हिमाचल प्रदेश में नाहन के मुहर्रम की बात ही कुछ और है

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संतोष उत्सुक । Sep 20 2018 3:11PM

कभी हिमाचल का बंगलौर कहे जाने वाले शहर नाहन के, पानी से लबालब तालाब मेहमानों व पर्यटकों के लिए आजकल आकर्षण का केंद्र बने हुए हैं और यहां मनाए जाने वाले खास मुहर्रम की तैयारियां जारी हैं। मुहर्रम में निकलने वाले ताजिए बनाए सजाए जा रहे हैं।

कभी हिमाचल का बंगलौर कहे जाने वाले शहर नाहन के, पानी से लबालब तालाब मेहमानों व पर्यटकों के लिए आजकल आकर्षण का केंद्र बने हुए हैं और यहां मनाए जाने वाले खास मुहर्रम की तैयारियां जारी हैं।  मुहर्रम में निकलने वाले ताजिए बनाए सजाए जा रहे हैं। यह शहर हमेशा से अपने सर्वधर्म सद्भाव के लिए जाना जाता है। पुराने बुज़ुर्ग बताते हैं कि जब मुल्क तक़सीम हो रहा था तब भी इस शहर में कोई जातीय दंगा नहीं हुआ। सबने मिलजुलकर साम्प्रदायिक सौहार्द बनाए रखा। निःसंदेह इसका ज़्यादा श्रेय यहां के तत्कालीन शासकों को जाता है जिन्होंने शहर की बसाहट के दौरान सभी धर्म व कामगार लोगों को यहां जगह दी। उन्होंने हिंदु मुस्लिम सिख ईसाइयों व अन्यों के दिलों में अद्भुत आपसी सम्मान व सद्भाव भरा जो आज भी कायम है। नाहन वासी आज भी एक दूसरे के त्योहारों व अन्य आयोजनों में बाखुशी शामिल होते हैं।

समाजसेवी, रोटेरियन, नसीम मोहम्मद अहमद दीदान जो कि ऑल हिमाचल मुस्लिम वेलफेयर सोसाइटी के अध्यक्ष हैं, बताते हैं कि शिया व सुन्नी कई देशों के अनेक स्थानों पर अपने वैचारिक मतभेदों के कारण झगड़ों व खून खराबे में उलझे देखे गए हैं। इतिहास के कई पन्ने इसी कारण लाल हैं। मुहर्रम मनाने पर भी इनके मतभेद कायम हैं। पूरी दुनिया में शिया मुस्लिम ही मुहर्रम को पूरी शिद्दत से मनाते हैं। नाहन में वर्तमान में एक भी शिया परिवार नहीं है फिर भी सैंकड़ों साल पुरानी रिवायत को निभाते हुए, हर बरस बड़े खुलूस के साथ मुहर्रम आयोजित होता है। दिलचस्प यह है कि यह आयोजन यहां के सुन्नी मुस्लिमों द्वारा अपने शियाओं के लिए मनाया जाता है। साम्प्रदायिक सौहार्द की लाजवाब मिसाल बन गया है नाहन का मुहर्रम।

महाराजा शमशेर प्रकाश के ज़माने से आज तक मुहर्रम पारम्परिक श्रद्धा से मनाया जा रहा है। यहाँ कोई इमामबाड़ा और अश्रुखाना नहीं है तभी मोहल्ले के खुले स्थान से इसकी शुरूआत होती है। पहला नया चाँद दिखने के साथ ही बाद ढोल बजना शुरू हो जाते हैं और नाहन की चार मुस्लिम आबादियों गुन्नुघाट, हरिपुर, कुम्हार गली व कच्चा टैंक में हाज़िरी शुरू हो जाती है। रस्म मेहंदी से शुरुआत होती है, सब इक्कठे होकर अल्लाह से गुज़ारिश करते हैं कि उनकी दुआएं कबूल हों। मेहँदी, रोटी का चूरमा, चुन्नीयां, सूखे मेवे, अन्य वस्तुएं व नकदी भी मुहर्रम की तैयारियों के लिए त्वारुख के रूप में भेंट की जाती है। छोटे आकार के सुंदर ताजियों के पास चिराग जलाए जाते हैं, दो अलम (लंबे बांस का झंडा) जिन पर तीर कमान, तलवार ढाल, चाँद सितारे व ‘अली’ और ‘हुसैन’ के हाथों की सांकेतिक अनुकृतियाँ होती हैं, रात को निकाली मेहंदी में साथ चलते हैं। मेहंदी चारों मोहल्लों में कई बार निकाली जाती है। अड़ोस पड़ोस के रहने वाले मेहंदी निकालने वालों को चाय, शर्बत इत्यादि पेश करते हैं। चाँद की नवीं रात को सजे धजे, सेहरा बंधे बड़े ताजिए अलम के साथ अपने अपने क्षेत्र में निकाले जाते हैं। शहर सोया होता है और मर्सिया (शोक कविता) पढ़ने वालों की तन्मयता कुछ देर के लिए दुख का एक गमगीन माहौल रच देती है, रात में डूबे पक्का तालाब के पास वटवृक्ष के पड़ोस में बज रहे ढोल की धमक में लगता है इतिहास जाग उठा है। यह जगह अश्रुखाना में तब्दील हो जाती है। कितने पुराने लोगों की याद आ जाती है जो कमाल, अदब, सलीके और सही तरीके से मर्सिया पढ़ते थे कि दिल रो उठता था।

   

अगले दिन छुट्टी होती है मगर बच्चों के लिए खास तौर पर इन मोहल्लों में रहने वाले बच्चों से लेकर बुज़ुर्गों के लिए खास दिन होता है। चारों जगह ताजिया रखे होते हैं जिन्हें दोपहर बाद उठाया जाएगा। ताजिया बनाना और सजाना वास्तव में एक कलात्मक कार्य है। ताजिए के अगले हिस्से में सेहरा बनाया जाता है जिसमें फूल, सूखा नारियल, छुआरे, किशमिश पिरोई जाती है। ताजिए को रंग बिरंगे चमकदार कपड़ों व कागज से सजाया जाता है। ताजिया का ऊपरी हिस्सा गुंबद नुमा आकर्षक होता है।

ढोलचियों ने ढोल बजाना शुरू कर दिया है। दोपहर के बाद का वक्त है, मर्सिया पढ़ने वाले तैयार हो रहे हैं। गुब्बारे व बच्चों को लुभाने वाली चीज़ें बेचने वाले अपनी जगह बना रहे हैं। बहुत से लोगों को पता नहीं  है कि मुहर्रम एक उत्सव नहीं बलिक शोक दिवस है। हमें आज ‘अली’ और ‘हुसैन’ की शहादत को याद करना है। सबसे पहला ताजिया गुननूघाट से उठता है और धीरे धीरे कंधों पर चलकर हरिपुर मोहल्ला पहुँचता है। यहाँ से दूसरे ताजिया को लेकर पक्का तालाब के पास ठहरता है। कुछ देर यहाँ लखदाता पीर की मज़ार के पास रुककर आगे चलकर चारपाइयों पर आराम दिलाया जाता है व जुलूस में शामिल लोगों के लिए चाय नाश्ता का इंतज़ाम होता है। उधर कुम्हार गली का ताजिया मुख्य सड़क की तरफ चल पड़ता है। कुछ देर के बाद तीन ताजिया हो जाते हैं। यहाँ से चलकर जुलूस कच्चा टैंक मस्जिद के पास पहुँचता है जहाँ चारों ताजिया इक्कठे हो जाते हैं। कई बार यहाँ श्रद्धालु गरम शोलों पर चलने व शरीर को लोहे की जंजीरों से पीट कर लहूलुहान कर देते हैं। सैंकड़ों लोग स्तब्ध होकर ज़ुल्म का अक्स अपनी आँखों के सामने देखते हैं। मस्जिद के आँगन में ही ताजियों को दफनाने की रस्म की जाती है। मुहर्रम सम्पन्न हो जाता है। नाहन का मुहर्रम विशिष्ट इसलिए है क्योंकि पूरी दुनिया में सुन्नी मुस्लिमों द्वारा संभवतः सिर्फ नाहन में ही मुहर्रम मनाया जाता है।

-संतोष उत्सुक

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