भारत को बचाना है तो भारतीय भाषाओं को भी बचाना होगा

save the Indian languages

भारतीय भाषाओं के संरक्षण के संजीदा पैरोकार राहुल देव बड़ी ही शिद्दत से भाषाओं को बचाने के लिए विभिन्न मंचों से ''भाषाएं बचेंगी तो हमारा जीवन दर्शन भी बचेगा। भारत को बचाना है तो भारतीय भाषाओं को बचाना होगा'' आदि जैसे मसलों को उठा रहे हैं।

जब किसी व्यक्ति की हत्या की जाती है या हो जाती है तो ऐसे में संविधान की भूमिका उसे सज़ा दिलाने, न्याय करने की होती है। इन न्याय प्रक्रिया में बेशक वक़्त लग जाए किन्तु आम जनता का विश्वास है कि न्याय किया जाएगा। हर ग़लत और असंवैधानिक बरताव के लिए भारतीय संविधान की विभिन्न धाराओं में सज़ा की व्यवस्था है। हमने कभी सोचा है कि जब हमारे ही समाज के अत्यंत महीन और पतली डोर जिससे भारतीय भाषाएं आबद्ध हैं, जब उसे चोट पहुंचाई जाती है, या टक्कर मारी जाती है तो समाज के किस कोने से न्याय की गुहार सुनाई देती है ? कौन है जो ऐसे भाषायी यातायात के नियमों और बत्ती को लांघने वाले के खिलाफ कार्रवाई की मांग करता हो ? शायद ऐसे पैराकारों की संख्या बेहद कम है। यही वजह है कि हम दिन में कई बार भाषायी यातायात के नियमों की धज्जियां उड़ाते हैं। जब हम हिन्दी की पंक्ति में सीधी चल रहे होते हैं तभी अचानक से हम अपनी लाइन बदल लेते हैं और यकायक अंग्रेजी के ट्रैक पर दौड़ने लगते हैं। हिन्दी की पंक्ति में दौड़ते दौड़ते न जाने कब सायास या अनायास अंग्रेजी की पंक्तियों, शब्दावलियों, मुहावरों के ज़रिए हिन्दी की कोमलता और प्राकृतिक सौंदर्य को रौंदने लगते हैं। हमें पता भी नहीं चल पाता और हम कितनी ही भाषायी छटाओं को रौंद कर लहुलुहान कर चुके होते हैं। इसके लिए हमारे मुंह से उफ्!!! तक नहीं निकल पाती।

ऐसे ही हम हिन्दी व अन्य भाषाओं की हत्या रोज़दिन ही किया करते हैं। सुबह उठने से लेकर रात सोने से पहले तक कम से कम प्रतिशत में बात करें तो अपने संवाद, संप्रेषण में हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओं का प्रयोग बेहद कम होता है। अंग्रेजी का प्रभाव हमारी सामान्य बोलचाल में मुखर सुनाई देता है। कभी हमने मंथन नहीं किया कि हमने कितनी ही ऐसी भाषिक छटाओं की हत्या कर दी जो अब कभी दुबारा आपकी जबान पर आने से पहले हज़ार पर ठिठकेंगी।

प्रसिद्ध पत्रकार और भाषा प्रेमी एवं भारतीय भाषाओं के संरक्षण के संजीदा पैरोकार राहुल देव बड़ी ही शिद्दत से भाषाओं को बचाने के लिए विभिन्न मंचों से 'भाषाएं बचेंगी तो हमारा जीवन दर्शन भी बचेगा। भारत को बचाना है तो भारतीय भाषाओं को बचाना होगा' आदि जैसे मसलों को उठा रहे हैं और समाज के विभिन्न हिस्सों तथा ईकाइयों से संवाद स्थापित कर रहे हैं। वह छात्र, शिक्षक, उद्योगपति, सांसदों आदि से लगातार 'अपनी भाषा वह कोई भी भारतीय भाषा हो सकती है' को बरतने और सजग रहने की वकालत कर रहे हैं। इन्होंने हाल ही में टेक महिन्द्रा फाउंडेशन एवं पूर्वी दिल्ली नगर निगम के साझा प्रयास से स्थापित एक अंतःसेवाकालीन अध्यापक शिक्षा संस्थान में शिक्षातर व्याख्यान माला कड़ी में नौंवी श्रृंखला में 'बहुभाषिकता शिक्षण और समाधान' मुद्दे पर विमर्श के दौरान कहा कि क्या कभी आपने अंग्रेजी बोलने वाले व बोलने वालों के मुंह से यह सुना है कि ''आई एम गोईंग टू टॉक माई पति'' आदि। जब अंग्रेजी बोली जाती है वह चाहे किसी सेमिनार में हो या परिचर्चा में तो हिन्दी शब्दों व वाक्यों की हिस्सेदारी फीसदी में नगण्य ही होती है। लेकिन हिन्दी में बोलने वालों की गोष्ठियों में अंग्रेजी के बगैर शायद गोष्ठी पूरी ही नहीं होती। राहुल देव ने तर्क दिया कि मैं किसी भाषा का विरोध नहीं कर रहा हूं। बल्कि निवेदन यह कर रहा हूं कि दो या दो से अधिक भाषाओं को जानना, बरतना समझ हमें धनी बनाती है। लेकिन भाषायी प्रकृति और भाषायी कोमलता को आहत न किया जाए। दूसरे शब्दों में जब हिन्दी बोलें तो हिन्दी ही बोलें। जब दूसरी भाषा बोलें तो उस भाषा की गरिमा को बरकरार रखने की कोशिश करें।

आज हमारे भाषायी भूगोल से हज़ारों हज़ार भाषाएं लुप्त या गुम हो गईं। उनकी गुमशुदगी की रपट शायद ही किसी भाषायी अदालत में दर्ज़ की गई हो या की जाती हो। कभी कभार समाज के भाषायी चेत्ता भाषायी भूगोल में हो रही हलचलों को सुनने, समझने और रख रखाव से बेचैन होते हैं। अपनी चिंताएं एवं भाषायी दरकार को लोकतंत्र के चारों स्तम्भों तक उठाने, पहुंचाने की कोशिश करते हैं। हालांकि भारतीय संविधान भारतीय भाषाओं को बचाने, बरतने के लिए विभिन्न योजनाएं बनाने और अमल में लाने के लिए प्रावधान तो देता है लेकिन भाषा अनुरागी व पैरोकारों की संख्या कम पड़ जाती है।

अंतःसेवाकालीन अध्यापक शिक्षा संस्थान प्रत्येक माह शिक्षात्तर व्याख्यान माला का आयोजन करती है। इन कड़ियों में देश के स्थापित एवं प्रसिद्ध शिक्षाविदों, पत्रकारों, भाषाविदों आदि को विभिन्न विषयों पर परिचर्चा के लिए आमंत्रित करती है। इसी श्रृंखला में नौंवे व्याख्याता के तौर पर आए राहुल देव ने बहुभाषा शिक्षण और चुनौतियों पर व्यापक और सारपूर्ण विमर्श किया। उन्होंने कहा कि एक से ज़्यादा भाषाओं की जानकारी होना, दक्षता हासिल करना आज की तरीख में भाषायी कौशल में निपूर्णता प्राप्त करना है। लेकिन सावधानी इस बात की रखनी होगी कि जब हम जिस भी भाषा का प्रयोग कर रहे हैं तब सचेत होकर उस भाषायी तमीज़ का ख़्याल रखें। इससे अन्य भाषाओं की हत्या होने व करने से बचा जा सकता है। असावधानियां हुईं नहीं कि हम दनादन भाषाओं की हत्या करने लगते हैं। यदि आपको अपनी भाषा से मुहब्बत नहीं है तो आप भारत व भारतीय भाषायी छटाओं से महरूम हो जाते हैं।

भारतीय भाषाओं को बचाने के लिए सरकारी प्रयासों के जिम्मे छोड़ कर हम निश्चिंत नहीं हो सकते क्योंकि इस प्रयास में भाषा शिक्षण, भाषायी शिक्षा संस्थानों के कंधे पर बड़ी जिम्मदारी आ जाती है कि वहां किस प्रकार भाषा के साथ बरताव हो रहे हैं। आज शिक्षा शिक्षण संस्थानों में भाषा की स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं मानी जा सकती। लगातार बाजार के दबाव में हम अपनी भाषा हिन्दी का नुकसान ही कर रहे हैं। इसमें अखबार की भूमिका को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। हम जब सचेत हो कर भाषा का प्रयोग करते हैं तब ग़लती होने की संभावना कम हो जाती है। जैसे ही हम असावधान होकर भाषा का इस्तमाल करते हैं तभी हम भाषा की हत्या करने लगते हैं। इस उपक्रम में कई सारे घटक हैं− भाषायी तमीज़ का न होना, भाषायी कोमलता, भाषायी प्रकृति से परिचित न होना आदि। इसके साथ ही हमारी लापरवाही भी बड़ी अहम भूमिका निभाती है।

-कौशलेंद्र प्रपन्न

(शिक्षा एवं भाषा पैडागोजी विशेषज्ञ)

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