तीन तलाक पर आये फैसले से धर्मनिरपेक्षता के दावेदार बेनकाब

Relief to women by court decision on triple talaq

साधारण बातों पर फतवा जारी करने वाले मौलाना इस विषय पर मौन क्यों हो जाते थे। वह तो इस पर चर्चा के लिये भी तैयार नहीं थे। समाधान तो बहुत दूर की बात है। कई विद्वान तो इसे शरीयत के अनुकूल बता रहे थे।

तीन तलाक पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने केवल मुस्लिम महिलाओं को ही आजादी नहीं दी है, वरन् इससे धर्मनिरपेक्षता के दावेदार भी बेनकाब हुए हैं। सुप्रीम कोर्ट ने इस मसले की सुनवाई के प्रारम्भिक चरण में ही केंद्र सरकार से जवाब मांगा था। कल्पना कीजिये कि कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार होती तो क्या होता। क्या ऐसा जवाब दाखिल करने का साहस वह दिखा सकती थी, जैसा वर्तमान भाजपा सरकार ने दिखाया। यदि उनमें हिम्मत होती तो इस समस्या का समाधान तीन दशक पहले ही हो जाता। शाहबानो प्रकरण को खासतौर पर मुस्लिम महिलायें कभी भूल नहीं सकतीं। पांच बच्चों की मां शाहबानो को उम्र के लगभग आखिरी पड़ाव में तलाक दिया गया था। तीन शब्दों ने उन्हें सड़क पर पहुंचा दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने मानवीय आधार पर फैसला लिया था। तलाक देने वाले शौहर से शाहबानो को गुजारा भत्ता देने को कहा गया था। इसके बाद तो सियासी हलकों में ऐसा लगा जैसे धर्मनिरपेक्षता पर कहर टूट पड़ा हो। कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार प्रचंड बहुमत में थी। उसने इस बहुमत के बल पर न्यायिक आदेश को निष्प्रभावी करके ही दम लिया। यह कांग्रेस और उसकी सहयोगी पार्टियों की धर्मनिरपेक्षता थी, जिसमें मुस्लिम जगत की आधी आबादी के लिये कोई जगह नहीं थी।

धर्मनिरपेक्षता के ऐसे हिमायतियों का चरित्र बदला नहीं है। यह देखने के लिये ज्यादा पीछे लौटने की जरूरत नहीं है। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव हुए अभी छह महीने भी नहीं हुए हैं। उस चुनाव में सपा, बसपा, कांग्रेस सभी ने तीन तलाक पर केंद्र सरकार के रुख को सांप्रदायिक करार दिया था। इन पार्टियों के वरिष्ठ नेता प्रत्येक जनसभा में यह विषय उठाते थे। उनका कहना था कि यह मजहबी विषय है। इसे मजहब को ही तय करना चाहिये। इस बार बसपा ने दलित−मुस्लिम गठजोड़ बनाने में दम लगा दिया था। मयावती ने तीन तलाक के विषय को ऐजेंडे में ऊपर रखा था। उनकी प्रतिस्पर्धा में उत्तर प्रदेश का साथ अर्थात अखिलेश यादव और राहुल गांधी भी कूद गये। इन्होंने भी इस पर सरकार के रुख व न्यायपालिका की प्रक्रिया को अनावश्यक माना था। किसी ने यह नहीं सोचा कि मुस्लिम समुदाय को सुधार के लिये रोका किसने था। तीन तलाक की समस्या तो लंबे समय से उठायी जा रही है।

साधारण बातों पर फतवा जारी करने वाले मौलाना इस विषय पर मौन क्यों हो जाते थे। वह तो इस पर चर्चा के लिये भी तैयार नहीं थे। समाधान तो बहुत दूर की बात है। कई विद्वान तो इसे शरीयत के अनुकूल बता रहे थे। उनके अनुसार इस पर विचार किया ही नहीं जा सकता। इसके बाद भी धर्मनिरपेक्ष नेता यही रट लगाते रहे कि तीन तलाक मजहबी व संवेदनशील मुद्दा है। इस पर मुस्लिम समुदाय को ही विचार करना चाहिये। लेकिन इस बात का जवाब नहीं दिया कि समाज के जिम्मेदार लोग ही इससे बेपरवाह हैं, तो क्या किया जाए। स्पष्ट है कि ये सभी लोग समाधान से भागना चाहते थे। इन्हें लगता था कि वोट बैंक की राजनीति के तहत इस मसले में नहीं पड़ना चाहिये। आधुनिक तकनीक का भी असर दिखायी देने लगा। मोबाइल फोन से तलाक होने लगे। इस पर भी मुस्लिम धर्मगुरु विचार करने से बचते रहे। कुछ अवश्य कह रहे थे कि एक बार में तीन तलाक कहना गलत है। इसकी इजाजत कहीं नहीं दी गयी।

यह मानना होगा कि सरकार के जवाब से ही यह समस्या समाधान तक पहुंची। सुप्रीम कोर्ट ने सबसे पहले इस विषय पर जवाब मांगा। सरकार ने वास्तविक पंथनिरपेक्षता का परिचय दिया। उसने इस विषय को वोट बैंक की सियासत से नहीं देखा। संविधान, मुस्लिम−जगत, आदि पर व्यापक विचार के बाद जवाब तैयार किया। जहां तक संविधान की बात है, उसमें समान कानून की बात कही भी गयी है। फौजदारी विषयों पर समान कानून लागू भी है। इसके लिये कोई यह नहीं कहता कि इनकी जगह शरियत के नियम लागू होने चाहिये। फिर तीन तलाक पर ही ऐसी बातें क्यों हो रही थी।

सरकार ने अनेक इस्लामी−मृतकों का विवरण अपने जवाब के साथ संलग्न किया। इसमें बताया कि मुस्लिम देशों ने भी तीन तलाक पर कानूनी रूप से प्रतिबंध लगाया है। इनमें से कई देश शरियत के नियमों से चलते हैं। उन्होंने एक बार में तीन तलाक को गलत माना, इसे अपने−अपने मुल्क में प्रतिबंधित कर दिया। ऐसे में भारत को भी इस सुधार पर आपत्ति नहीं होनी चाहिये। इस प्रकार सरकार ने संविधान और मजहबी संवेदनशीलता को ध्यान में रखा। उसने अपनी तरफ से पहल नहीं की थी। वरन् सुप्रीम कोर्ट ने पहले स्वयं तीन तलाक को संज्ञान में लिया था। इसके बाद पांच याचिकाओं में भी इसे समाप्त करने की अपील की गयी थी। भारत तो वैसे भी सुधारों का देश रहा है। मुस्लिम महिलाओं को न्याय मिला, पूरा देश इस खुशी में शामिल है।

- डॉ. दिलीप अग्निहोत्री

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