेजमेंट की नज़र से देखने परखने और एक्जीक्यूट करने में विश्वास रखता है। मैनेजमेंट के सिद्धांतकार मानते हैं कि यदि किसी प्रोडक्ट्स को बाजार में सही समय पर, सही मूल्य पर, सही ज़रूरतमद तक नहीं पहुंचाया गया तो उस प्रोडक्ट का कोई मायने नहीं हैं। इसमें टाइम, मैनेजमेंट को बेहद चौकन्नेपन से फॉलो करना पड़ता है तब इंटलैक्चुअल प्रोपर्टी बाजार में बिकती है। इस तथ्य से कोई इंकार नहीं कर सकता है कि आज की तारीख़ में हर कुछ बिकता है। ज़रूरत सिर्फ यह समझने की है कि आप अपनी भावना, संवेदना, प्रोडक्ट्स आदि को कैसे बेचा करते हैं। वरना अकादमिक अपने अकादमिक परिसर में ही शोध, अनुसंधान आदि करके सुख हासिल कर लिया करते हैं। यह वयैक्तिक सुख तो हो सकता है लेकिन यह सभी जानते हैं कि वयैक्तिक सुख की परिधि को तोड़कर समष्टि हित के लिए हर कोई काम किया करता है इसमें अकादमिक वर्ग भी शामिल है। जब हमें किसी शोध, शिक्षण कौशल आदि को जनता तक पहुंचाना है तो इसमें मैनेजमेंट को बीच में आना पड़ता है।

पिछले पंद्रह सालों में जिस तेजी से अकादमिक क्षेत्र में मैनेजमेंटनुमा लोगों की इंट्री हुई है उसे देखते हुए कॉलेज, विश्वविद्यालय, अकादमिक संस्थानों में मैनेजमेंट बनाम अकादमिक वर्ग के बीच वर्चस्व की अनकही तनातनी शुरू हो गई। यह इंटरवेशन अकादमिक क्षेत्र में ही नहीं देखा गया बल्कि पत्रकारिता भी इससे अछूती नहीं रही। यहां भी संपादकीय सत्ता और प्रबंधन, मैनेजर के बीच एक कंफ्लिक्ट जोन बन चुका है। संपादकीय विभाग स्वतंत्र चिंतन, विमर्श का पक्षधर होता है। लेकिन मैनेजमेंट और मार्केट रिसर्च विंग्स अखबार के हर पन्ने और खबर को प्रॉफिट की नज़र से देखता और रिडिजाइन की वकालत करता है। ठीक वैसे ही आकदमिक संस्थानों में जब से मैनेजमेंट किस्म के लोगों का हस्तक्षेप सामने आया है तब से आकदमिक और मैनेजर के बीच खिंचाव भी बढ़ा है।

फ़र्ज कीजिए अकादमिक विंग्स अपने काम को थोड़े लोचपन के साथ किया करते थे। अब उन्हें कहा गया यह समय सीमा है, वह टारगेट ग्रूप है, इतने ही पैसे हैं आदि में आपको समय पर काम खत्म करने हैं। उन्हें मार्केट में कैसे सेल किया जाए इसे ध्यान में रखते हुए अपना इंटलैक्चुअल काम करना है आदि। तब मैनेजमेंट और आकदमिक कर्मी के काम की प्रकृति में खासा अंतर दिखाई देने लगता है। मैनेजमेंट हमेशा कम लागत में कम खर्चे पर, कम लोगों द्वारा काम कराना चाहता है। मैनेजर कर्मी के पक्ष में कम कंपनी हित की ओर ज़्यादा झुका हुआ नज़र आता है। इसमें उसका भी कोई खास दोष नहीं है क्योंकि इन्हीं गुणों की वज़ह से कंपनी ने उसे आपके बीच से उठाकर किसी एक को मैनेजर की पोस्ट ऑफर की है। कंपनी उसी को मैनेजर के लिए माकूल समझती है जो कम लागत में प्रोडक्ट और मैनपावर को मैनेज कर सकता है। जो कर्मी हित से ज़्यादा मैनेजमेंट हित में खड़ा होता है। यही वजह है कि कई बार आपके बीच से किसी साथ को चुनकर जब मैनेजमेंट का हिस्सा बनाया जाता है और वह साथी फिर आपकी कम मैनेजमेंट की ओर से सोचने लगता है तब हमें हैरानी होती है कि यह क्या हमारे ही बीच से गया हमारे कामों को समझने वाला अब ऐसे कैसे बदल सकता है। लेकिन उन्हें यह नहीं मालूम कि अब वह आपके बीच का नहीं बल्कि वह मैनेजमेंट का पार्ट हो चुका है। वह जब भी सोचेगा मैनेजमेंट की नज़र से सोचेगा। कुछ तो अलग कर रहा होगा या करने की तड़प उसमें देखी गई होगी जिस बिना पर उसे आपके बीच से उठाकर मैनेजमेंट का हिस्सा बनाया गया।

   

लीडर, पत्रकार, वकील, मैनेजर या टीचर के गुण कुछ कुछ हैरिडेट्री हुआ करती हैं। माना जाता है कि टीचर, मैनेजर या फिर लीडर कुछ कुछ अपने वंशानुगत गुण लेकर आते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो वे अपने परिवेश, घर−परिवार में बचपन से देख, सुन और ऑब्जर्ब करके सीखा करते हैं। ऐसे व्यक्ति को थोड़ी बहुत ट्रेनिंग देकर और बेहतर बनाया जा सकता है। इसलिए मैनेजर के चुनाव के बाद उन्हें विशेष ट्रेनिंग से गुज़ार कर उन्हें बेहतर मैनेजर बनाया जाता है। ठीक वैसे ही टीचर को भी ट्रेनिंग के मार्फत बेहतर स्किल प्रदान किया जाता है ताकि टीचर नए नए तकनीक और शिक्षण कौशलों के ज़रिए पढ़ा सके। मैनेजमेंट में भी ट्रेनिंग के ज़रिए मैनेजमेंट स्किल को मांझा और खंघाला जा सकता है। 

कॉलेज, विश्वविद्यालय आदि संस्थानों में कई बार प्रोफेसर, वरिष्ठ लेक्चरर को उनकी क्वालिटी और स्किल को देखते हुए मैनेजमेंट उन्हें प्रमोट कर वीसी या प्राचार्य बना देती है जो आगे चल कर संस्थान को लीड किया करते हैं। ऐसे नए लोगों को नए रोल में कैसे काम करना है इसके लिए उन्हें इंडक्शन, फ्रेशर कोर्स के ज़रिए नई भूमिका के लिए तैयार किया जाता है। इस प्रक्रिया में किसी भी व्यक्ति के आंतरिक गुणों को मांझ कर बेहतर बनाया जाता है।

हाल ही में एक एमडी एवं सीइओ की सैलरी देखने का अवसर मिला। उनकी सैलरी तकरीबन 150 सौ करोड़ सालाना थी। ऐसे सीइओ एक नहीं बल्कि हज़ारों में मिलेंगे। हम आम लोग शायद दूसरा जन्म लें तो भी इतना नहीं कमा सकते। आखिर इतनी सैलरी पर किसी को एमडी या सीइओ क्यों रखा जाता है? इसके पीछे क्या तर्कशास्त्र काम करता है। कभी सोचें तो पाएंगे कि ऐसे लोग कंपनी को एक मुकम्मल ऊंचाई तक ले जाते हैं। इनका वास्ता सिर्फ इतना होता है कि कंपनी को कैसे मुनाफा कमवाया जाए। वह रास्ता कौन-सा होगा। किस एप्रोच के ज़रिए कंपनी को प्रोफिट और प्रसिद्धि दिलाई जा सकती है इसकी रणनीति बनाने वालों में शामिल होते हैं। एक सफल सीइओ या एमडी एक बेहतरीन लीडर की क्वालिटी भी रखते हैं जो न केवल कंपनी का नया आयाम देने की क्षमता रखते हैं बल्कि कंपनी और कर्मी को भी लीड करने, मार्गदर्शन प्रदान करने और किसी भी मुश्किल हालात से कैसे बाहर निकला जाए इसकी समझ रखते हैं। शायद यही वज़ह है कि सीइओ या एमडी को मोटी सैलरी दी जाती है।

यदि तुलना करें तो एक अकादमिक पर्सन की सैलरी और मैनेजर, सीइओ की सैलरी में खासा अंतर देखा जा सकता है। इसके पीछे एक वजह यह भी है कि जहां सीइओ, एमडी आदि पद पर बैठा व्यक्ति कंपनी के उभार और गिरावट सभी के लिए जिम्मेदार और जवाबदेह होता है। लेकिन अकादमिक हलकों में ऐसा कम देखा गया है। यदि बच्चों में शिक्षा की गुणवत्ता में गिरावट आई है तो इसके लिए सिर्फ शिकायत और आरोप−प्रत्यारोप के खेल भर खेले जाते हैं। कोई एक व्यक्ति उसकी जवाबदेही नहीं लेता। एक मैनेजर या लीडर अच्छे और खराब दोनों ही स्थितियों के लिए जिम्मेदारी लेता है और लेनी भी चाहिए। साथ ही एक मैनेजर या लीडर संस्थान और अपने कर्मी को हमेशा आगे ले जाने वाला और मार्गदर्शन करने वाला होना चाहिए।

-कौशलेंद्र प्रपन्न

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