आंदोलन की आड़ में उपद्रव मचाने वालों पर सख्त कार्रवाई जरूरी

Strict action must be taken against those who cause fissures under the agitation
फ़िरदौस ख़ान । Apr 23 2018 10:56AM

जनतंत्र में, लोकतंत्र में जनता को ये अधिकार होता है कि वह अपनी मांगों के समर्थन में, अपने अधिकारों की रक्षा के लिए आंदोलन कर सकती है, सरकार की ग़लत नीतियों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठा सकती है।

जनतंत्र में, लोकतंत्र में जनता को ये अधिकार होता है कि वह अपनी मांगों के समर्थन में, अपने अधिकारों की रक्षा के लिए आंदोलन कर सकती है, सरकार की ग़लत नीतियों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठा सकती है। लेकिन आंदोलन के दौरान, प्रदर्शन के दौरान हिंसा करने की इजाज़त किसी को भी नहीं दी जा सकती। सरकार को भी ये अधिकार नहीं है कि वे शांति से किए जा रहे आंदोलन को कुचलने के लिए किसी भी तरह के बल का इस्तेमाल करे। बल्कि सरकार की ये ज़िम्मेदारी होती है कि वह आंदोलन कर रहे प्रदर्शनकारियों को सुरक्षा मुहैया कराए। इस बात का ख़्याल रखे कि कहीं इस आंदोलन की आड़ में असामाजिक तत्व कोई हंगामा खड़ा न कर दें। अगर आंदोलन में किसी भी तरह की हिंसा होती है, तो उस पर क़ाबू पाना, उसे रोकना भी सरकार की ही ज़िम्मेदारी है। लेकिन केंद्र की बहुमत वाली भारतीय जनता पार्टी की मज़बूत सरकार इस मामले में बेहद कमज़ोर साबित हो रही है।

हाल में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अधिनियम पर सर्वोच्च न्यायालय के फ़ैसले को लेकर पहले दलितों ने भारत बंद किया था। उसके बाद सर्वणों ने आरक्षण के ख़िलाफ़ जवाबी आंदोलन शुरू कर दिया। ग़ौरतलब है कि पिछले दिनों सर्वोच्च न्यायालय ने अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम के दुरुपयोग पर चिंता ज़ाहिर करते हुए गिरफ़्तारी और आपराधिक मामला दर्ज किए जाने पर रोक लगा दी थी। क़ाबिले-ग़ौर है कि अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लोगों के साथ होने वाले भेदभाव को ख़त्म करने और उन्हें इंसाफ़ दिलाने के लिए अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निरोधक) अधिनियम लाया गया था। संसद द्वारा अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निरोधक) अधिनियम को 11 सितम्बर, 1989 को पारित किया था। इसे 30 जनवरी, 1990 से जम्मू कश्मीर को छोड़कर पूरे में लागू किया गया। यह अधिनियम उस हर व्यक्ति पर लागू होता है, जो अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति का सदस्य नहीं है और वह इस तबक़े के सदस्यों का उत्पीड़न करता है। इस अधिनियम में पांच अध्याय और 23 धाराएं शामिल हैं। इस क़ानून के तहत किए गए अपराध ग़ैर- ज़मानती, संज्ञेय और अशमनीय हैं। यह क़ानून अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लोगों पर अत्याचार करने वालों को सज़ा देता है। यह पीड़ितों को विशेष सुरक्षा और अधिकार देता है और मामलों के जल्द निपटारे के लिए अदालतों को स्थापित करता है। इस क़ानून के तहत भारतीय दंड संहिता में शामिल क़ानूनों में ज़्यादा सज़ा दिए जाने का प्रावधान है। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों के सदस्यों पर होने वाले अमानवीय और अपमानजनक बर्ताव को अपराध माना गया है। इनमें उन्हें जबरन अखाद्य पदार्थ मल, मूत्र इत्यादि खिलाने, उनका सामाजिक बहिष्कार करने जैसे कृत्य अपराध की श्रेणी में शामिल किए गए हैं। अगर कोई व्यक्ति किसी अनुसूचित जाति/ अनुसूचित जनजाति के सदस्य से कारोबार करने से इनकार करता है, तो इसे आर्थिक बहिष्कार माना जाएगा। इसमें किसी अनुसूचित जाति/ अनुसूचित जनजाति के सदस्य के साथ काम करने या उसे काम पर रखने/नौकरी देने से इनकार करना, इस तबक़े के लोगों को सेवा प्रदान न करना या उन्हें सेवा प्रदान नहीं करने देना आदि इसमें शामिल हैं।

लेकिन सर्वोच्च न्यालाय के फ़ैसले से दलितों पर अत्याचार करने वाले लोगों की गिरफ़्तारी बेहद मुश्किल हो जाएगी, क्योंकि सरकारी कर्मचारी या अधिकारी की गिरफ़्तारी के लिए उसके नियोक्ता की मंज़ूरी लेना ज़रूरी है। अगर दोषी सरकारी कर्मचारी या अधिकारी नहीं है, तो एसएसपी स्तर के पुलिस अधिकारी की सहमति के बाद ही उसकी गिरफ़्तारी हो सकेगी। इतना ही नहीं, अदालत ने अग्रिम ज़मानत का भी प्रावधान कर दिया है और एफ़आईआर दर्ज करने से पहले शुरुआती जांच को भी ज़रूरी कर दिया है। यानी दलितों पर अत्याचार के मामले में आरोपी की गिरफ़्तारी और उन पर कोई मामला दर्ज करना बहुत ही मुश्किल हो जाएगा। ऐसी हालत में दलितों पर अत्याचार के मामलों में इज़ाफ़ा होगा, इसमें कोई दो राय नहीं है। सख़्त क़ानून होने के बावजूद आए दिन देश के किसी न किसी हिस्से से दलितों के साथ अमानवीय बर्ताव करने के मामले सामने आते रहते हैं। अब जब क़ानून ही कमज़ोर हो जाएगा, तो हालात बद से बदतर होने में देर नहीं लगेगी।  

ये भी बेहद अफ़सोस की बात है कि आंदोलन न सिर्फ़ उग्र रूप धारण कर रहे हैं, बल्कि अमानवीयता की भी सारी हदें पार कर रहे हैं। बंद के दौरान कई जगह हिंसा की वारदातें हुईं। आगज़नी हुई, दुकानें जलाई गईं, वाहन फूंके गए, फ़ायरिंग हुई। लोग ज़ख़्मी हुए, कई लोगों की जानें चली गईं। मरने वालों में पुलिस वाले भी शामिल थे, जो अपनी ड्यूटी कर रहे थे। जगह-जगह रेलें रोकी गईं, पटरियां उखाड़ दी गईं। चक्का जाम किया गया। रास्ते बंद कर दिए गए। किसी को इस बात का ख़्याल भी नहीं आया कि बच्चे स्कूल से कैसे सही-सलामत घर लौटेंगे ? जो लोग सफ़र में हैं, वे कैसे अपने घरों को लौटेंगे या गंतव्य तक पहुंचेंगे? इस झुलसती गरमी में रेलों में बैठे यात्री बेहाल हो गए। बच्चे भूख-प्यास से बिलखते रहे। जो लोग बीमार थे, अस्पताल तक नहीं पहुंच पाए। अमानवीयता की हद ये रही कि बिहार के हाजीपुर में एंबुलस में बैठी महिला अपने बीमार बच्चे की ज़िन्दगी का वास्ता देती रही, प्रदर्शनकारियों के आगे हाथ जोड़ती रही, मिन्नतें करती रही, लेकिन किसी को उस पर तरस नहीं आया। किसी ने एंबुलेंस को रास्ता नहीं दिया, नतीजतन इलाज के अभाव में एक बच्चे की मौत हो गई, एक मां की गोद सूनी हो गई।

देश में बंद के दौरान हालात इतने ख़राब हो गए कि सेना बुलानी पड़ी। कई जगह कर्फ़्यू लगाया गया, जिससे रोज़मर्राह की ज़िन्दगी बुरी तरह मुतासिर हुई। आंदोलन के दौरान न सिर्फ़ सरकारी संपत्ति को नुक़सान पहुंचाया गया, बल्कि निजी संपत्तियों को भी नुक़सान पहुंचाया गया। आंदोलनकारी जिस सरकारी संपत्ति को नुक़सान पहुंचाते हैं, वे जनता की अपनी संपत्ति है। ये संपत्ति जनता से लिए गए कई तरह के करों से ही बनाई जाती है। यानी इसमें जनता की ख़ून-पसीने की कमाई शामिल होती है। सरकार इस नुक़सान को पूरा करने के लिए जनता पर करों का बोझ और बढ़ा देती है। जिन लोगों की निजी संपत्ति को नुक़सान पहुंचता है, वे ताउम्र उसकी भरपाई करने में गुज़ार देते हैं। आबाद लोग बर्बाद हो जाते हैं। ये सच है कि कोई भी आंदोलन एक न एक दिन ख़त्म हो ही जाता है। उस आंदोलन से हुई माली नुक़सान की भरपाई भी कुछ बरसों में हो ही जाती है, लेकिन किसी की जान चली जाए, तो उसकी भरपाई कभी नहीं हो पाती।

दरअसल, देश में किसी भी तरह की हिंसा के लिए सरकार की सीधी जवाबदेही बनती है। देश में चैन-अमन क़ायम रखना, जनमानस को सुरक्षित रखना, उनके जान-माल की सुरक्षा करना सरकार की ही ज़िम्मेदारी है। सरकार के पास पुलिस है, सेना है, ताक़त है, इसके बावजूद अगर हिंसा होती है, तो इसे सरकार की नाकामी ही माना जाएगा। शासन और प्रशासन दोनों ही इस मामले में नाकारा साबित हुए हैं। केंद्र सरकार न तो दलितों के अधिकारों की रक्षा कर पा रही है और न ही क़ानून व्यवस्था को सही तरीक़े से लागू कर पा रही है। ऐसी हालत में जनता किसे पुकारे?

-फ़िरदौस ख़ान

(लेखिका स्टार न्यूज़ एजेंसी में संपादक हैं)

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