जो बदलाव के लिए तैयार नहीं होते वह हाशिये पर चले जाते हैं

Those who are not ready to change, they go on the sideline

बदलाव के लिए जो तैयार नहीं होते वे अकसर हाशिए पर चले जाते हैं या हाशिए पर फेंक दिए जाते हैं। उस पर तुर्रा यह सुनने में आता है कि उसे तो मेरी ज़रूरत ही नहीं रही। ऐसे लोगों को मैनेज करना भी कठिन होता है।

मानव व्यवहार बहुत पेचीदा होता है। स्वीकार न करने की प्रवृत्ति हमारे जीवन, प्रोजेक्ट, योजनाओं को असफल बनाने में बड़ी भूमिका निभाती है। जब हम किसी व्यक्ति, समाज, विचार, व्यवहार, बदलाव को स्वीकार नहीं करते तब हमारे भी व्यवहार में चुनौतियों, द्वंद्वों का जन्म होता है। परिवर्तन न केवल व्यक्ति के व्यवहार में होते हैं बल्कि समाज और प्रोजेक्ट में भी होते हैं। लेकिन कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो बदलाव को स्वीकार नहीं कर पाते। इसके पीछे उनके पूर्वाग्रह, अतीतीय संवेदनाएं काम करती हैं। ऐसे लोगों को मैनेज करना किसी के लिए भी कठिन होता है। खासकर प्रोजेक्ट मैनेजर को ऐसे टीम मेंबर्स के साथ डील करने में दिक्कतें आती हैं। या तो मैनेजर ऐसी नकारात्मक सोच वाले या फिर बदलाव के लिए तैयार न होने वाले को अपनी टीम में रखना नहीं चाहता या फिर उसे कंपनी से ही बाहर करने के तरीके तलाशने लगता है। जबकि यह एप्रोच मैनेजमेंट की नज़र में सही नहीं है। बजाए कि उस व्यक्ति को निकाल बाहर करने के हमें उस व्यक्ति की मनोदशा, सोच, व्यवहार को स्वीकार करना होगा और समझने की कोशिश करनी होगी कि यदि वह नए प्रोजेक्ट मैनेजर को स्वीकार नहीं कर पा रहा है तो उसके पीछे की वजहें क्या हैं? 

क्या उससे पहले ऐसा कोई व्यक्ति था जिसकी कार्यशैली डिक्टेटर किस्म की थी? क्या वह व्यक्ति किसी के भी सुझावों को तवज्जो नहीं देता था आदि आदि। ठीक वैसे ही यदि बच्चे क्लास में शोर कर रहे हैं, पढ़ने में उनका मन नहीं लगता। हमेशा ही टीचर को परेशान करते हैं आदि तो नए टीचर को अपनी शिक्षण शैली और बच्चों में स्वीकारे जाने की ओर सोचने की आवश्यकता है बजाए कि ऑथरिटी से शिकायत कर क्लास ही बदलने पर आमादा हों। क्लास बदल देना या फिर शिकायत करना इसका समाधान नहीं हो सकता। यदि बच्चे नए टीचर को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं या फिर टीचर बच्चों को स्वीकार कर पा रहा है तो उसके कारणों को समझने की आवश्यकता है। सबसे पहले हमें परिस्थितियों, व्यक्ति, बदलाव को स्वीकार करना सीखना होगा। मैनेजमेंट में कहा जाता है कि एक्सेप्टेंस किसी भी प्रोजेक्ट की सफलता की पहली सीढ़ी होती है। दूसरे शब्दों में कहें तो अपनी टीम, प्लान, चुनौतियों, रिस्क आदि को स्वीकारना आना होगा। जब हम स्वीकारने लगते हैं तब हम चुनौतियों से कैसे बाहर निकलें इस ओर सोचना और प्लान करना शुरू कर देते हैं। 

आम जीवन की बात की जाए तो सामान्य सी घटनाएं होती हैं लेकिन गौर करें तो हम किसी के व्यवहार से क्यों विचलित हो जाते हैं? क्यों हमें लगता है कि फलां व्यक्ति बदल गया? क्यों हमें महसूस होता है कि उसे ऐसे बरताव नहीं करने चाहिए थे आदि। हमें इसलिए इस किस्म की शिकायत करने की आदत हो जाती है क्योंकि हम जिस व्यक्ति के बदले हुए व्यवहार की शिकायत कर रहे हैं हमें उसके बदले हुए परिवेश, प्राथमिकताओं, व्यवहार में आए परिवर्तनों के कारणों को समझना होगा। हमें सिर्फ और सिर्फ अपनी संवेदनाओं का ख़्याल रहता है। हम यह स्वीकार ही नहीं करना चाहते कि जिससे उम्मीद कर रहे हैं उसकी परिस्थितियां बदल चुकी हैं। उसकी मान्यताएं और टू डू और नॉट टू डू की सूची में खासा बदलाव घटित हो चुका है। अब वह वैसा नहीं कर सकता जैसा वह पहले किया करता था। प्राथमिकताओं के बदलते ही हमारे व्यवहार भी स्वाभाविक तौर पर बदल जाते हैं वह बदलने की हमारी मजबूरी होती है। इसे हमें स्वीकार करना होगा। फर्ज कीजिए जब बच्चे की शादी नहीं होती तब लड़के और लड़की की प्राथमिकताएं अलग हुआ करती हैं लेकिन जैसे ही शादी हो जाती है तब हमारे रिश्ते, परिवेश, संदर्भ बदल चुके होते हैं। यदि इस बदलाव को दोनों स्वीकार नहीं कर पाते, मां−बाप कबूल नहीं करते तभी संघर्ष और तकरार की शुरुआत होती है। अक्सर हम यह शिकायत करते सुनते हैं कि यार शादी के बाद फलां बदल गया। अब तो मिलता भी नहीं। वैसी बात नहीं रही आदि आदि। हमें यह हक़ीकत स्वीकार करनी पड़ेगी कि अब उस व्यक्ति की प्राथमिकताएं बदल चुकी हैं। उससे अन्य रिश्तों की मांगें, अपेक्षाएं बदल चुकी हैं। वह चाहकर भी कई बार आपकी अपेक्षाएं पूरी नहीं कर सकता/सकती।

एक नए प्रोजेक्ट व प्रोग्राम मैनेजर को अकसर सुनने को मिलता है कि आप से पहले जो थे वे ऐसे किया करते थे? वे तो ऐसे किया करते थे। आप ऐसा नहीं करते। आपकी कार्यशैली एकदम अलग है। इस तरह की शिकायत करना बेहद सहज और मानवीय बरताव है। लेकिन हमें यह स्वीकारना होगा कि हर व्यक्ति की कार्यशैली, सोच, काम करने के तरीके, समझाने के तरीके भिन्न हुआ करते हैं। और यही वजह है जब भी कंपनी व संस्थानों में कुर्सी बदलती है वैसे ही प्राथमिकताएं बदल जाती हैं। जो चीज नहीं बदलती वह है कंपनी के विज़न, मिशन को समय पर हासिल करना। एप्रोच बेशक अलग और बदले बदले से हो सकते हैं लेकिन अंतिम लक्ष्य कंपनी के लक्ष्य को पाना होगा तो वह बदलाव स्वीकार होने चाहिए। बदलाव को स्वीकार करने की प्रवृत्ति और पहल दोनों ही प़क्षों से अपेक्षित होती है। क्योंकि केवल टीम के सदस्य ही खुले तौर पर बदलाव को स्वीकार करने में आगे आ रहे हैं लेकिन मैनेजर अपनी ही पूर्वाग्रहों से बंधा होगा तब भी टीम में समरसता नहीं आ पाएगी।

जो लोग समय और संदर्भों के अनुसार अपनी स्वीकार्यता नहीं बढ़ाते वे निश्चित ही कंपनी और व्यक्ति के जीवन से कटते चले जाते हैं। बल्कि कहना चाहिए कि बदलाव के लिए जो तैयार नहीं होते वे अकसर हाशिए पर चले जाते हैं या हाशिए पर फेंक दिए जाते हैं। उस पर तुर्रा यह सुनने में आता है कि उसे तो मेरी ज़रूरत ही नहीं रही। ज़रूरत तो थी लेकिन आप अपनी अहमियत को बरकरार रखने में पीछे रह गए। कहा जाता है कि संस्थाओं और व्यक्तियों के बीच अपनी पहुंच और ज़रूरतें बनाई जाती हैं जब आप चले भी जाएं तो आपको और आपके काम को याद किया जाए।

स्वीकार और शिकायत में हमें चुनना होता है कि हम किसी को अपने जीवन का हिस्सा बनाना चाहते हैं। क्या हम ताउम्र शिकायत करते हुए जीना चाहते हैं या फिर स्वीकार कर अपने जीवन को बेहतर बनाना चाहते हैं। शिकायत करने वालों के पास हज़ारों बहाने होते हैं अस्वीकार करने और शिकायत करने के। ऐसे लोग शिकायत करने के मौके तलाशा करते हैं। अतीत जीवी इस किस्म के लोग दरअसल बदलाव के साथ नहीं बल्कि अपनी अतीतीय कहानी के साथ जिया करते हैं। इसके मुहावरे, इनकी बातें, इनके संदर्भ और दृष्टांत भी पुरानी पड़ चुके होते हैं क्योंकि ऐसे लोग नई सोच, नई पहलकदमी को स्वीकारने की बजाए अपने पूर्वाग्रहों को हवा दिया करते हैं। स्वीकारना एक कला भी है और दक्षता भी। मैनेजमेंट में स्वीकार करना किसी भी प्रोजेक्ट को सफलता की ओर ले जाने की ताकत देता है। वहीं शिकायत सिर्फ प्रोजेक्ट को लेट किया करती हैं। शिकायतों से न तो प्रोजेक्ट चलता है और न जीवन। स्वीकारने से जीवन और प्रोजेक्ट में नयापन आता है और जीने की लालसा भी बढ़ती है।

प्रोजेक्ट और जीवन में कई बदलाव ऐसे भी आते हैं जिनका अनुमान हम शुरू में नहीं लगा पाते। जो अनप्लान्ड होते हैं जिन्हें तत्काल स्वीकार कर रणनीति बनानी होती है। मसलन सड़क बनानी है तो मंदिर और स्थाई निर्माण बीच में आएंगे इसका अनुमान तो लगाया जा सकता है लेकिन किसी व्यक्ति, संस्था या सरकार की प्राथमिकता कब बदल जाएगी इसका अंदाज़ा प्रोजेक्ट के शुरू होने के बाद ही मालूम चल पाता है। लेकिन एक अनुभवी प्रोजेक्ट मैनेजर ऐसे तमाम पहलुओं पर प्रोजेक्ट शुरू होने से पहले चिंतन मनन करता है। संभावित और असंभावित रिस्क फैक्टर को कैसे मैनेज किया जाएगा इसकी भी प्लानिंग खासा मायने रखती है।

-कौशलेंद्र प्रपन्न

(भाषा एवं शिक्षा पैडागॉजी एक्सपर्ट)

We're now on WhatsApp. Click to join.
All the updates here:

अन्य न्यूज़