भागदौड़ भरी जिंदगी में परिवार के लिए समय नहीं, नौकरी में भी तनाव

There is no time for family in todays life
डॉ. संजीव राय । Jul 13 2018 11:42AM

आज कल, जब भी हमारे दोस्त मिलते हैं उनकी पहली शिकायत ये रहती है कि ''नौकरी में बहुत तनाव है''। ऐसा कहने वाले समाज के नज़रिये से अपनी नौकरी में सफल हैं क्योंकि उनको समय से प्रमोशन मिला और अच्छा वेतन भी है।

आज कल, जब भी हमारे दोस्त मिलते हैं उनकी पहली शिकायत ये रहती है कि 'नौकरी में बहुत तनाव है'। ऐसा कहने वाले समाज के नज़रिये से अपनी नौकरी में सफल हैं क्योंकि उनको समय से प्रमोशन मिला  और अच्छा वेतन भी है। लेकिन फिर भी, 15-20 साल नौकरी करने के बाद, ख़ुशी के बजाय तनाव क्यों हैं ? एक तरफ बेरोज़गारों की संख्या बढ़ रही है और दूसरी ओर 40-45 साल की उम्र में आखिर क्यों लोग नौकरियों से थकने लगे हैं ? एक तरफ जहाँ सरकारी सेक्टर में भी, नौकरी की सेवा शर्तों में बहुत से बदलाव हुए हैं, पिछले दो दशक में नौकरियाँ कम हुई हैं, पेंशन स्कीम बदल गई है, लोग लम्बे समय तक अनुबंध पर कार्य कर रहे हैं जिसमें सामन्य तौर पर साप्ताहिक अवकाश के अतिरिक्त अन्य छुट्टियाँ, मेडिकल इन्श्योरेंस आदि नहीं मिलते हैं।

चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों की नई भर्ती अधिकतर स्थान पर बंद हो गई है और दूसरी कंपनियों को संविदा पर कार्य दे दिए गए हैं। सरकारी दफ्तरों में इस बदलाव ने, मध्य और ऊपर के स्तर पर तैनात कर्मचारियों के कार्यों में इजाफ़ा कर दिया है। प्राइवेट-कारपोरेट सेक्टर में काम करने वाले लोग सप्ताह में 65-70 घंटे ऑफिस का काम करते हैं, अपने काम से व्यापारिक यात्रायें करते हैं, सुबह जल्दी जाग के फ्लाइट पकड़ते हैं और देर रात की फ्लाइट से वापस आ जाते हैं। महीने में दो-तीन बार ऑफिस की देर रात तक चलने वाली पार्टी में व्यस्त रहते हैं। सामान्य दिनों में भी ऑफिस से निकलते हुए, सड़क पर ट्रैफिक जाम का सामना करते हुए देर शाम घर पहुँचते हैं। घर पहुँच कर, परिवार के साथ हंसी-ख़ुशी का समय बिताने के बजाय लोग, तनाव-झुंझलाहट और बचे काम का दबाव में फंसे रहते हैं। क्या लोग अपने समय को, अपने ढंग से जी पा रहे हैं ? कितनी हसरत थी कि एक बार बस नौकरी मिल जाये तो परिवार के लिए ये करूँगा-वो करूँगा, समाज के लिए कुछ विशेष करूँगा। लेकिन वक्त की रफ़्तार ने सपनों को बांध दिया है। किसी ने ठीक ही कहा है कि, आप सबसे अच्छी चीज, जो अपने बच्चों को दे सकते हैं, वह आप का समय है।

अब जब लगता है कि हमारे पास, अपनों से मिलने की लिए, किसी के सुख-दुःख में शामिल होने के लिए या फिर बच्चों के साथ सैर करने, उनकी गर्मी की छुट्टी में उनके साथ खेलने के लिए भी पर्याप्त समय नहीं होता है तो ऐसे में जीवन के प्रति अपने दृष्टिकोण को बदलने की जरुरत है। आजकल बहुत से युवा अपने पेशे को, शहर को और ऐशो-आराम की जिन्दगी को बदल कर अपने समय और कौशल का समाज के लिए, परिवार के लिए बेहतर उपयोग कर रहे हैं।

हमारे एक दोस्त प्रेम बहुखंडी, जिन्होंने दिल्ली में उच्च शिक्षा प्राप्त की, 20 साल दिल्ली में ही अनुबन्ध की अलग-अलग नौकरी की और अब देहरादून में रहने लगे हैं। दिल्ली का अपना बड़ा घर बेच कर, एक छोटा फ्लैट ले लिया है, जहाँ कभी-कभार आ कर रुका जा सके। उनका कहना है कि दिल्ली में वर्षों काम किया लेकिन हमेशा अंदर से एक खालीपन रहता था क्योंकि ऐसा लगता था कि हम बस भागे जा रहे हैं, लोग एक दूसरे से आगे निकलना चाह रहे हैं लेकिन कहाँ जाना है, किसी को पता नहीं। अब वह अपने माता-पिता और पत्नी-बच्चे के साथ देहरादून में रहते हैं। खर्चे कम हैं, हवा-पानी-प्रदूषण भी दिल्ली से कम है और सामाजिक कार्य करने का अपना संतोष है। देहरादून में आज कल वह वहां बुजुर्गों की देखभाल के लिए कुछ युवाओं को प्रशिक्षित कर रहे हैं, विधवाओं की बेहतरी के लिए प्रयास कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि अब मैं अपनी दिनचर्या अपने आप, प्राथमिकता के आधार पर तय करता हूँ। मजाक में वह कहते हैं कि- "पैसे का क्या ? देश के सबसे अमीर आदमी को भी लगता होगा कि थोड़े और कमा लूँ फिर कुछ और काम करूँ''!

एक दूसरे मित्र, जोकि गाज़ियाबाद जिले में एक सरकारी महाविद्यालय में प्रवक्ता थे, आठ वर्ष के बाद नौकरी से इस्तीफा देकर, अपने गृह जनपद इलाहाबाद चले गए। उनका काफी वक्त महाविद्लय आने-जाने और वहां के प्रशासनिक-शैक्षणिक कार्य में चला जाता था। अब वह, एक स्कूल का संचालन करते हैं, गोपालन और अपने लिए सब्जियों की ऑर्गनिक खेती करते हैं। उनका कहना है कि अब मैं ज़्यादा सुकून से रहता हूँ, आस-पास के लोग सब एक दूसरे को जानते हैं, मिलते हैं तो अकेलेपन का एहसास नहीं रहता है। परिवार और सामाजिक कार्यों के लिए समय रहता है और शुद्ध दूध-सब्ज़ियां भी खाता हूँ।

दिल्ली के ही एक दोस्त जिनका अपना निजी व्यापार है, उन्होंने हाल ही में अपना दफ्तर, दिल्ली के नेहरू प्लेस से बदल कर अपने घर के नज़दीक, द्वारका में कर लिया है। वो कहते हैं कि शाम को 2 से ढाई घंटे नेहरू प्लेस से द्वारका आने में लग जाते थे, अब मैं 5 मिनट में अपने ऑफिस पहुँच जाता हूँ। लोग अपनी रणनीति और प्राथमिकताएं बदल रहे हैं। अपने समय को, अपने ढंग से नियोजित करना चाहते हैं। लोग वह काम करना चाहते हैं जिसमें उनको ज़रूरी आमदनी भी हो और ख़ुशी भी मिले। अपने सपनों को, आज़ादी के एहसास को महसूस करना चाहते हैं।

मुंबई महानगर में, अधिकतर नौकरी करने वाले सुबह जल्दी-जल्दी तैयार होकर, ट्रेन पकड़ कर नौकरी के लिए निकल जाते हैं और देर शाम घर लौटते हैं। मुंबई में 15 सालों तक मार्केटिंग का काम करने वाले 48 वर्षीय प्रवीण भाई ने आंशिक रिटायरमेंट ले लिया है। उन्होंने अपने युवा बच्चों को, काम सौंप दिया है और खुद मेंटर की भूमिका में आ गए हैं। अब उनका समय, सुबह दौड़ने में, फोटोग्राफी करने में, मोटिवेशनल लेक्चर देने में जाता है। उनका मानना है कि ऐसा करके, मैं अपने जीवन को एक संतोषप्रद जीवन बनाना चाहता हूँ। अपने स्वास्थ्य पर ध्यान देना चाहता हूँ।

जीवन में सफलता वही है कि जब आप पीछे मुड़ कर देखें तो आप को निराशा न हो। जीवन चलने के लिए कुछ आर्थिक संसाधनों की ज़रूरत रहती है लेकिन अगर आपके पास फ़ोन-फ्लैट-फिएट की व्यवस्था है और नौकरी आप को संतोष नहीं देती है तो तनाव की अवस्था से बाहर निकलने की योजना बनानी चाहिए। आप का रचनात्मक काम और सामाजिक योगदान ही याद रखा जायेगा और आप अपने शौक को पूरा करके अपनी उम्र तो बढ़ा ही लेंगे, दवाओं पर निर्भरता भी कम कर लेंगे।

-डॉ. संजीव राय

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