टीचरों को किस आधार पर इतनी सारी छुटि्टयां मिलनी चाहिए?

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टीचिंग प्रोफेशन में छुटि्टयां जितनी हैं यदि उनका प्रयोग सकारात्मक रूप में प्लानिंग और क्लास में इस्तेमाल की जा सकने वाली तैयारी के लिए की जाएं तो संभव है शिक्षा−शिक्षण में काफी हद तक चुनौतियां कम हो जाएं।

सरकार हमें पूरे साल की सैलरी देती है। हमें उन छुटि्टयों की भी सैलरी देती है जब हम काम पर नहीं होते हैं। स्पष्ट तौर पर बात टीचर की की जा रही है। टीचिंग प्रोफेशन में छुटि्टयां जितनी हैं यदि उनका प्रयोग सकारात्मक रूप में प्लानिंग और क्लास में इस्तेमाल की जा सकने वाली तैयारी के लिए की जाएं तो संभव है शिक्षा−शिक्षण में काफी हद तक चुनौतियां कम हो जाएं। एक प्रस्ताव है कि यदि अन्य प्रोफेशनों में छुटि्टयां कम मिलती हैं तो टीचिंग प्रोफेशन को क्यों अत्यधिक छुटि्टयां दी जानी चाहिए। टीचर के तर्क हो सकते हैं कि हम साल भर बच्चों को पढ़ाने में लगाते हैं। हम घर नहीं जा पाते। हमें घर भी जाना होता है। हम इन छुटि्टयों में अपने अन्य कार्यक्रमों को पूरा करते हैं आदि। क्या अन्य प्रोफेशन के लोग अपने घर नहीं जाते। क्या वे अपने अन्य कार्यक्रमों में हिस्सा नहीं लेते आदि। सामान्य तौर पर मान लिया जाता है कि टीचर समाज में एक महान काम कर रहा है। उन्हें एक माह की कम से कम पेड छुटि्टयां तो मिलनी चाहिए। लेकिन यहां एक और तर्क पर विचार करना ग़लत न होगा कि यदि टीचिंग महान कार्य है तो ऐसे में आपसे दोहरी जिम्मेदारी की अपेक्षा की जाती है। सरकार समय समय पर शिक्षा की गुणवत्ता को सुधारने, शिक्षा की बेहतरी के लिए कदम उठाती रही है। लेकिन अकेली सरकार कुछ नहीं कर सकती। हमें सरकार की मदद करने के लिए बेहर प्लानिंग, कार्यान्वयन की कार्ययोजना बना कर पेश करनी चाहिए।

टेक्स्ट बुक, करिकुलम आदि में रद्दो−बदल की जब योजना बनाई जाती है तब उसमें शिक्षकों की राय व सुझाव भी मांगे जाते हैं। इस बाबत विभिन्न अखबारों में विज्ञापनों द्वारा जानकारी दी जाती है। लेकिन अफसोसनाक हक़ीकत यह है कि नागर समाज के जिम्मेदार नागरिक उसमें दिलचस्पी ही नहीं लेते। शिक्षक भी इसमें शामिल हैं। जब तोहमत मढ़ने की बारी आती है तब शिक्षक भी इसमें पीछे नहीं रहते। उनका तर्क होता है कि हमसे तो राय ही नहीं ली गई। हमें तो बिना शामिल किए किताबें बना ली जाती हैं आदि। यदि शिक्षक पठन−पठान के इतर स्वयं को जोड़ना चाहते हैं तो उन्हें स्कूल के बाद भी शिक्षा को देने के लिए तैयार होना होगा। जो भी शिक्षक टेक्स्ट बुक लिखने से जुड़े हैं उन्होंने अपनी रातें, अपने दिन, अपनी छुटि्टयों की परवाह नहीं की है। स्कूल समय के बाद भी ऐसे शिक्षक रिसर्च और संस्थानों में अपनी भूमिका निभाते हैं।

तय सच है कि छुटि्टयां कई बार हमारी सृजनात्मकता और भीतरी उत्साह एवं जीवंतता का पुनर्निर्माण करती हैं। हम पूरे साल काम करते हैं। बीच में छुटि्टयों से वापस आने के बाद अपने काम में उत्साह से जुड़ जाते हैं। अब बात करने हैं टीचर कॉम्यूनिटी की। आप किसी भी टीचर से बात कर लें हमें यही सुनने को मिलता है कि छुटि्टया कम मिलीं। फलां काम रह गया। वह छूट गया आदि। कम से कम यह तो स्वीकार करें कि आपको छुट्टी मिली। आप उन लाखों कर्मचारियों से तो बेहतर हैं जिन्हें छुटि्टयां नहीं मिलीं। टीचिंग प्रोफेशन में आउटकम और आउटपुट की बात बहुत बाद में की जाती है। पहले तो इसकी भी बात कम ही होती थी। अब जोर−शोर से टीचर के परफारमेंस पर बात होने लगी है। सवाल यह भी उठने लगे हैं कि आखिर टीचर करते क्या हैं? निश्चित ही टीचर के कार्यों की जवाबदेही तय होनी चाहिए। हाल ही में वैश्विक शिक्षा निगरानी रिपोर्ट में यह बात उठाई गई है कि सरकार के साथ ही टीचर की जिम्मेदारी भी तय होनी चाहिए। यदि क्लास में बच्चे किसी भी कारण से पढ़ नहीं पा रहे हैं जो इसके लिए शिक्षक जिम्मदार होगा। महज सरकार को जवाबदेह ठहराकर हम नागर समाज की जिम्मेदारियों से पल्ला नहीं झाड़ सकते।

शिक्षकों को एक या डेढ़ माह की मिलने वाली छुटि्टयों की कार्ययोजना बनाने की आवश्कता है। हालांकि यह नया नहीं है। केंद्रीय विद्यालयों में कम से कम बीस दिन की कार्यशाला इन छुटि्टयों में आयोजित होती है जिसे हर टीचर के लिए अनिवार्य किया गया है। उसी प्रकार राज्य सरकारें भी योजनाएं बना रही हैं। मिशन बुनियाद उन्हीं पहलकदमियों में से एक है। हालांकि इस पहल की आलोचना टीचर समुदाय करने से पीछे नहीं हटता है कि छुटि्टयों में कार्यशाला या क्लास में जाना होगा। यहां एक तर्क पर विचार करना अन्यथा न होगा कि जब स्कूल चला करते हैं, बच्चों को पढ़ाना होता है तब साथ और जैसा कि टीचर समुदाय कहा करते हैं उन्हें गैर शैक्षणिक कार्य करने होते हैं। तो क्यों न इन छुटि्टयों में शैक्षिक कार्य किए जाएं। क्यों न शिक्षक बेशक पूरे दिन के लिए स्कूल न आएं किन्तु दो से तीन घंटे स्कूल में आएं और आगामी सत्र के लिए तैयारी करें। इन एक या डेढ़ माह की छुटि्टयों में काम करने का लोचपन होना चाहिए।

यदि कोई इन दिनों में या तो टीचर एक साथ पंद्रह या बीस दिन लगातार स्कूल में काम करें या फिर अपनी व्यस्तता को देखते हुए पंद्रह या बीस दिन कभी भी आ सकते हैं। प्लानिंग के स्तर पर किया जा सकता है। किस प्रकार की कार्य−योजना हो या किस प्रकार के एप्रोचक करने हैं इस पर रणनीति बनाई जा सकती है। 

पहले पहल यदि टीचर को इन दिनों बुलाने व काम सौंपने की बात आएगी तो विरोध किए जाएंगे। विरोध के लिए तैयार होना होगा। हां विकल्प यह हो सकता है कि टीचर से इस मसले पर राय बनाई जाए कि अपनी सहजता और उपलब्धता के अनुसार अपने लिए कार्य दिवस का चुनाव करें। टीचर की ओर से यह भी शिकायत आ सकती है बल्कि आती हैं कि ऐसी गरमी के माहौल कोई कैसे काम कर सकता है। तो इस शिकायत को तो दूर भी किया जा सकता है। क्लास व शिक्षकों के बैठने के कमरे में एक या दो कूलर के इंतज़ाम किए जा सकते हैं। जब विभिन्न शैक्षिक गतिविधियों में पैसे खर्च किए जा सकते हैं तो स्कूल में शिक्षक काम करें इसके लिए ऐसे कमरे उपलब्ध कराना कहीं से भी अनुचित नहीं लगता। बतौर प्रबंधन की दृष्टि से देखें तो यह कोई बहुत मुश्किल काम नहीं है। मैनेजमेंट में रिस्क का अनुमान लगाना, प्रोजेक्ट को प्रभावित करने वाले तत्वों को कैसे रिजॉल्व करना आदि पर ध्यान दिया जाता है। तभी कोई भी प्रोजेक्ट सफल होता है। वरना लाखों करोड़ों रुपए खर्च करने के बावजूद भी प्रोजेक्ट समय पर पूरे नहीं होते। यही स्थिति कुछ कुछ शिक्षा क्षेत्र की भी है। कोई भी साल ऐसा नहीं जाता जब करोड़ों रुपए का आवंटन किया जाता है फिर क्या वजह है मिशन बुनियाद, एजूकेशन फार ऑल आदि विफल हो जाते हैं। सीधी सी बात है कि जब तक टीचर, नीति निर्माता, रणनीतिकार एक मंच पर बिना किया आरोप प्रत्यारोप के काम नहीं करेंगे तब तक शिक्षा के साथ बेहतर होगा इसकी उम्मीद कम बनती है।

-कौशलेंद्र प्रपन्न

(शिक्षा एवं भाषा पैडागोजी एक्सपर्ट)

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