वोट बैंक के लिए दलितों को गुमराह कर रहे हैं राजनीतिक दल

Political parties are misleading Dalits for Vote Bank

देश के सभी राजनीतिक दल समस्या के मूल में जाकर उसके ईमानदारी से समाधान करने के रास्ते तलाशने की बजाए वोटों की खातिर उसे और विकृत करने में सभी दल खूब जोर आजमाइश करते हैं।

राजनीतिक दल अपने स्वार्थों के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। सत्ता प्राप्ति के लिए बेशक समाज और देश बंट जाए, इससे भी उन्हें गुरेज नहीं है। समस्या के मूल में जाकर उसके ईमानदारी से समाधान करने के रास्ते तलाशने की बजाए वोटों की खातिर उसे और विकृत करने में सभी दल खूब जोर आजमाइश करते हैं। खासतौर पर जो दल सत्ता में होता है, उसे बाकी दल संवेदनशील मुद्दों पर उकसा कर घेरने में कसर बाकी नहीं रखते। इससे देश और समाज को कितना अहित होगा। देश की अंतरराष्ट्रीय छवि को कितना आघात लगेगा, इसकी किसी को चिन्ता नहीं है। हर दल को लगता है कि यदि जलती आग में आहूति नहीं दी तो वोट बैंक उनके हाथ से निकल जाएगा। यदि ऐसा नहीं होता तो एससी−एसटी एक्ट के मुद्दे को लेकर देश अलगाव की आग की लपटों में नहीं घिरा होता। इसमें करीब एक दर्जन लोगों की मौत हो गई और हजारों करोड़ की निजी और सरकारी सम्पत्ति स्वाहा हो गई। विकास के पहिए थम गए। मरने वालों में भी ज्यादातर अनुसूचित जाति−जनजाति के ही लोग हैं। पहले आग में घी डालने के बाद अब राजनीतिक दल इस हालात के लिए एक−दूसरे पर दोषारोपण कर अपने कंधों से बोझ उतारने की कवायद में जुटे हुए हैं। समाज और देश को बांटने की यह घिनौनी कोशिश पहली बार नहीं हुई है।

मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू कराने के दौरान भी नेताओं ने देश की रगों में जातिवाद का जहर घोलने में कसर बाकी नहीं रखी। इसके बाद से ही देश के कई राज्यों में अलग−अलग जातियों के आरक्षण मांगने के मुद्दे ने जोर पकड़ा। जो दल सत्ता में रहता है वह आरक्षण के मुद्दों से बचने की कोशिश करता है, पर विपक्षी सत्ता में वापसी के लिए आरक्षण की आग से खेलने में कसर बाकी नहीं रखते। ऐसे संवेदनशील मुद्दों को उकसाने का काम भी राजनीतिक दलों ने ही किया है। विगत महीनों में हरियाणा, मध्य प्रदेश और राजस्थान में आरक्षण की मांग को लेकर कानून−व्यवस्था की उड़ी धज्जियां इसका उदाहरण हैं।

सच्चाई यह है कि दल चाहे कोई भी हो, किसी ने भी सत्ता में रहने के दौरान अनुसूचित जाति−जनजाति को देश और समाज की मुख्यधारा में शामिल कराने के गंभीरता से प्रयास नहीं किए। इसके विपरीत राजनीतिक दलों ने अपनी जिम्मेदारी से भागने के लिए उनके संरक्षण के लिए कानून बना दिए। इसकी पालना का बोझ पुलिस के कंधों पर डाल दिया। पुलिस अपराध रोकने और कानून−व्यवस्था की पालना के मामले में पहले से काम के बोझ की मारी है, उस पर ऐसे कानूनों के क्रियान्वयन का बोझ और पटक दिया। पुलिस के भरोसे इस कानून से दलितों की दशा-दिशा सुधारने की कवायद की गई। जबकि पुलिस प्रणाली खुद अपंगता की हालत से जूझ रही है। राजनीतिक दल अपनी सुविधा और फायदे के लिए पुलिस का इस्तेमाल करते हैं। ऐसे में पुलिस से यह उम्मीद करना कि एससी-एसटी एक्ट के तहत दर्ज मुकदमों से दलितों को न्याय मिल जाएगा, बेमानी ही रहा है।

देश में पहले से ही हजारों कानून मौजूद हैं। यदि कानूनों से देश की तस्वीर सुनहरी बननी होती तो भारत आज विश्व में हर क्षेत्र में अग्रणी होता। इससे जाहिर है कि सत्ता प्राप्ति के लिए राजनीतिक दल दलदल में उतरने के मौके तलाशते रहते हैं। सवाल यह है कि आजादी के 71 साल बाद भी आखिर अनुसूचित जाति−जनजाति के हालात में सुधार क्यों नहीं आया। उन्हें इस तरह के कानूनों की संरक्षण की क्या आवश्यकता है। ऐसे वातावरण का निर्माण क्यों नहीं किया गया कि दलितों को महसूस हो कि वे भी इस देश का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। उनकी शिक्षा और आर्थिक स्थितियों को सुधारने के लिए आबादी के अनुपात में केंद्र और राज्यों ने बजट में विशेष प्रावधान क्यों नहीं किए। उनके लिए बनाई मौजूदा योजनाओं का क्रियान्वयन यदि बगैर भ्रष्टाचार और भेदभाव के लागू होता तो ऐसे कानूनों की आवश्यकता ही खत्म हो जाती। ऐसे कानून वक्त के बदलाव के साथ स्वतः ही अप्रसांगिक हो जाते, बजाए कि इनको मजबूत बनाने के लिए और नख−दंत दिए जाएं।

इससे देश के विखंडन का खतरा मंडरा रहा है। इसकी चिंता किसी भी दल को नहीं है। देश की एकता−अखंडता और विकास प्रभावित हो रहा है। तेजी से बढ़ते भारत की वैश्विक छवि को ऐसे हिंसक आंदोलनों से कितनी क्षति पहुंचती है, इससे भी राजनीतिक दलों का कोई सरोकार नहीं रह गया है। राजनीतिक दलों ने इस वर्ग का इस्तेमाल सिर्फ वोट बैंक के रूप में किया है। आर्थिक स्तर पर तो दूर बल्कि सामाजिक स्तर पर बराबरी का दर्जा तक दिलाने में राजनीतिक दल नाकमायाब रहे हैं।

इस सच्चाई से मुंह मोड़ने के लिए ही एससी-एसटी कानून बनाया गया। इस कानून से ही देश दो हिस्सों में बंट गया। करीब तीन दशक पहले बने अनुसूचित जाति−जनजाति कानून से भी इस वर्ग की हालत में कोई विशेष सुधार नहीं हुआ। दलित बाहुल्य वाले राज्यों में अभी भी छूआछूत के मामले देखे जा सकते हैं। कानून से इसमें आंशिक बदलाव बेशक आया हो, किन्तु यह वर्ग आज भी समाज की मुख्य धारा से अलग−थलग पड़ा है। इस वर्ग में मामूली राहत उनको मिली है जो आरक्षण से अपना आर्थिक आधार मजबूत बनाने में कामयाब हो गए। शेष वर्ग आज भी हाशिये पर ही है। संरक्षण और समानता के लिए बनाए इस कानून से भी इस वर्ग के प्रति मानसिकता में कोई विशेष फर्क नहीं पड़ा। उल्टे इस कानून ने सामाजिक सौहार्द की खाई को और गहरा करने का काम किया है।

समाज की रूढ़ियों को बदलने की बजाए राजनीतिक दलों ने इस वर्ग को चुनावी हथियार बना लिया। कानून के बावजूद हालात में सुधार नहीं होने की सच्चाई से सभी दल दूर भागते नजर आते हैं। कोई भी दल सार्वजनिक तौर पर इसकी चर्चा तक करने को तैयार नहीं है कि आखिर ऐसे कानून का क्या फायदा है, जिससे दलितों की सामाजिक−आर्थिक स्थिति में नाममात्र का परिवर्तन आया हो। हिन्दीभाषी राज्यों में आए दिन दलितों के साथ अत्याचारों की वारदातें सुर्खियों में रहती हैं। राजनीतिक दल ऐसी वारदातों के बाद सिर्फ स्वार्थ की रोटियां सेकते हैं। इन अत्याचारों को रोकने के लिए जमीनी स्तर पर किसी भी दल ने ईमानदारी से मेहनत नहीं की।

यहां तक कि दलितों की दुहाई देकर पार्टी बना कर सत्ता में रही बसपा भी इस मामले में खरी नहीं उतरी। बसपा प्रमुख मायावती के सत्ता में रहने के दौरान ठाठबाठ की खबरें सुर्खियों में रही हैं। मायावती आय से अधिक सम्पत्ति का मुकदमा झेल रही हैं। दलितों के विकास के नाम पर बसपा के चुनाव चिह्न हाथी की मूर्तियों पर पर उत्तर प्रदेश में करोड़ों रुपए फूंक दिए गए। उनके विकास के लिए आधारभूत ढांचों में बदलाव किसी ने नहीं किया। दलितों को बसपा हो या सपा सभी ने सत्ता स्वार्थ का मोहरा बनाया है। विकास और बदलाव की सच्चाई से दूर उन्हें बहलाने के लिए कानून का झुनझुना थमा दिया। सतही तौर पर सामाजिक समरसता को जलाने वाली ऐसी आग बेशक शांत हो जाए किन्तु समस्या के जड़ तक निदान नहीं किए जाने तक लावा फिर कभी फूट कर रौद्र रूप दिखाएगा।

-योगेन्द्र योगी

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