देश में गिरते हुए भूजल के स्तर को रोकने के कुछ बेहतरीन उपाय

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आने वाले 30 सालों में जहां पानी की मांग में एक फीसदी की बढ़ोतरी होगी वहीं भूजल के स्तर में बढ़ोतरी के स्थान पर और कमी के ही कयास लगाए जा रहे हैं। देश के अधिकांश क्षेत्र डार्क जोन के दायरे में आते जा रहे हैं।

पल्ला फ्लड प्लेन योजना से दिल्ली में तीन साल में भूजल का स्तर तीन मीटर तक बढ़ने का दावा भले ही अतिश्योक्तिपूर्ण लगे पर इसमें कोई दो राय नहीं कि एक स्तर तक भूजल के स्तर को बढ़ाने में यह योजना सफल रही है। दरअसल देखा जाए तो आज देश में सबसे बड़ी समस्या पेयजल को लेकर होने लगी है। अत्यधिक दोहन और शहरीकरण के कारण भूगर्भीय जल स्तर लगातार नीचे जाता जा रहा है। कहने को तो भूजल को रिचार्ज करने के लिए लाख उपाय बताए जा रहे हैं और पानी की बचत से लेकर परंपरागत जल स्रोतों के पुनरुद्धार और संरक्षण, जल भराव क्षेत्रों में अबाध पानी की आवक, वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम को मजबूत बनाने, नदी जोड़ो अभियान जैसे कई कार्यक्रम चलाये जा रहे हैं पर परिणाम जो आ रहे हैं वह उत्साहजनक नहीं दिखाई दे रहे। जब तक भूजल के स्तर को बढ़ाने के ठोस प्रयास नहीं होते तब तक चाहे अमृत जल योजना हो या जल जीवन मिशन या दूसरी कोई योजनाएं, अपने उद्देश्यों पर खरी नहीं उतर सकतीं।

दुनिया के सबसे अधिक भूजल का दोहन करने वाले देशों में 8 देश एशिया के हैं अन्य दो देशों में उत्तरी अमेरिका और मेक्सिको आते हैं। एक मोटे अनुमान के अनुसार यह दुनिया के 75 फीसदी भूजल का इस्तेमाल करते हैं। हमारे देश में उपलब्ध भूजल में से खेती के लिए 89 प्रतिशत भूजल का उपयोग हो रहा है जबकि विश्व के अन्य देशों का खेती में सिंचाई के लिए पानी के उपयोग का औसत 9 प्रतिशत है। आने वाले 30 सालों में जहां पानी की मांग में एक फीसदी की बढ़ोतरी होगी वहीं भूजल के स्तर में बढ़ोतरी के स्थान पर और कमी के ही कयास लगाए जा रहे हैं। देश के अधिकांश क्षेत्र डार्क जोन के दायरे में आते जा रहे हैं। 

दरअसल भूजल के गिरते स्तर को लेकर चिंता भी बहुत हुई है तो योजनाएं भी बहुत बनी हैं। पर परिणाम इसलिए अधिक सकारात्मक नहीं आ पाए कि दूरगामी सोच का अभाव दिखा तो दूसरी और क्रियान्वयन में लापरवाही भी आम रही है।

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पानी की एक एक बूंद बचाने के संदेश के बावजूद पानी का उपयोग बढ़ता ही जा रहा है। यदि हम शहरों की ही बात करें तो पीने के पानी से कई गुणा अधिक मात्रा में बाथरुम, घर के गार्डन में पानी देने, किचन गार्डन के पौधों में पानी, दोपहिया व चौपहिया वाहनों को धोने-धुलाने, कूलरों की घर घर तक सहज पहुंच और अन्य बहुत से कारण हैं जिससे पानी का उपयोग तो बढ़ा है पर जल संरक्षण के उपायों पर उतना काम नहीं हुआ है। एक और तो शहरों में परंपरागत जल स्रोतों को ही पाट कर कालोनियां विकसित कर दी गयी हैं या उनमें पानी के आवक के सारे रास्ते बंद कर उसे नष्ट होने के लिए छोड़ दिया गया है। दूसरी और शहरों में घरों में अंधाधुंध बोरिंग किए गए हैं तो सरकारों को भी पेयजल उपलब्ध कराने के लिए साल दर साल नए बोरिंग करने पड़ रहे हैं। इन सबसे इतर सरकार द्वारा वाटर हार्वेस्टिंग को लेकर बनाई गई योजनाएं धरातल पर खरी नहीं उतर सकी हैं। वाटर हार्वेस्टिंग स्रोतों में या तो पानी ही नहीं जा पाता या फिर उनके रखरखाव के अभाव में पानी की आवक नहीं हो पाती। इसी तरह से घरों में वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम विकसित करने की घोषणा का भी प्रभावी क्रियान्वयन नहीं हो पाया है।

यह तो शहरों की तस्वीर है तो दूसरी और गांवों में भी निरंतर गिरते जल स्तर के कारण अंधाधुंध बोरवेल होते गए और होता यह गया कि गांवों में भी तेजी से भूजल स्तर नीचे से नीचे जाता गया है। नदी नालों या बांधों की राह में बिना किसी सोच के एनिकटों का जाल बिछा दिया गया और हुआ यह कि नदी नालों व बांधों में पानी की आवक अवरुद्ध हो गई। बारहमासी नदियां अब बरसात में भी बहने का इंतजार करने लगी हैं। सारे रास्तों का ही गला घोंट दिए जाने का यह परिणाम है।

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कुछ दशक पहले की ओर ध्यान दिया जाए तो जब शहरों से बाहर सड़कों पर निकलते थे तो नेशनल हाईवे ही नहीं गांवों तक में जाने वाली सड़कों के दोनों किनारों पर छोटी छोटी खाइयां बनी होती थीं। बरसात के दिनों में इनमें बरसात का पानी एकत्रित हो जाता था। इस पानी से जहां मवेशियों को पीने का पानी मिल जाता था वहीं आसपास के क्षेत्र के कुएं रिचार्ज हो जाते थे। आज हो क्या रहा है। सड़कों के किनारे खाइयां दिखाई ही नहीं देतीं। दिखाई देती हैं तो केवल और केवल मात्र, व्यावसायिक गतिविधियां। आखिर उस जमाने में भी कोई सोच तो रहा ही होगा जिसके कारण सड़कों के दोनों किनारों पर पानी संग्रहण के लिए खाइयां बनाई जाती थीं। यह काम आज भी आसानी से करवाया जा सकता है। आज तो सड़कों का जाल बिछ गया है। ऐसे में हाईवे पर यह जिम्मा टोल वसूलने वाली संस्थाओं को दिया जा सकता है तो अन्य स्थानों पर मनरेगा में यह काम आसानी से हो सकता है। हालांकि यह भूजल स्तर के रिचार्ज का बड़ा हल नहीं है पर इससे बहुत हद तक सकारात्मक परिणाम पाया जा सकता है। इसमें राजमार्ग व सड़क किनारे के आसपास की पांच छह फिट चौड़ाई की ही तो जमीन का उपयोग होगा पर परिणाम बहुत ही अधिक लाभदायक होगा। कुछ इसी तरह के अन्य कम खर्चीले उपायों पर काम किया जा सकता है जिससे बर्बाद होने वाले बरसात के पानी का सदुपयोग हो सकेगा। कम से कम तीन से चार माह तक मवेशियों के पीने के पानी व आसपास के कुंओं के रिचार्ज का रास्ता आसानी से तय हो जाएगा। कुछ इसी तरह के उपायों पर काम किया जाता है तो निश्चित रूप से गिरते भूजल को कम से कम स्थिरता की ओर तो लाया ही जा सकता है। पल्ला फ्लड प्लेन योजना कुछ इसी तरह की रही है। बिना किसी सरकारी लागत या नाममात्र की लागत से सड़क के किनारों को वाटर हार्वेस्टिंग का माध्यम आसानी से बनाया जा सकता है। भूजल विज्ञानियों को इस दिशा में चिंतन कर सरकार को ठोस सुझाव देने चाहिए ताकि गिरते भूजल स्तर को रोका जा सके और आने वाले समय में बढ़ने वाली पेयजल की आवश्यकताओं को पूरा किया जा सके।

- डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा

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