सबका जोर विज्ञान और गणित पर है, भाषायी परीक्षा में तो बस पास हो जाना चाहते हैं

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विशेषतौर पर हमारा युवा विज्ञान, गणित आदि में तो बेहतर प्रदर्शन करता है लेकिन जब भाषा की बारी आती है तब उसका सरोकार महज इतना ही होता है कि फलां भाषा के पेपर में पास मार्क्स ही तो अर्जित करने हैं।

जनमते ही बच्चों को मां की भाषा, नर्स की भाषा, डॉक्टर की भाषा, दाई की भाषा, नाते−रिश्तेदारों की भाषा कानों में पड़ती है। क्या इसे बहुभाषायी समाज कह सकते हैं ? सीधे सीधे बहुभाषा से जुड़ती तारें पहली नजर में दिखाई न दे पाएं किन्तु है तो बहुभाषायी समाज का उदाहरण ही। मां अपनी भाषा में पुचकारती है। दादी नानी अपनी भाषा बोली में। डॉक्टर अपनी भाषा में जच्चा बच्चे से बात करता है। यह प्रकारांतर से बहुभाषा का ही उदाहरण है। जब बच्चा घर में आता है तब उसके आस−पास बोलने वाले अपनी अपनी भाषा में बातें किया करते हैं। अपने परिवेश की ध्वनियों को बच्चा सुन और ग्रहण कर रहा होता है। वैज्ञानिक स्थापनाएं भी सत्यापित कर चुकी हैं कि बच्चा गर्भ में रहते हुए अपने परिवेश की ध्वनियों को संग्रहित करता रहता है। वही ध्वनियां उसे बड़े होने पर मदद करती हैं भाषा सीखने में। इसे स्वीकारने में किसी को भी गुरेज़ नहीं होगी कि बच्चा जो भाषा गर्भ में सुनता है बड़े होकर वही ध्वनियां उस भाषायी कौशल में दक्षता प्रदान करती हैं।

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जब बच्चा स्कूल जाने योग्य आयु को होता है तब वह स्कूल में एक दूसरी या तीसरी भाषा सुनता, बोलता और लिखता है। बच्चा अब द्वंद्व व संघर्ष गुज़रने लगता है। जो भाषा उसकी घर की थी उसमें न किताबें होती हैं, न शिक्षक उसकी भाषा में पढ़ाता है, न बच्चे उस भाषा को बरत रहे होते हैं। जो कक्षा में आता है वह दूसरी या तीसरी भाषा में निर्देश देता है। कई स्कूलों में तो मातृभाषा व स्थानीय भाषा के इस्तमाल पर दंडि़त भी किया जाता है। ऐसे में भाषायी दंड़ व द्वंद्व गहरे होने लगते हैं। इस स्तर पर बच्चों के बीच भाषा चुनाव की बड़ी चिंता पैदा होती है। इस चिंता की गहराई कॉलेज, विश्वविद्यालय तक और चौड़ी हो जाती है। इसका एक सीधा उदाहरण है, विश्वविद्यालय स्तर पर राजनीति शास्त्र, समाज−शास्त्र, विज्ञान, वाणिज्य आदि की पढ़ाई न तो मातृभाषा/स्थानीय भाषा में होती है और राज्य स्तरीय भाषा में बल्कि यहां अंग्रेजी में सीखने−सिखाने की प्रक्रिया चल रही होती है। ऐसे में बच्चे की मातृभाषा/स्थानीय भाषा साथ छोड़ देती है और बच्चा अंग्रेजी से लड़ने−जूझने के लिए तैयारी करता है। बच्चे की भाषायी दक्षता उसकी मातृभाषा/स्थानीय भाषा में थी किन्तु जब वह तीसरी भाषा के मार्फत विषय का अध्ययन करता है तब उसे तीसरी भाषा की तमीज़ को समझने और उस भाषा की प्रकृति को समझते बूझते एक बड़ा हिस्सा निकल जाता है।

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घर वाली और बाहर वाली भाषा के मध्य झूलता हमारा युवावर्ग अंततः भाषायी अंतरविरोधों, भाषायी अलगाववाद में अपनी निजी पेशेवर क्षमता खोता चला जाता है। विशेषतौर पर हमारा युवा विज्ञान, गणित आदि में तो बेहतर प्रदर्शन करता है लेकिन जब भाषा की बारी आती है तब उसका सरोकार महज इतना ही होता है कि फलां भाषा के पेपर में पास मार्क्स ही तो अर्जित करने हैं। वह बच्चा पास अंकीय द्योढ़ी को पार कर प्रोफेशनल क्षेत्र में उतर जाता है। जब हमारा युवा कार्यक्षेत्र में आता है वहां उसे बहुभाषी होना एक अनिवार्य अहर्ता पूरी करनी पड़ती है। यहां पर हमारा युवा एक क्षेत्र, राज्य विशेष तक बंध कर रह जाता है। इसे ऐसे भी समझ सकते हैं कि एक दक्षिण भारतीय युवा अपने विषय और पेशेवर क्षेत्र में दक्ष है किन्तु यदि उसे दक्षिण भारतीय भाषा के इतर अन्य भारतीय भाषाएं नहीं आतीं तो ऐसे में वह युवा एक राज्य, जिला, गांव की चौहद्दी नहीं पार कर पाता। हालांकि यदि युवा श्रम और अभ्यास करे तो दूसरी अन्य राज्यीय भाषाएं सीखकर अपनी रोजगार के द्वार को व्यापक स्तर पर खोल सकता है। इसमें क्या दक्षिण भारतीय और क्या उत्तर भारतीय बल्कि एक देश से देशांतर तक अपने पेशेवर फलक को व्यापक बनाना है तो हमें बहुभाषी होना ही होगा।

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तकरीबन बत्तीस-तैंतीस वर्ष बाद राष्ट्रीय शिक्षा नीति को पुनरीक्षित करने और नवा करने का प्रयास किया गया। इसकी शुरुआत 2015 में हो चुकी थी। अंतिम प्रारूप आने में तकरीबन चार साल लग गए। इसके पीछे कई वज़हें हो सकती हैं। उसमें राजनीतिक इच्छा शक्ति, योजना−रणनीति का चुस्त न होना आदि। देर आए दुरुस्त आए पर आए तो। मई में राष्ट्रीय शिक्षा नीति का प्रारूप जनता के बीच है। इस प्रारूप में बड़ी ही संजीदगी और शिद्दत से भाषा−बहुभाषा और भाषायी शक्तियों की कैसे स्कूली कक्षाओं तक पहुंच बनाई जाए आदि मसलों पर विमर्श किया गया है। दूसरे और तीसरे अध्याय को प्रमुखता से रेखांकित कर सकते हैं। इनमें अध्यायों में खासकर बाल्यावस्था पूर्व देखभाल और शिक्षा पर नीतिपरक बदलावों और स्थापनाओं को रखा गया है। अंग्रेजी में इसे अर्ली चाईल्डवुड केयर एंड एजूकेशन के नाम से जानते हैं। इसे पूर्व में आरटीई एक्ट में शामिल नहीं किया है। इसकी वजह से आयु वर्ग 3 से 6 वर्ष के लाखों बच्चे स्कूली शिक्षा और देखभाल के अधिकार से बाहर हैं। इस प्रारूप में प्रस्तावित है कि ईसीसीई को आरटीई एक्ट में संशोधित कर जोड़ा जाए।

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बाल्यावस्था में जब बच्चा अपने परिवेश से गहरे जुड़ता है इसमें स्कूल एक प्रमुख अंग है, वहां मातृभाषा/स्थानीय भाषा को जिम्मदारी और जवाबदेही के साथ स्वीकारने की वकालत की गई है। बच्चों को ग्रेड एक बलिक इससे पूर्व से ही मातृभाषा/स्थानीय भाषा में शिक्षा दी जाए, पर खासा जोर रहता है। पांचवीं तक आते आते बच्चे में संख्या और वर्ण/ध्वनियों आदि की पहचान हो जाए साथ ही इन भाषाओं में बच्चे बोलने, पढ़ने और स्वयं को अभिव्यक्त करने में दक्ष हो सकें, इसके लिए प्रमुखतः नीति में कई सारी गतिविधियां और रास्ते बताए गए हैं। जब नीति में भाषा−मातृभाषा−स्थानीय भाषा के बाबत सुझाव दिए गए हैं तब वहीं पर इसे बताते नहीं भूला गया है कि कैसे इसे अमल में लाया जाएगा। मसलन कक्षा एक-दो में बच्चों को मातृभाषा में बोलने, सुनने और पढ़ने की दक्षता के लिए बहुतायत मात्रा में अवसर प्रदान किए जाएंगे ताकि बच्चे में बोलने की कला और बोल कर अपने ऑब्जर्वेशन को अभिव्यक्त कर सकने की दक्षता विकसित की जा सके। बच्चों को खासकर जो चौथी व पांचवीं में हैं उन्हें लिखने के लिए अतिरिक्त एक घंटा दिया जाना चाहिए। वहीं छोटे बच्चों को भी अपनी मातृभाषा/स्थानीय भाषा में बोलने बतियाने का अवसर मिले। उनकी भाषा−बोली में लिखने वाले कवि, कथाकारों, कलाकारों से मिलने और संवाद करने का अवसर स्कूल प्रदान करेगा। स्कूल में साल भर गणित, भाषा मेला का आयोजन किया जाएगा। इस गतिविधि का मकसद स्पष्ट है कि बच्चों को अपनी भाषा व अन्य भाषा के साहित्यकारों से मिलने और संवाद करने का अवसर मिल सके। इससे अपनी भाषा से जुड़ने और लगाव पैदा हो सके यही उद्देश्य है।

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भाषा के शिक्षकों के लिए यह नीति एक ऐसा अवसर प्रदान करने का दावा करती है जिसमें बताया गया है कि आने वाले दिनों, वर्षों में भाषायी शिक्षकों के लिए नौकरियां हजारों और लाखों में सृजित होंगी। उदाहरण के तौर पर यदि एक शिक्षक अपनी मातृभाषा के साथ एक दूसरी भारतीय भाषा सीखता है तो उसे अपने राज्य में तो नौकरी की संभावनाएं हैं ही साथ दूसरे राज्य में भी शिक्षक के लिए अवसरों के द्वार खुलते हैं। इस प्रकार से भाषा शिक्षकों को तैयार करने, प्रशिक्षण प्रदान करने की जिम्मेदारी, यह नीति उच्च शिक्षा संस्थानों में भाषा−संकायों को देती है। इन संस्थानों में भाषा−शिक्षकों का प्रशिक्षण होगा और प्रशिक्षण के बाद ये देश के विभिन्न स्कूलों में पदस्थापित हो किए जाएंगे। खा़सकर अध्याय 22 में भारतीय भाषाओं के अध्ययन−अध्यापन को ध्यान में रखा गया है जिसमें कहा गया है कि प्राकृत, पालि, संस्कृत आदि भाषाओं को संरक्षित करने और सुरक्षित करने के लिए विशेष संकायों की स्थापना की जाएगी। इतनी ही बल्कि भारतीय भाषाओं को रोजगारोन्मुख बनाने के लिए भी वकालत की गई है।

-कौशलेन्द्र प्रपन्न

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