JNU के छात्र अब कक्षाओं से आजादी की मांग कर रहे
JNU विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों की शिकायत है कि उन्हें कक्षा की चारदिवारी में क्यों बांधा जा रहा है। विद्यालय जो शिक्षा के मंदिर, ज्ञान और विज्ञान के अनुसंधान केंद्र माने जाते हैं वह इन विद्यार्थियों की नजरों में बंदिश हैं।
जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों की शिकायत है कि उन्हें कक्षा की चारदिवारी में क्यों बांधा जा रहा है। विद्यालय जो शिक्षा के मंदिर, ज्ञान और विज्ञान के अनुसंधान केंद्र माने जाते हैं वह इन विद्यार्थियों की नजरों में बंदिश हैं। आजकल इसी तरह की अटपटी बातों को लेकर देश के श्रेष्ठ विश्वविद्यालयों में शामिल जेएनयू एक बार फिर चर्चा में है। फिर एक बार आजादी के नारे गूंज रहे हैं, अंतर इतना है कि पहले भारत से आजादी मांगी गई थी अब कक्षाओं से मांगी जा रही है। पहले भारत के टुकड़े करने की मन्नत मानी गई थी अब शिक्षक और शिक्षार्थियों की मर्यादाओं को टुकड़े-टुकड़े किया जा रहा है।
बीते गुरुवार 15 फरवरी को जेएनयू के हजारों छात्र विश्वविद्यालय प्रशासनिक भवन के सामने सुबह से देर रात तक नारे लगाते रहे। यह विरोध विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के उस निर्णय के विरुद्ध है जिसमें छात्रों को 75 प्रतिशत उपस्थिति अनिवार्य रूप से पूरा करने को कहा गया है। इसको लेकर विद्यार्थियों ने खूब प्रदर्शन किया। चाहे प्रदर्शनकारी आरोपों को नकारते हैं परंतु बताया जाता है कि उन्होंने विश्वविद्यालय के कुलपति एम. जगदीश कुमार सहित अन्य प्रशासनिक अधिकारियों को पूरे प्रदर्शन के दौरान भवन से बाहर नहीं निकलने दिया। इस मानवीय मांग की भी अनदेखी कर दी गई कि कुछ अधिकारी आयु जनिक बीमारियों से पीड़ित हैं। प्रदर्शनकारी कुलपति से मांगों को लेकर मिलने की बात कह रहे थे तो दूसरी तरफ रजिस्ट्रार डॉ. प्रमोद कुमार ने पहले भीड़ हटाने की शर्त रखी। प्रदर्शनकारियों का कहना है कि जेएनयू में पहले इस तरह के नियम नहीं रहे हैं। छात्र और शिक्षक एक संजीदा माहौल में पठन-पाठन करते रहे हैं। कुलपति यहां के 'ओपन नॉलेज फ्लो' अर्थात मुक्त ज्ञान प्रवाह की संस्कृति को नष्ट कर छात्रों को कक्षा के भीतर कैद रखने का षड्यंत्र कर रहे हैं।
वैसे मुक्त ज्ञान प्रवाह से किसी को कोई आपत्ति नहीं, बशर्ते इसको सही अर्थों में लागू किया जाए। परंतु यहां का तो मंजर ही निराला लगता है। राजस्थान से विधायक ज्ञानदेव अहूजा की मानी जाए तो यहां हर रोज सफाई सेवकों को हजारों की संख्या में प्रयुक्त निरोध, शराब की खाली बोतलें, बीड़-सिगरेटों के टुकड़े व पैकेट, हड्डियों के टुकड़े मिलते हैं। कहने का भाव कि कई विद्यार्थियों के मुक्त ज्ञान प्रवाह में शराब, शबाब और कबाब का खूब दौर चलता है। यहां अकसर आरोप लगता है कि कुछ नेता किस्म के युवा किसी न किसी तरह विश्वविद्यालय में प्रवेश पा लेते हैं और दस-पंद्रह सालों तक जानबूझ कर फेल हो कर यहां जमे रहते हैं। छात्रावासों में राजनीतिक दलों के कार्यालय की तरह काम चलता है। जनता के गाढ़े खून-पसीने की कमाई सब्सिडी के रूप में इन मुक्त ज्ञान के साधकों पर स्वाह की जाती है। जब जिन छात्रों को पास होने की चिंता नहीं, कॅरियर बनाने व आगे बढ़ने का कोई बोझ नहीं तो आखिर वो क्यों जाएंगे कक्षा में फालतू में समय बर्बाद करने। इसी तरह के नेता किस्म के विद्यार्थी बाकी विद्यार्थियों को भी बहकाते हैं और उनका जीवन बर्बाद करते हैं।
यह पहला मौका नहीं है जब छात्रों ने कुलपति के फैसले के विरोध किया हो। 9 फरवरी, 2016 को विश्वविद्यालय परिसर में लगे देशविरोधी नारों के बाद पूरे देश में इस बात की जरूरत महसूस की गई कि युवाओं में देशभक्ति की भावना का संचार करने, सेना के प्रति सम्मान पैदा करने की दिशा में काम करने की जरूरत है। सेवानिवृत लेफ्टिनेंट जनरल निरंजन सिंह की अगुवाई में आठ सैनिकों ने कुलपति से मुलाकात कर माहौल बदलने की मांग की थी। इसको लेकर यहां के परिसर में टैंक लगाने की मांग की बात चली तो वामपंथी संगठनों व इस सोच के बुद्धिजीवियों ने इसका खूब विरोध किया।
जेएनयू छात्र संघ की वर्तमान उपाध्यक्ष सिमॉन जोया खान को तो इस बात से भी आपत्ति है कि परिसर में राष्ट्रवादी गतिविधियां बढ़ रही हैं। वे कहती हैं कि आज के माहौल में सरकार के खिलाफ कुछ भी बोलने के देशद्रोह ठहरा दिया जाता है। यही कारण है कि पिछले कुछ सालों से जेएनयू को राष्ट्रवादी गतिविधियां बढ़ी हैं। वो कहती हैं, जेएनयू में पिछले साल पहली बार करगिल विजय दिवस मनाया गया, विश्वविद्यालय के मुख्यद्वार से रंगभवन तक 2200 फीट के झंडे के साथ तिरंगा मार्च निकाला गया। वे कहती हैं कि कक्षाओं के बाहर खुले में पठन-पाठन का आयोजन हो रहा है। इससे पहले जेएनयू में कभी भी ग्रेजुएट, पोस्ट ग्रेजुएट और रिसर्च कोर्स में कक्षाएं अनिवार्य नहीं रही हैं। बावजूद इसके विश्वविद्यालय रैंक के मामले में अग्रणी रहा है। रोचक बात है कि इस तरह सोचने वालों में केवल युवा छात्र ही नहीं बल्कि परिपक्व बौद्धिक योग्यता वाले कुछ अध्यापक भी हैं जो इन विद्यार्थियों को सही भी बता रहे हैं।
अब सोचने वाली बात है कि किसी देश के किसी भी हिस्से में सेना के प्रति सम्मान पैदा करने के प्रयास में टैंक स्थापित करना, सेना के गौरवशाली इतिहास से जुड़ा करगिल विजय दिवस मनाना और तिरंगा यात्रा निकालना आपत्तिजनक कैसे हो गया ? कक्षाओं में उपस्थिति सुनिश्चित करना विद्यार्थी स्वतंत्रता पर प्रहार किस आधार पर माना जाए ? विद्यार्थी अगर कक्षा में न जाएं तो उसका अध्ययनस्थल कहां होना चाहिए ? विश्वविद्यालय में अनुशासन लाना किसी की स्वतंत्रता में बाधा कैसे कहा जाए ? विश्वविद्यालय के प्रशासनिक निर्णयों पर विद्यार्थियों को हस्तक्षेप करने का अधिकार किसने दिया ? विश्वविद्यालय के रजिस्ट्रार ने भी प्रेस विज्ञप्ति में छात्रों के आंदोलन को अवैध बताया है और कहा है कि प्रदर्शनकारी विश्वविद्यालय के नियमों और प्रतिबंधित क्षेत्र में प्रदर्शन कर दिल्ली उच्च न्यायालय के आदेश का उल्लंघन कर रहे हैं। आखिर वह कौन सी सोच है जो हमारे ही युवाओं को अपने ही देश के खिलाफ भड़का रही है और पैर पर कुल्हाड़ी मारने को प्रोत्साहित कर रही है। समय की मांग है कि इस विकृत सोच के जिम्मेवार लोगों को समाज के सामने लाना ही होगा।
-राकेश सैन
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