सभी धर्मों के बीच सद्भाव बढ़ाने वाले शांतिदूत थे मौलाना वहीदुद्दीन खां

maulana Wahiduddin Khan

मौलाना अक्सर कहा करते थे कि उनके जेहन में वह ख्वाब अभी तक जिंदा है जिसमें उन्होंने महात्मा गांधी को देखा था। इसका उल्लेख करते हुए वह बताते थे कि वह कहीं जा रहे थे तो उन्होंने रास्ते में बापू को बैठे देखा। मौलाना उनके पास जाकर खड़े हो जाते हैं।

कोरोना महामारी के सबब से हर रोज कई मौतें हो रही हैं। इनमें अपने-पराए और रिश्तेदार सब शामिल होते हैं। उनमें कुछ मौतें ऐसी भी होती हैं जिनसे कोई रिश्ता-नाता न होने के बावजूद उनके जाने का सभी को मलाल होता है। ऐसी ही चुनिंदा शख्सियात में मौलाना वहीदुद्दीन खां भी शामिल हैं जिनका 21 अप्रैल की रात 96 वर्ष की उम्र में दिल्ली के एक अस्पताल में इंतेकाल हो गया। मौलाना का इस दुनिया से रुखसत होना केवल एक धर्मगुरु का हमारे बीच से चला जाना नहीं है बल्कि एक शांति दूत का हमसे जुदा हो जाना है।

उनके इंतेकाल के साथ ही मुसलमानों और देश के दूसरे धर्मों के लोगों के बीच सद्भाव स्थापित करने वाली एक बुलंद आवाज खामोश हो गई। साथ ही देश ने रूढ़िवादिता, सामाजिक बुराइयों और कुंठित व्यवस्थाओं पर जबरदस्त चोट करने वाला एक विद्वान खो दिया। 1925 में उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ में पैदा हुए मौलाना वहीदुद्दीन खां ने आरंभिक शिक्षा मदरसे में हासिल की। उसके बाद आधुनिक शिक्षा की तरफ रुख किया और अपनी प्रतिभा के दम पर जल्द ही अंग्रेजी के साथ-साथ दीगर विषयों में भी पारंगत हो गए। इस्लाम के साथ-साथ दीगर विषयों पर उनका गूढ़ ज्ञान ही उन्हें हिंदुस्तान ही नहीं बल्कि पूरे भारतीय उपमहाद्वीप के दूसरे उलेमा और इस्लामी विद्वानों से अलग स्थान का हकदार बनाता है।

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इसी साल जनवरी में देश के दूसरे सबसे बड़े नागरिक सम्मान पद्मविभूषण से नवाजे गए मौलाना वहीदुद्दीन खां अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त एक लेखक, धर्मगुरु, विचारक, चिंतक और दार्शनिक थे। इस्लाम के पारंपरिक ज्ञान में महारत रखने के साथ-साथ उनकी आधुनिक साइंस, इतिहास और सामाजिक विज्ञान जैसे विषयों पर भी खासी पकड़ थी। वह समसामयिक विषयों पर बारीकबीनी से निगाह रखते थे। यही कारण है कि इस्लामी उसूलों को इन आधुनिक विषयों की रौशनी में भी परखने और उनकी समकालीन परिदृश्य में व्याख्या करने के लिए वह जाने जाते रहे।

मौलाना अक्सर कहा करते थे कि उनके जेहन में वह ख्वाब अभी तक जिंदा है जिसमें उन्होंने महात्मा गांधी को देखा था। इसका उल्लेख करते हुए वह बताते थे कि वह कहीं जा रहे थे तो उन्होंने रास्ते में बापू को बैठे देखा। मौलाना उनके पास जाकर खड़े हो जाते हैं। बापू ने चुपचाप अपनी जेब से दो कलम निकाले और उन्हें दिए। मौलाना उनका इशारा समझ गए कि मुझे कलम देकर बापू यह संदेश देना चाहते हैं कि मैं जो काम लिखने का कर रहा हूं, उसे जारी रखूं। चूंकि यह संदेश अहिंसा के पुजारी गांधी का था, इसलिए उन्होंने इस्लाम के पैगाम-ए-अमन को अपने जीवन की पहली तरजीह बना लिया और उसे जीवन भर अपने कलम के जोर से लोगों तक पहुंचाते रहे।

अपने जीवन के इसी ध्येय के तहत पहले उन्होंने 1976 में नई दिल्ली में इस्लामिक सेंटर स्थापित किया। फिर 1996 में इस्लामी किताबों के प्रकाशन के लिए गुडवर्ड बुक्स की स्थापना की। उसके बाद 2001 में दिल्ली की बस्ती निजामुद्दीन में सेंटर फॉर पीस एण्ड स्प्रिचुअलिटी (सीपीएस) की स्थापना की। इन सबके पीछे लक्ष्य एक ही रहा। इस्लामी साहित्य के जरिए मजहब के असल चेहरे को सामने लाया जाए। उन्होंने इस्लामी शिक्षा पर बेशुमार किताबें लिखीं। इस्लाम की तालीमात का विज्ञान और दूसरे विषयों के साथ तुलनात्मक अध्यन प्रस्तुत किया। साथ ही कुरान का कई भाषाओं में आसान अनुवाद किया और कराया। उनके जरिए अनुवाद किए गए कुरान की कापियों की भारत के साथ-साथ पूरे यूरोप और दुनिया के दूसरे देशों में काफी मांग है।

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साथ ही जेहाद और आतंकवाद के नाम पर जो इस्लाम की छवि बिगाड़ी गई या फिर अज्ञानता में लोगों ने इस पर हमले किए, उसका कुरान और हदीस की रौशनी में उन्होंने जवाब दिया। उनका कहना था कि चाहे कश्मीर मसला हो या फलस्तीन का, हर विवाद का हल केवल और केवल शांतिपूर्ण बातचीत है। बस आप दिल से मान लें कि हमें हिंसा नहीं करनी है तो मामले खुद-ब-खुद हल हो जाएं।

इसके साथ ही सहिष्णुता, सह-अस्तित्व और अंतर-धार्मिक मेलजोल के जबरदस्त पक्षधर मौलाना अपनी बेबाक राय रखने के लिए भी जाने जाते थे। बाबरी-मस्जिद रामजन्मभूमि विवाद, तीन तलाक, गौहत्या जैसे विषयों पर उन्होंने न केवल देश के मुसलमानों की रहनुमाई की बल्कि विवाद खत्म करने वाला हल पेश किया। बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद उन्होंने इससे मुसलमानों को अपना दावा छोड़ने तक की सलाह दे डाली थी। फिर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद उन्होंने कहा कि पिछली बातों को भूल कर मुसलमान आगे बढ़ें। इसी तरह उन्होंने एक साथ तीन तलाक को और गौहत्या का घोर विरोध किया।

उनके इन्हीं बेबाक विचारों की वजह से उन पर भाजपा और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के करीबी होने का आरोप लगा। इसके बावजूद वह कभी अपनी विचारों से डिगे नहीं और अपनी बात पर ता-जिंदगी कायम रहे। उन्होंने इसका पूरी दृढ़ता से जवाब भी दिया। उन्होंने कहा कि मुझे तो राजीव गांधी सद्भावना एवार्ड भी दिया गया। तब किसी ने कांग्रेस का करीबी नहीं कहा। उनका मानना था कि जो किसी भी धर्म की स्पिरिट यानी रूह है, वह तो समान ही है- सब की भलाई, अच्छा व्यवहार, लोगों की मदद करना, इंसानियत, सामाजिक कार्य और खुदा से ताल्लुक। यह सब जगह एक ही है। दीन-धर्म के रूप अलग-अलग हैं लेकिन रूह सब की एक ही है। खुदा को लोग जिस रूप में भी मान रहे हैं, उससे कनेक्शन होना चाहिए। सूफिज्म में भी यही है। इस्लाम और कुरान की इन्हीं तालीमात का मैं प्रचार-प्रसार करता हूं।

देश के मुसलमानों से उनका कहना था कि राजनीति में चीजों को हिंदू-मुस्लिम के चश्मे से न देखें। मुस्लिम-गैर मुस्लिम के नजरिए से परहेज करें। सिर्फ राष्ट्रीय दृष्टिकोण रखें और राष्ट्र के विकास में अपना योगदान दें। इससे उनके खिलाफ जो बातें होंगी, वह अफवाह की तरह खत्म हो जाएंगी। बहरहाल तन-मन की शांति और देश-दुनिया में अमन-चैन की धुर वकालत करने वाला यह शांति दूत भले ही आज हमारे दरमियान से चला गया है लेकिन उनके विचार और लेखने आइंदा भी हमारा मार्गदर्शन करते रहेंगे।

-मोहम्मद शहजाद

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