धारा 370 को हटाए बगैर कश्मीर समस्या का समाधान संभव नहीं

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चीन ने दक्षिणी चीन सागर के विवादित स्थल पर जबरन अपना हक मानते हुए अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के फैसले को मानने से साफ इंकार कर दिया। जबकि अमेरिका−जापान सहित दूसरे देश इसे मनवाने के लिए अंतरराष्ट्रीय जल संधि की दुहाई देते रहे।

चीन ने दक्षिणी चीन सागर के विवादित स्थल पर जबरन अपना हक मानते हुए अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के फैसले को मानने से साफ इंकार कर दिया। जबकि अमेरिका−जापान सहित दूसरे देश इसे मनवाने के लिए अंतरराष्ट्रीय जल संधि की दुहाई देते रहे। इस मुद्दे पर चीन ने सबका विरोध दरकिनार कर दिया और विवादित द्वीप पर निर्माण कार्य जारी रखा। सवाल यह है कि जब चीन आर्थिक और सामरिक हितों की पूर्ति करने के लिए अपने वास्तविक नियंत्रण से बाहर जाकर अंतरराष्ट्रीय जल संधि के विपरीत दक्षिण चीन सागर पर कब्जा जमा सकता है तो भारत की आंतरिक भौगोलिक सीमा में मौजूद जम्मू−कश्मीर को विशिष्ट राज्य का दर्जा क्यों दिया गया है।

भारत इस मामले में संविधान के अनुच्छेद की धारा 370 के तहत मिले विशेष राज्य के दर्जे को खत्म करने का साहस क्यों नहीं दिखा पा रहा? क्या भारत ने ही अंतरराष्ट्रीय कायदे−कानूनों के पालन करने का ठेका उठा रखा है। जबकि पड़ोसी देश सरेआम ठेंगा दिखा रहा है। यह निश्चित है कि जब तक भारत इस दर्जे को खत्म नहीं करेगा तब तक कश्मीर में खून−खराबा जारी रहेगा। कश्मीर मुद्दे पर पाकिस्तान से किसी तरह की सुलह या समाधान करने की उम्मीद करना बेमानी होगा। झेलम में अब इतना रक्त बह चुका है कि इसे रोकने के लिए मनुहार−गुहार जैसे प्रयास व्यर्थ हो गए हैं। अब वक्त आ गया है कि भारत किसी की परवाह किए बगैर इस राज्य का विशेष दर्जा समाप्त करे। देश में अमन और तरक्की के लिए यह कदम उठाया जाने वक्त की दरकार है।

केंद्र सरकार की ओर से सद्भावना के अथक प्रयासों के बावजूद कश्मीर में कानून−व्यवस्था की हालत चौपट होती जा रही है। आए दिन खून−खराबे की खबरें आ रही हैं। पाकिस्तान की शह पर स्थानीय लोगों के संरक्षण से आतंकवादी आए दिन रक्तपात कर रहे हैं। इन्हें रोकने का प्रयास करने वाले सैन्य बलों को भाड़े के पत्थरबाजों का सामना करना पड़ा रहा है। देश अपने ही घर में युद्ध जैसे मोर्चे से जूझ रहा है। अब तक हजारों सैन्यकर्मियों और आम लोगों की जान जा चुकी है। कश्मीर में अघोषित युद्ध लड़ा जा रहा है। इस हालात के लिए जम्मू−कश्मीर की सरकार भी काफी हद तक जिम्मेदार है। पीडीपी हो या चाहे नेशनल कांफ्रेंस, सारे राजनीतिक दल शहीद होने वाले सुरक्षाकर्मियों की चिताओं पर राजनीतिक रोटियां सेंक रहे हैं।

आतंकवादियों को सरेआम संरक्षण देने वाली भीड़ पर सरकार का किसी तरह का नियंत्रण नहीं रह गया है। यह स्थिति देश की सम्प्रभुता−एकता और अखण्डता के लिए जबरदस्त चुनौती है। देश के बाकी राज्यों में हालात कमोबेश सामान्य हैं, किन्तु अकेले जम्मू−कश्मीर ने पूरे देश की नाक में दम कर रखा है। केन्द्र सरकार इस राज्य के लाड़−दुलार पर अरबों रूपए खर्च करने के साथ ही सुरक्षा बलों का रक्त बहा रही है। सैन्य बलों ने सदाशयता दिखाने में कसर बाकी नहीं रखी। भीषण बाढ़ के दौरान सैन्यकर्मियों ने अपनी जान तक दांव पर लगाते हुए हजारों लोगों की जिंदगी बचाई। इसके बावजूद सुरक्षा बलों पर आतंकियों के खिलाफ कार्रवाई के दौरान स्थानीय लोगों के हमले जारी हैं। उनकी त्याग−तपस्या का कोई गुण−एहसान लोगों पर नहीं है।

सैन्यबलों की आतंकियों के विरूद्ध कार्रवाई का विरोध लगातार बढ़ता ही जा रहा है। आतंकी अपनी नापाक हरकतों से बाज नहीं आ रहे हैं। उनका विरोध करने की कीमत स्थानीय लोगों को जान−माल के नुकसान से चुकानी पड़ रही है। राईजिंग कश्मीर के संपादक की हत्या इसी विरोध का परिणाम है। सैन्यबल तो पहले से उनके दुश्मन नम्बर वन बने हुए हैं। पाकिस्तान आतंकियों की लगातार मदद कर रहा है। आतंकियों को संरक्षण देने के पाकिस्तान के इरादों में कोई कमी नहीं आई है, जबकि भारत ने इस मुद्दे पर विश्व में उसे अलग−थलग करने की भरपूर कोशिश भी की है।

दरअसल अब यह स्पष्ट है कि विश्व समुदाय भारत के इस घरेलू मुद्दे पर तमाशबीन से अधिक कुछ नहीं है। इसके विपरीत मानवाधिकारों के उल्लंघन का आरोप अलग से लगाया जा रहा है। जबकि इसमें पाकिस्तान का कितना बड़ा हाथ है, उस पर कोई उंगली नहीं उठा रहा है। यह मामला पूरी तरह से भारत का घरेलू है। संयुक्त राष्ट्र संघ चीन−पाकिस्तान जैसे देशों का मानवाधिकारों के मामले में कुछ नहीं बिगाड़ पाया। उल्टे चीन तो वीटो पावर की धौंस में परिषद को ही आईना दिखाता रहा है। ऐसे में भारत को जम्मू−कश्मीर में मानवाधिकारों के मामले में सफाई देने की जरूरत ही नहीं है।

यह भी निश्चित है कि भारत यदि यह समझता है कि ऐसे मामलों में नरमी की नीति पर अमल करने से संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् की वीटो पावर वाली स्थायी सदस्यता हासिल कर लेगा, तो भारी गलतफहमी का शिकार है। पड़ोसी देशों को धमकाए रखने की अघोषित नीति रखने वाला चीन भारत के स्थायी सदस्यता के इरादे कभी पूरे नहीं होने देगा। इसमें साथ देने का तो सवाल ही नहीं उठता। इस मुद्दे पर बाकी देश भी महज भारत को खुश रखने के लिए विदेशी यात्राओं के दौरान मेजबान होने के नाते फर्जी समर्थन की हामी भरते रहे हैं। यह साफ है कि जब तक भारत आर्थिक और सैन्य ताकत नहीं बनेगा, तब तक विश्व में कोई हमारी आवाज पर गौर नहीं करेगा। आवाज तभी बुलंद हो सकेगी जब भारत किसी की परवाह करना छोड़ देगा। ज्यादा परवाह करने और सदाशयता दिखाने को कमजोर होने की निशानी मान लिया गया है।

यही हाल जम्मू−कश्मीर में भी हो रहा है। भाइचारे की नीति को कश्मीर में पत्थरबाजों की भीड़, पाकिस्तान तथा विश्व के दूसरे मुल्कों ने भारत की कमजोरी मान लिया है। यही वजह है कि हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं। इसकी असली जड़ है विषेष राज्य का दर्जा। जब तक यह समाप्त नहीं होगा। दूसरे राज्यों के लोगों को वहां रहने−बसने का अधिकार नहीं मिलेगा तब तक देश ऐसे ही हर रोज सैनिकों की लाशों से लथपथ होता रहेगा। भारत को विश्व समुदाय की परवाह किए बगैर इस प्रावधान को खत्म करना होगा। तभी देश में शांति−तरक्की के नए सूरज का उदय हो सकेगा।

-योगेन्द्र योगी

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