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सच पूछा जाए तो देश-दुनिया को खबरों की खिड़की से झांक कर देखने की शुरूआत 80 के दशक में दूरदर्शन के जमाने से हुआ था। महज 20 मिनट के समाचार बुलेटिन में दुनिया समेट दी जाती थी।

सच पूछा जाए तो देश-दुनिया को खबरों की खिड़की से झांक कर देखने की शुरूआत 80 के दशक में दूरदर्शन के जमाने से हुआ था। महज 20 मिनट के समाचार बुलेटिन में दुनिया समेट दी जाती थी। अंतर राष्ट्रीय खबरों में ईरान-इराक का जिक्र केवल युद्ध और बमबारी के संदर्भ में होता था। जबकि सोमालिया और यूथोपिया जैसे देशों का उल्लेख गृहयुद्ध, बदहाली और भुखमरी के लिए। समय के साथ 24 घंटों के चैनल आ गए, लेकिन अपने ही देश-समाज के सोमालिया-यूथोपिया यथावत कायम हैं। कम से कम नजरे इनायत या सूचनाओं के मामले में। क्योंकि इस प्रचार तंत्र पर कुछ लोगों का ही कब्जा है। इनकी दुनिया बाबाओं से लेकर बॉलीवुड और क्रिकेट स्टार के बीच सिमटी है। इनसे बचे तो बाबा राम रहीम, बाबा दीक्षित, हजारों किलोमीटर दूर बसा बगदादी और कोरिया का कथित तानाशाह किम जोंग उन जैसे कथित सनकी विकल्प के तौर पर उभरते हैं।

ऐसा शायद ही कोई दिन बीतता हो जब समाचार माध्यमों में इन पर लंबी-चौड़ी खबरें न परोसी जाती हों। आश्चर्य़ होता है कि सैंकड़ों-हजारों किलोमीटर दूर बसे देशों या शख्सियतों की खबरें चैनलों के नीति-नियंताओं को दर्शकों के लिए इतनी जरूरी लगती हैं तो अपने ही देश की उन सूचनाओं की ओर उनका ध्यान क्यों नहीं जाता जो अत्यंत ही महत्वपूर्ण हैं। अभी कुछ दिन पहले मेरे गृह राज्य पश्चिम बंगाल में चालक के मोबाइल पर बातें करने की जानलेवा लापरवाही के चलते सरकारी बस पुल की रेलिंग तोड़ कर नदी में जा गिरी। जिसके चलते कड़ाके की ठंड में लगभग 50 यात्रियों की जल समाधि हो गई। राहत व बचाव अभियान चलाने में भी काफी कठिनाई उत्पन्न हुई, जिससे नाराज भीड़ को संभालना पुलिस के लिए मुश्किल हो गया। इस दौरान पुलिस बनाम पब्लिक के बीच हिंसक संघर्ष और लाठी चार्ज तक की घटनाएं हुई। मैं इस समाचार को कथित राष्ट्रीय चैनलों पर देखने के लिए बेचैन था। लगा अपडेट न सही लेकिन झलकियां तो नजर आए। लेकिन उस समय हर चैनल पर कुछ बुजुर्ग क्रिकेटर बैठ कर कहीं दूर चल रहे मैच पर अपना एक्सपर्ट कमेंट पेश कर रहे थे।

लंबे समय की उहापोह और प्रतीक्षा के बाद आखिरकार मुझे इससे जुड़ी खबरों के लिए भाषाई चैनलों पर ही निर्भर होना पड़ा। देर रात कुछ राष्ट्रीय चैनलों पर इस समाचार की हल्की झलक देखने को मिली। इस घटना के बाद मेरे प्रदेश में एक और बड़ा वाकया हुआ। जो हर मायने में सनसनीखेज था। किसी मेगासीरियल के बेहद रोमांचक एपीसोड्स की तरह। दरअसल यह कहानी शुरू हुई एक दबंग महिला पुलिस अधिकारी से। जो देखते ही देखते राज्य सत्ता के सबसे करीब पहुंच गईं। वो आश्चर्यजनक तरीके से लगातार छह साल तक एक ही जिले की पुलिस प्रमुख पद पर कार्यरत रहीं। यही नहीं नियमों के तहत अपने चहेते पुलिस अधिकारियों को भी उन्होंने सालों तक एक ही पद पर आसीन किए रखा। मुख्यमंत्री से निकटता के चलते वे अपने क्षेत्र की दूसरी मुख्यमंत्री कही जाने लगीं। उनकी बढ़ती ताकत का आलम यह कि शासक दल के कद्दावर नेता भी उनसे खौफ खाने लगे। हालांकि एक महिला आइपीएस अधिकारी के उत्थान की दिलचस्प कहानी यहीं खत्म नहीं हो जाती। किसी दिलचस्प धारावाहिक की तरह उनसे जुड़े किस्सों-कहानियों में लगातार रोमांचक मोड़ आता रहा। आखिरकार अर्श से फर्श पर आने की तर्ज पर अचानक कुछ ऐसा हुआ कि बेहद ताकतवर बन चुकी वह महिला हाल में अचानक सत्ता की आंख की किरकरी बन गई। कम महत्व के पद पर तबादले से नाराज उक्त महिला पुलिस अधिकारी ने नौकरी से इस्तीफा दे दिया। इसके बाद उठे विवादों के बवंडर ने परिस्थिति बिल्कुल विपरीत कर दी।

सीआइडी की जांच में महिला के करीबी रहे दो पुलिस अधिकारी गिरफ्तार हुए। महिला अधिकारी समेत गिरफ्तार पुलिस अधिकारियों पर नोटबंदी के बाद भारी मात्रा में रद्द नोटों के एवज में प्रचुर परिमाण में सोना खरीदने का आरोप लगा। सीआइडी ने भारी मात्रा में सोने की बरामदगी के दावे भी किए। अब धड़ाधड़ दर्ज हो रही शिकायतों की मानें तो सोना खरीदते समय विक्रेताओं से वादा किया गया था कि आगे उन्हें सोने की  दोगुनी कीमत दी जाएगी। लेकिन बाद में खरीदार पुलिस अधिकारी मुकर गए। यही नहीं पुलिस अधिकारियों पर जबरन अवैध वसूली समेत तमाम आरोप भी लगाए जाने लगे। कुछ पुलिस अधिकारी गिरफ्तार हो चुके तो कुछ पर गिरफ्तारी की तलवार लगातार लटकी हुई है। वहीं विवादों में फंसी और फिलहाल कथित तौर पर फरार चल रही उस अधिकारी ने अपने बयान में सफाई पेश की है कि राज्य सरकार रंजिश के तहत उसके खिलाफ अभियान चला रही है। महिला अधिकारी ने यहां तक कहा कि अपने कार्यकाल के दौरान उन्होंने अंतर राष्ट्रीय पशु तस्करी पर पूरी तरह से रोक लगा दी थी। इसी का बदला उनसे अब लिया जा रहा है। वह महिला तो शासक दल के नेताओं के कथित कारनामों के खुलासे तक की बात कह रही है। लेकिन राष्ट्रीय चैनल इस दिलचस्प समाचार के प्रति पूरी तरह से उदासीन बने रहे। कहीं इससे जुड़ी समाचारों की हल्की सी झलक भी देखने को नहीं मिली। जबकि यही घटना यदि राजधानी या उसके आस-पास हुई होती तो चैनलों पर महीनों तक इस घटना का पोस्टमार्टम चलता रहता। बाल की खाल निकाले जाते। लेकिन क्या करें अपने देश के न्यूज वर्ल्ड में भी कुछ सोमालिया और यूथोपिया हैं। 

-तारकेश कुमार ओझा 

(लेखक पश्चिम बंगाल के खड़गपुर में रहते हैं और वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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