पार्टियों के लिए बड़े थे जो नेता, मतदाताओं ने उन्हें घर बिठा दिया
भारतीय राजनीति में मतदाताओं के सामने राजनीतिक दल हमेशा नौसीखिए साबित हुए हैं। राजनीतिक दल जिन नेताओं को वरिष्ठ और पार्टी के लिए महत्वपूर्ण मानते रहे, अनेक मौकों पर चुनावों में मतदाताओं ने उन्हें घर का रास्ता दिखाया है।
भारतीय राजनीति में मतदाताओं के सामने राजनीतिक दल हमेशा नौसीखिए साबित हुए हैं। राजनीतिक दल जिन नेताओं को वरिष्ठ और पार्टी के लिए महत्वपूर्ण मानते रहे, अनेक मौकों पर चुनावों में मतदाताओं ने उन्हें घर का रास्ता दिखाया है। इसके बावजूद राजनीतिक दल अपने नेताओं की हैसीयत को नहीं तौलते। जबकि मतदाता तौलने में रत्ती भर भी ऊंच−नीच नहीं करते। गुजरात और हिमाचल विधान सभा चुनाव इसका नया उदाहरण है। जिन नेताओं को वरिष्ठ मानते हुए पार्टी ने सिर−आंखों पर बिठाया, मतदाताओं ने अपने फैसलों से उन्हें धूल चटा दी। लगभग सभी राजनीतिक दल मतदाताओं की नब्ज पहचानने में विफल रहे हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो दलों ने दलदल की राजनीति में मतदाताओं को लपेटने का पुरजोर प्रयास किया है। मतदाताओं ने हर बार पार्टियों के फैसलों को आईना दिखाया है।
हिमाचल प्रदेश में मुख्यमंत्री के दावेदार भाजपा के प्रेम कुमार धूमल को मतदाताओं ने विधायक लायक भी नहीं समझा। मतदाताओं ने प्रदेशाध्यक्ष सतपाल सिंह सत्ती का औहदा भी नहीं देखा। सत्ती भी हार गए। पार्टी ने जिनको ज्यादा भाव दिया, मतदाताओं ने उन्हें नकार दिया। मतदाताओं ने नेताओं को यह समझाने में भी कसर बाकी नहीं रखी कि सत्ता किसी भी नेता या पार्टी की बपौती नहीं है। हिमाचल में ही आठ बार विधायक और पांच बार मंत्री रहे कांग्रेस के कौल सिंह ठाकुर को पराजय का मुंह देखना पड़ा। यही हाल गुजरात में हुआ। कांग्रेस ने जिसे प्रदेशाध्यक्ष का ताज पहनाया, मतदाताओं ने उन्हें विधायक लायक भी नहीं समझा। प्रदेशाध्यक्ष अर्जुन मोठवादिया को लगातार दूसरी बार हार का मुंह देखना पड़ा। पहली बार हारने पर कांग्रेस का भ्रम नहीं टूटा। मतदाताओं ने फिर समझा दिया कि संगठन के लिए कोई व्यक्ति महत्वपूर्ण होगा, उनके लिए कतई नहीं। पार्टी ने जिसे वरिष्ठ और दमदार मानते हुए नेता प्रतिपक्ष का दर्जा दिया, मतदाताओं ने उसे विधान सभा की सदस्यता से वंचित कर अपना फैसला सुनाया। नेता प्रतिपक्ष शक्ति सिंह को मात खानी पड़ गई। इसी तरह पूर्व मुख्यमंत्री चिमनभाई पटेल के पुत्र सिद्धार्थ पटेल को भी भाजपा टिकट पर हार का सामना करना पड़ा।
ये चंद उदाहरण हैं उस भारतीय राजनीति में गलतफहमी पाले रखने के, जिनकी राजनीतिक समझ को दुरूस्त करने का काम मतदाताओं ने किया है। दुर्भाग्य यह है कि मतदाताओं ने आजादी के बाद हर चुनाव में लगातार परिपक्वता का परिचय दिया। सत्ता को सेवा के बजाए घर की खेती समझने वाले कई नेताओं को परिवार सहित घर बिठा दिया। इसके बावजूद नेता और राजनीतिक दल सबक सीखने को तैयार नहीं हुए। बिहार में लालू परिवार, उत्तर प्रदेश में मुलायम परिवार, मायावती और अजीत सिंह, हरियाणा में चौटाला परिवार और पंजाब में बादल परिवार जैसी वंशावली वाले नेताओं को मतदाताओं ने अच्छा पाठ पढ़ाया। उत्तर प्रदेश में जात−पांत, धर्म, सम्प्रदाय और नेताओं की वरिष्ठता को नकराते हुए भाजपा के हाथों में कमान थमाई। कमोबेश यही हालत हरियाणा और पंजाब के चुनावों में हुई। परिवार, वंश और जाति के जरिए वोटों के जुगाड़ का गुमान पाले नेताओं की आंखों से मतदाताओं ने जाले हटा दिए।
हिमाचल और गुजरात या इससे पहले हुए चुनावों में मतदाताओं ने जिस तरह विवेक सम्मत तरीके से अपना फैसला सुनाया है, उससे जाहिर है कि भारतीय लोकतंत्र का भविष्य न केवल उज्ज्वल है बल्कि मतदाताओं को कमजोर आंकने की भूल नेताओं पर भारी पड़ी। टिकटों के वितरण के वक्त सभी राजनीतिक दल क्षेत्र, सम्प्रदाय, जाति, परिवार और नेताओं की वरिष्ठता का चुनावी जोड़−तोड़ लगाते हैं। खासतौर पर पार्टी में कद्दावर नेताओं के मामले में पार्टी कुछ भी कहने−सुनने से घबराती है। किसी में साहस नहीं होता कि कह सकें कि अब मतदाताओं की पसंद बदल गई है, बेशक पार्टी की नहीं बदली हो। जब भाजपा में वरिष्ठता को दरकिनार करते हुए कमान लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी को सौंपने के बजाए नरेन्द्र मोदी को सौंपी गई, तब भी पार्टी में वरिष्ठता को लेकर दबे−छिपे ढंग से हायतौबा मची। इसके बावजूद देश ने लोकसभा और उसके बाद हुए विधान सभा चुनावों में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व पर मोहर लगाई। फिर भी निचले स्तर पर भाजपा हो या दूसरे दल, जनता से दूर हो चुके नेताओं का आकलन करने में गच्चा खा रहे हैं। जबकि मतदाताओं ने कई कद्दावरों को राजनीतिक कद घटा कर बौना बना दिया। पार्टी में उनकी ऊंचाई−चौड़ाई को बराबर कर दिया। राजनीतिक दलों में कई पार्टियों के नेताओं की जमानत तक जब्त करवाकर पार्टी और नेता दोनों की सारी गलतफहमी दूर करने में भी मतदाताओं ने कसर बाकी नहीं रखी।
मतदाताओं ने फैसला देकर यह भी साबित कर दिया कि पार्टी में किसी की कोई भी हैसीयत हो। पार्टी बेशक उन्हें कंधे पर बिठा कर घूमे पर वक्त और परिस्थितियों के लिहाज से वे सत्ता के लिए उपयुक्त नहीं हैं। कई बड़े नेता ऐसे भी रहे कि झटका खाने के बाद संभल गए। उन्होंने वक्त की जरूरत के हिसाब से बदलाव किए। मतदाताओं ने वापस उन्हें जीत की विजयमाला पहनाई। जिन्होंने अपने आपको ढालने में कंजूसी बरती मतदाताओं ने उन्हें खारिज करने में देर नहीं लगाई। कांग्रेस का लगातार हारना इसका बड़ा उदाहरण है। कांग्रेस अभी तक भी दागदार वरिष्ठ नेताओं से चिपकी हुई है। मतदाताओं के लगातार खारिज किए जाने के बावजूद पार्टी भ्रष्टाचार और जातिवाद, वंशवाद जैसे नापसंद किए जाने वाले मुद्दों से उभर नहीं पाई है।
होना तो यह चाहिए कि पार्टी और वरिष्ठ नेता अपने स्तर पर विश्लेषण करके अपनी सीमा तय करते। इसे मतदाताओं के भरोसे छोड़ने की गलती नहीं करते। कारण साफ है मतदाताओं ने कानून की तरह आंखों पर पट्टी बांध कर तराजू पर न्याय तौला है। जिन नेताओं को अपने बड़े होने पर नाज था। उनके नाज−नखरों को पार्टी ने बेशक सहा हो पर मतदाताओं ने धरातल सूंघा दिया। अब वक्त आ गया है कि राजनीतिक दल अपने वरिष्ठ नेताओं की और अपनी गलतफहमी दूर करें। अन्यथा मतदाता तो हैं ही आईना दिखाने के लिए। पार्टियां वरिष्ठता का दर्जा देने से पहले यह अच्छी तरह सोच−विचार कर लें कि जिन्हें वे पलकों पर बिठाते हैं, वाकई मतदाताओं के नजरिए में उनकी हैसीयत कितनी है। ऐसे नेताओं का संगठन में बेशक कितना भी योगदान क्यों न रहा हो, मतदाताओं पर इसका प्रभाव डालना मुश्किल है। हालांकि मतदाताओं ने ऐसे वरिष्ठ नेताओं के संगठन और देश के लिए योगदान का प्रतिफल भी दिया है, किन्तु यह समझ लेना कि मतदाता हमेशा पुराने योगदान के भरोसे चुनावी वैतरणी पार लगाते रहेंगे, यह नासमझी ही होगी।
आजादी के बाद नेताओं के योगदान को मतदाताओं ने भरपूर सराहा। कई दशकों तक कांग्रेस ने देश पर राज किया। इसके बाद जाति, धर्म, भ्रष्टाचार, क्षेत्रवाद, भाषावाद, परिवारवाद और लिंगभेद जैसी देश को खोखला कर देने वाली बुराईयां नेताओं में आने लगीं तो मतदाताओं ने भी उन्हें दरकिनार करना शुरू कर दिया। नेताओं ने जब भी मतदाताओं की समझ को कमजोर समझा है, हमेशा मात खाई है। एक से एक दिग्गज नेताओं को मतदाताओं ने हैसीयत समझाई है। इसमें भी कोई संदेह नहीं देश की राजनीति में कई बुराईयों के भ्रमजाल में मतदाता उलझते रहे। यह भी नेताओं की फैलाई हुई है। मतदाताओं की जब भी आंखें खुलीं तभी ऐसे नेताओं से मुक्ति पाने में कसर बाकी नहीं रखी। यही वजह है कि मौजूदा दौर में चाहे राज्य हों या केंद्र सभी सरकारें विकास को सामने रख कर ही चुनाव जीतने पर भरोसा करने लगी हैं। अब वोट बैंक का दावा किसी भी लोकतांत्रिक बुराई के जरिए करने वाले नेताओं के दिन लद गए हैं, जिनके नहीं लदे हैं, वे गलतफहमी का शिकार हैं, मतदाता मौका मिलने पर उनकी भी किरकिरी करने से नहीं चूकेंगे।
- योगेन्द्र योगी
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