हिन्दी के विद्वान ही हिन्दी को पिछड़ा बनाए रखने पर आमादा हैं

Reasons for backwardness of Hindi

हर साल अंतरराष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन करते ही हैं। कभी दिल्ली कभी मॉरिशस, कभी लंदन आदि। लेकिन इस हक़ीकत से भी हम मुंह नहीं फेर सकते कि इन सम्मेलनों में होता क्या है?

हिन्दी को बोलने−बतियाने वालों की संख्या फीसदी में बात की जाए तो पैंतालीस है। कुल जनसंख्या की 45 फीसदी जनता हिन्दी को अपनी मातृभाषा के रूप में बरतती है। बाकी बची भाषाएं, बोलियां भी प्रचलन में हैं। जो खड़ी हिन्दी 45 फीसदी के आगे कमतर सी महसूस करती है। गै़र हिन्दी भाषी समाज की बात की जाए तो उन्हें लगता है कि खड़ी हिन्दी उनकी बघेली, भोजपुरी, हरियाणवी, राजस्थानी, गढ़वाली को निगल जाएगी। ऐसा डर आखिर उन्हें क्यों लगता है? शायद इसलिए क्योंकि हिन्दी कई बार अन्य भारतीय भाषाओं को शुद्धता के तर्क पर स्वीकार नहीं कर पाती। शुद्ध हिन्दी के पैरोकारों को यह कत्तई स्वीकार नहीं कि हिन्दी में गै़र हिन्दी भाषा के शब्द, शैली शामिल हों। उन्हें यह डर रहता है कि इससे शुद्ध खड़ी हिन्दी खराब हो जाएगी। जबकि बहुत पहले बहुभाषा और हिन्दी को बरतने वालों ने कहा भी कि हिन्दी और उर्दू गंगा−जमुनी संस्कृति की साझा विरासत की पहचान है। यदि ऐसा है तो हिन्दी को अन्य भारतीय भाषाओं और बोलियों से दूरी बनाकर चलने का क्या औचित्य है? साझा संस्कृति में हिन्दी भी कहीं न कहीं बनती, सजती और संवरती रही है। हिन्दी भाषा की सबसे बड़ी ताक़त ही यही रही है कि इसके अपने दामन में उर्दू, संस्कृत, फारसी, भोजपुरी, ब्रज, अवधी आदि भाषाओं को उदारता के साथ स्वीकार किया है। यदि इतिहास में झांक कर देखें तो पाएंगे कि प्रसिद्ध कथासम्राट प्रेमचंद शुरू में हिन्दी में नहीं लिखा करते थे। वो सोज़े वतन पर पाबंदी लगी और प्रेमचंद हिन्दी में लिखना शुरू करते हैं। हिन्दल्वी, हिन्दुस्तानी भाषा का प्रयोग गांधी से लेकर ऋषि दयानंद तक ने किया है। यही कारण है कि हिन्दी समय के अनुसार समृद्ध होती गई है।

हिन्दी को बोलने−बरतने वालों की संख्या आज की तारीख में लाखों और करोड़ों में है। देशज दहलीज़ को लांघ कर वैश्विक स्तर पर लोग मिलेंगे जो हिन्दी बोलते−समझते हैं। क्या वो दुबई हो, बाली हो, थाईलैंड हो, श्रीलंका, मॉरिशस हो इन तमाम जगहों पर हिन्दी भाषा−भाषी लोग सहजता से मिलेंगे। जिनका हिन्दी से रागात्मक संबंध है। उनके लिए हिन्दी मां से कहीं ज़्यादा बढ़कर है। वे जब भी हिन्दी में कहीं उलझते हैं तब वे भारत की ओर उम्मीद भरी नज़रों से देखते हैं और अपेक्षा करते हैं कि उन्हें हिन्दी भाषाई मुश्किल दौर से निकलने में भारत के भाषा−भाषी मदद करेंगे। लेकिन यहां हालत यह है कि हिन्दी को या तो बाज़ार में बैठाने के लिए हम आमादा हैं या फिर शुद्ध शाकाहारी किस्म की कोई वस्तु बनाने पर तुले हुए हैं। ऐसे में हानि किसी और की नहीं होती बल्कि हिन्दी का ही नुकसान हम कर रहे होते हैं। हमें आपसी राय और सुझावों के ज़रिए हिन्दी की आंतरिक द्वंद्वों को निपटा कर वैश्विक स्तर पर स्वीकार्य बनाने के प्रयास करने होंगे। हालांकि कहने वाले कह सकते हैं जनाब हमने कब कसर छोड़ी है। हर साल अंतरराष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन करते ही हैं। कभी दिल्ली कभी मॉरिशस, कभी लंदन आदि। लेकिन इस हक़ीकत से भी हम मुंह नहीं फेर सकते कि इन सम्मेलनों में होता क्या है? क्या उन सम्मेलनों में शामिल लोगों की सच में इच्छा होती है कि हिन्दी बेहतर बने? क्या उनका अपना निजी एजेंडा नहीं होता कि नई जगह घूम आएं। कुछ निजी रिश्ते बुन आएं ताकि उस देश में दुबारा हिन्दी के कंधे पर सवार होकर टहलने का मौका मिले। इन सम्मेलनों में कुछ रटे रटाए, स्टीरियो टाइप के विषय रखे जाते हैं जिस पर पर्चों की प्रस्तुति होती है। फिर कविता, कहानी, व्यंग्य का दौर चलता है। कविता सुन−सुना कर वाह वाह की अनुगूंज के साथ अगले सम्मेलन की तारीख तय हो जाती है। जिनसे इस बार नहीं मिल सके उनके अगले मेले में मुलाकात का वायदा कर आते हैं। हिन्दी वहीं की वहीं खड़ी रह जाती है।

हिन्दी को स्थिति जितनी खराब नहीं है उससे एक कदम आगे बढ़कर हम हिन्दी को दयनीय के रूप में प्रोजेक्ट किया करते हैं क्योंकि हमें हर साल एक पखवाड़ा भी तो मनाना है। हमें हर साल सम्मेलन भी तो करने हैं आदि। हिन्दी इन सम्मेलनों से ज़्यादा शिक्षण संस्थानों में मजबूत और कमजोर हुआ करती है जहां बच्चे और युवा पढ़कर और सीखा करते हैं। वह चाहे स्कूल हो, कॉलेज हो या फिर विश्वविद्यालय। इन्हीं शिक्षा−शिक्षण संस्थानों में हिन्दी आकार लेती और आगे बढ़ा करती है। हालांकि कहने वालों के तो तर्क यह भी होते हैं कि जितनी क्षति इन संस्थानों में हिन्दी की होती है उतनी कहीं और नहीं होती। लेकिन इस बात से भी मुकर नहीं सकते कि यदि बच्चा भाषा अपने घर−परिवार और परिवेश से सीखता है तो क्या हम स्कूल, कॉलेज आदि को परिवेश से बेदखल कर सकते हैं? शायद इन संस्थानों में बच्चा हिन्दी व अन्य भाषा को विधिवत सीखा करते हैं। लेकिन अफसोसनाक बात यह है कि इन्हीं संस्थानों में कई बार हिन्दी की जाने अनजाने में टांग भी तोड़ी जाती है। मसलन जिस स्कूल के द्वार पर मोटे मोटे अक्षरों में लिखा हो− विधालय, तो बच्चा वही तो रोज दिन देख−पढ़ और सुनकर लिखना, बोलना सीखेगा। यह तो एक शब्द है। ऐसे कई सारे शब्द, वाक्य ग़लत लिखे और बोले जाते हैं जिन पर स्कूल व कॉलेज के अधिकारी इस तर्क की ओट में बचने की कोशिश करते हैं कि यह तो पेंटर की ग़लती है। लेकिन क्या पेंटर के कंधे पर दोष थोप कर अपनी भाषायी जिम्मेदारी से बचना उचिता होगा।

सरकारी और गैर सरकारी स्कूलों में तो मै, नही, दोड़, लोट आना जैसे शब्द धड़ल्ले से बोले और पढ़ाये जाते हैं। यह सिर्फ व्याकरणिक अशुद्धियां भर नहीं हैं बल्कि शिक्षक स्वयं किस प्रकार बोलता और लिखता है यह उस ओर इशारा है। अधिकांश ग्रामीण और दिल्ली के शिक्षकों में भी उक्त वर्तनी दोष दिखाई देते हैं। बच्चे वही सुनते और बोलने लगते हैं। यह एक ऐसी कड़ी है जो कभी टूट नहीं पाती। वही बच्चे जब बड़े होकर शिक्षण कर्म में आते हैं तब वही गलतियां दुहराई जाती हैं। जब उन्हें किसी कार्यशाला में सही सीखने का मौका मिलता है तब वे लड़ने को तैयार रहते हैं कि हमारी मैम या सर ने तो हमें ऐसा ही सिखाया है। क्या वे गलत बताएंगे ? आदि। हमें प्राथमिक स्तर पर ही भाषा को बरतने में सावधानी बरतने की आवश्यकता है।

-कौशलेंद्र प्रपन्न

(शिक्षा एवं भाषा पैडागोजी एक्सपर्ट)

We're now on WhatsApp. Click to join.
All the updates here:

अन्य न्यूज़