बाजारवाद के प्रलोभन ने शिक्षक की छवि को भी पहुँचाया है नुकसान

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बाजारवाद के प्रलोभन ने शिक्षक की छवि को भी चोटिल करने का प्रयास किया है। धनलोलुपता और चकाचौंध ने शिक्षक को सम्मोहित किया है। कुटिया में दी जाने वाली शिक्षा अब बड़े-बड़े बिल्डिंग के वतानुकूलित कमरों में दी जाने लगी है।

समाज की नवचेतना को आकार एवं दिशा देने में शिक्षक की भूमिका अहम होती है। शिक्षक समाज का दर्पण व निर्माण वाहक है। नवशिशु नामक कोपल जब इस संसार जगत में प्रवेश करता है, तो उस समय वह परिवार की पाठशाला में मां नामक शिक्षक से संस्कार व व्यवहार की तालीम ग्रहण करता है। यह कहें तो भी अतिश्योक्ति नहीं होगी कि सिखाने वाला व सीख देने वाला हर प्राणी शिक्षक है। शिक्षक वह पुंज है जो अज्ञान के तमस को मिटाकर जीवन में ज्ञान की ज्योति प्रज्ज्वलित करता है। वह आफ़ताब है जिसके पास ज्ञान का प्रकाश है। वह समंदर है जिसके पास ज्ञानरूपी अमृत का अथाह जल है। जिसका कभी क्षय मुमकिन नहीं है। शिक्षक को समाज में सदैव ही सर्वश्रेष्ठ पद पर रखकर उसकी बुद्धिमता का सम्मान किया गया है। बड़े-बड़े राजाओं के मस्तक शिक्षक के चरणों में नत-मस्तक हुए हैं। 

यदि प्राचीन समय की बात की जाये तो शिक्षक के आश्रम में रहकर ही राजकुमार अपना जीवन विकसाते थे। आश्रम में ही उनकी शिक्षा-दीक्षा संपन्न होती थी। हमारे वेद-ग्रंथों में शिक्षक को साक्षात ब्रह्मा, विष्णु व महेश की संज्ञा दी गई है। शिक्षक समाज की धुरी है जिसके मार्गदर्शन में देश का निर्माण करने वाला भविष्य सुशिक्षित व प्रशिक्षित होता है। नरेंद्र को स्वामी विवेकानंद बनाने वाले व शिवा (शंभू) को छत्रपति शिवाजी बनाने वाले शिक्षक स्वामी रामकृष्ण परमहंस व समर्थ गुरु रामदास ही थे। चाणक्य जैसे शिक्षक के आक्रोश ने चन्द्रगुप्त मौर्य का निर्माण कर घनानंद के अहंकार का मर्दन कर दिया था। शिक्षक की प्रेरणा और ज्ञान से पत्थर पारस बने हैं। शिक्षक केवल किताबी शिक्षा ही नहीं देता अपितु जिंदगी जीने की कला सिखाने का भी काम करता है। अपना भारत देश सदैव से ही शिक्षकों की खान रहा है। इस देश में कई शिक्षक ऐसे हुए जिन्होंने अपनी शिक्षण कला के माध्यम से नगीने तैयार कर अपना गौरव बढ़ाया है। 

भारत में शिक्षक दिवस मनाने की भूमिका कुछ इस तरह बंधी कि स्वतंत्र भारत के पहले उपराष्ट्रपति जब 1962 में राष्ट्रपति बने तब कुछ शिष्यों एवं प्रशंसकों ने उनसे निवेदन किया कि वे उनका जन्मदिन शिक्षक दिवस के रूप में मनाना चाहते हैं। तब डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी ने कहा कि- ''मेरे जन्मदिवस को शिक्षक दिवस के रूप में मनाने से मैं अपने आप को गौरवान्वित महसूस करूंगा।'' तभी से 5 सितंबर को ''शिक्षक दिवस'' के रूप में मनाया जाने लगा। डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन की मान्यता थी कि यदि सही तरीके से शिक्षा दी जाए तो समाज की अनेक बुराइयों को मिटाया जा सकता है। भारत ही नहीं बल्कि विश्व में भी अलग-अलग दिन शिक्षक दिवस मनाया जाता है। मसलन- चीन में 1931 में शिक्षक दिवस की शुरूआत की गई थी और बाद में 1939 में कन्फ्यूशियस के जन्मदिन 27 अगस्त को शिक्षक दिवस घोषित किया गया लेकिन 1951 में इसे रद्द कर दिया गया। फिर 1985 में 10 सितम्बर को शिक्षक दिवस घोषित किया गया लेकिन वर्तमान समय में ज्यादातर चीनी नागरिक चाहते हैं कि कन्फ्यूशियस का जन्मदिन ही शिक्षक दिवस हो। इसी तरह रूस में 1965 से 1994 तक अक्टूबर महीने के पहले रविवार के दिन शिक्षक दिवस मनाया जाता था। जब साल 1994 से विश्व शिक्षक दिवस 5 अक्टूबर को मनाया जाना शुरू हुआ तब इसके साथ समन्वय बिठाने के लिये इसे इसी दिन मनाया जाने लगा।

दौर बदलने के साथ शिक्षक के रंग-रूप, रहन-सहन व वेशभूषा में काफी बदलाव देखने को मिला है। पहले शिक्षक आश्रम में वैदिक शिक्षा देते थे, तो अब शिक्षक आधुनिक शिक्षा कक्षाकक्ष में देने लगे हैं। गुरु-दक्षिणा की जगह हर महीने फीस दी जाने लगी है। शिक्षकों के नाम भी अब 'टीचर' व 'सर' हो गये हैं। काफी कुछ बदलाव शिक्षक के आचरण में देखने को मिल रहा है। बाजारवाद के प्रलोभन ने शिक्षक की छवि को भी चोटिल करने का प्रयास किया है। धनलोलुपता और चकाचौंध ने शिक्षक को सम्मोहित किया है। कुटिया में दी जाने वाली शिक्षा अब बड़े-बड़े बिल्डिंग के वतानुकूलित कमरों में दी जाने लगी है। शिक्षक के रूप में शिक्षा का सौदा करने वाले सौदागर पनपने लग गये हैं। स्कूल सीखने की जगह न होकर मोल भाव के किराना स्टोर में परिवर्तित हो चुके हैं। पैसे देकर मनचाही डिग्री खरीदी जा सकती है। ऐसे संक्रमण काल में शिक्षक की सही पहचान धूमिल होती जा रही है। लोगों की गलत अवधारणा यह कहते पायी गई कि शिक्षक कौन बनता है? शिक्षक जैसे महत्वपूर्ण इकाई को काल का ग्रास लग गया है। विगत सालों में घटित कई घटनाओं ने शिक्षक के चरित्र पर प्रश्नचिन्ह लगाये हैं। बिहार टॉपर्स घोटाले ने शिक्षक की बदलती मानसिकता का परिचय दिया है। दरअसल, ऐसे लोगों को शिक्षक कहना शिक्षक का अपमान करना ही होगा। यह कथित शिक्षक के वेश में वे दलाल हैं जो शिक्षा का करोबार करके गुनाह को अंजाम देते है। ऐसे लोग शिक्षक कहलाने के कथ्य ही हकदार नहीं है।

बिलकुल ऐसी बात भी नहीं है कि अच्छे शिक्षक खत्म हो गये हैं। आज भी कई ऐसे शिक्षक हैं जो सेवानिवृत्ति के बाद भी स्कूलों में निःशुल्क शिक्षा दे रहे हैं। सुदूर इलाकों में जाकर बालपीढ़ी को शिक्षित करने का बीड़ा उठाये हुए है। ऐसे शिक्षकों में पहला नाम आता है केरल के मल्लापुरम् के पडिजट्टुमारी के मुस्लिम लोअर प्राइमरी स्कूल के गणित के 42 वर्षीय अध्यापक अब्दुल मलिक का। बीते 20 वर्षों से वे स्कूल तैर कर जाते और आते हैं। एक और तरीका है उनके पास स्कूल पहुंचने का सड़क मार्ग। पर सड़क मार्ग से 24 किलोमीटर लंबी यात्रा में खराब होने वाले समय को बचाने के लिए अब्दुल मलिक प्रतिदिन अपने घर से स्कूल और स्कूल से वापस घर तैरकर जाते हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि उन्होंने आज तक अपने स्कूल से एक दिन की भी छुट्टी नहीं ली है। इसके अलावा अब्दुल एक बड़े पर्यावरण प्रेमी भी हैं। 

इसी तरह एक ओर शिक्षक है जिनका नाम आलोक सागर है, जो आदिवासियों की जीवनशैली बदल रहे हैं। इनका जन्म 20 जनवरी 1950 को दिल्ली में हुआ था। उन्होंने 1966-71 में आईआईटी दिल्ली से बी. टेक किया और फिर वहीं से 1971-73 में एम. टेक की डिग्री पूरी की। उसके बाद वो पीएचडी करने के लिए राइज यूनिवर्सिटी ह्यूस्टन चले गए। पीएचडी करने के बाद करीब डेढ़ साल तक यूएस में जॉब की पर आखिर देश की मिट्टी की खुशबू इन्हें वापिस भारत ले आई। वहां से आने के बाद एक साल तक आईआईटी दिल्ली में पढ़ाया। उसी दौरान इन्होंने पूर्व आरबीआई गवर्नर रघुराम राजन को भी पढ़ाया था। करीब 90 के दशक में आदिवासी श्रमिक संघठन के अपने साथियों के साथ मध्य प्रदेश आ गए थे, आलोक जी फिलहाल कोचामू नामक गाँव जो की मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल से लगभग 165 किलोमीटर दूरी पर स्थित है, यही इनका ठिकाना है। उन्होंने यहाँ करीब 50000 से ज्यादा पौधे लगाए हैं, साथ ही फलदार पौधे लगाकर गाँव में लोगों को गरीबी से लड़ने में मदद कर रहे हैं। भारत में ऐसे आदर्श व प्रेरणादायी शिक्षकों की सूची काफी लंबी है। यह सब वे शिक्षा के कुलदीपक है जो जग को अपनी रोशनी से रोशन कर रहे हैं। ऐसे शिक्षक ही वास्तविक मायनों में सम्मान के असल हकदार हैं। इनके लिए शिक्षक होने का अर्थ जीवन की अंतिम सांस तक ज्ञान की ज्योति जलाये रखना है। ऐसे महान शिक्षकों को याद करने का खास दिन 5 सितंबर है। 

यह हमारे देश की विडम्बना है कि मनुष्य को गढ़ने वाले पेशे और पद का आकलन उस ढंग से नहीं किया जाता, जितना पदार्थों को आकृति देने वाले पेशों को। आज शिक्षक दिवस पर स्वीकारने योग्य तथ्य यही है कि शिक्षक संस्कृति के उस तंतु को जोड़े रखने के लिए आगे आयें, जिसके बल पर राष्ट्र को चरित्रवान व्यक्तित्व दिये जा सके। स्वयं को मात्र ट्यूटर और टीचर की भूमिका में ही कैद न करें, तो अच्छा होगा और उस महान आत्मा के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि भी यही होगी कि उनके विचारों को आत्मसात करते हुए शिक्षक राष्ट्र की महत्ता समझें, जिसमें उन्होंने कहा था- ‘अध्यापन वृत्ति को व्यापार में निम्न स्तर पर नहीं उतारना चाहिए। यह तो एक मिशन है। अध्यापकों का कर्त्तव्य है कि वे अपने शिष्यों को लोकतंत्र के सच्चे नागरिक बनायें।’ 

-देवेंद्रराज सुथार

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