जब पेड़ और आंगन हो रहे हैं खत्म तो कहां पड़ें सावन के झूले

Trees and courtyards are getting lost

समय के साथ पेड़ गायब होते गए और बहुमंजिला इमारतों के बनने से आंगन का अस्तित्व लगभग समाप्त हो गया। ऐसे में सावन के झूले भी इतिहास बनकर हमारी परम्परा से गायब हो रहे हैं।

‘सावन का महीना पवन करे शोर’, कभी ये गाना सावन आते ही लोगों की जुबान पर खुद-ब-खुद आ जाता था। आज वक्त ने ऐसी करवट ली है कि सावन तो आता है पर अपने रंग नहीं बिखेर पाता। जिस सावन के आते ही नववधु ससुराल से मायके पहुंच जाती थी। मां बेटी के घर आने का इंतजार गली-मुहल्ले की औरतों के साथ करती थीं। अब वैसा सावन नहीं होता है। जब सावन का महिना आता है तो अपनी रिमझिम फुहारों से तन-मन को शीतलता प्रदान तो करता ही है साथ ही नीले आसमान पर बहती काली-काली घटाएं प्रत्येक जीव में प्रसन्नता का संचार कर देती हैं। सारा वातावरण मदमस्त सा हो उठता है।

पहले सावन का महीना आते ही गांव के मोहल्लों में झूले पड़ जाते थे और सावन की मल्हारें गूंजने लगती थीं। ग्रामीण युवतियां महिलाएं एक जगह देर रात तक श्रावणी गीत गाकर झूला झूलने का आनंद लेती थीं। वहीं जिन नव विवाहिता वधुओं के पति दूरस्थ स्थानों पर थे उनको इंगित करते हुए विरह गीत सुनना अपने आप में लोक कला का ज्वलंत उदाहरण हुआ करते थे। झूले की पैंगों पर बुदियों भी जोशीले अंदाज में गायन शैली मात्र यादों में सिमट कर रह गई है। सामाजिक समरसता की मिसाल, जाति पाति के बंधन से मुक्त अल्हड़पन लिए बालाएं उनकी सुरीली किलकारियां भारतीय सभ्यता को अपने में समेटे हुए सांकेतिक लोकगीत जैसे किसी दिली आकांक्षा की कहानी क्यों करते थे उसका अंदाज ही निराला था। समय के साथ पेड़ गायब होते गए और बहुमंजिला इमारतों के बनने से आंगन का अस्तित्व लगभग समाप्त हो गया। ऐसे में सावन के झूले भी इतिहास बनकर हमारी परम्परा से गायब हो रहे हैं। अब सावन माह में झूले कुछ जगहों पर ही दिखाई देते हैं। जन्माष्टमी पर मंदिरों में सावन की एकादशी के दिन भगवान को झूला झुलाने की परम्परा जरूर अभी भी निभाई जा रही है। 

वर्षा ऋतु की खूबियां अब किताबों तक ही सीमित रह गयी हैं। वर्षा ऋतु में सावन की महिमा धार्मिक अनुष्ठान की दृष्टि से तो बढ़ ही जाती है। प्रकृति के संग जीने की परम्परा थमती जा रही है। झूला झूलने का भी दौर भी अब समाप्त हो गया है। आधुनिकता की दौड़ में प्रकृति के संग झूला झूलने की बात अब कहीं नहीं दिखती है। ग्रामीण क्षेत्र की युवतियां भी सावन के झूलों का आनंद नहीं उठा पाती हैं। आज से दो दशक पहले तक झूलों और मेंहदी के बिना सावन की परिकल्पना भी नहीं होती थी। आज के समय में सावन के झूले नजर ही नहीं आते हैं। लोग इसका कारण जनसंख्या घनत्व में वृद्धि के साथ ही वृक्षों की कटाई मानते हैं। लोग अब घर की छत पर या आंगन में ही रेडीमेड फ्रेम वाले झूले पर झूलकर मन को संतुष्ट कर रहे हैं। बुद्धिजीवी वर्ग सावन के झूलों के लुप्त होने की प्रमुख वजह सुख सुविधा और मनोरंजन के साधनों में वृद्धि को मान रहे हैं। 

सावन में प्रकृति श्रृंगार करती है जो मन को मोहने वाला होता है। यह मौसम ऐसा होता है जब प्रकृति खुश होती है तो लोगों का मन भी झूमने लगता है। झूला इसमें सहायक बन जाता है। भारतीय संस्कृति में झूला झूलने की परम्परा वैदिक काल से ही चली आ रही है। भगवान श्रीकृष्ण राधा संग झूला झूलते और गोपियों संग रास रचाते थे। मान्यता है कि इससे प्रेम बढ़ने के अलावा प्रकृति के निकट जाने एवं उसकी हरियाली बनाये रखने की प्रेरणा मिलती है। संस्कृति एवं परम्परा की ही देन है कि देश के विभिन्न क्षेत्रों के गांव और कस्बों में लोग झूला झूलते हैं। विशेष कर महिलाएं और युवतियां इसकी शौकीन होती हैं। भारतीय हिंदी महीने की हर माह की अपनी खुशबू है। सावन व भादो का महीना प्रकृति के और निकट ले जाता है। झूले झूलने के दौरान गाये जाने वाले गीत मन को सुकून देते हैं।

झूला गांव के बागीचों, मंदिर के परिसरों में लगाया जाता है। जिस पर अधिकतर युवतियों का ही कब्जा होता है। गांव के युवक इसमें शामिल अवश्य होते हैं लेकिन केवल सहयोगी के रूप में। उन्हें दूर से ही इसे देखने की इजाजत मिलती है। वर्तमान समय में अब झूले की परम्परा लुप्त हो रही है। सावन भादो की खुशबू अब नहीं दिखती है। एक दो स्थानों को छोड़ कर लोग इसका आनंद नहीं ले पा रहे हैं। इन झूलों के नहीं होने से लोकसंगीत भी सुनने को नहीं मिलता है। सावन के आते ही गली-कूचों और बगीचों में मोर, पपीहा और कोयल की मधुर बोली के बीच युवतियां झूले का लुत्फ उठाया करती थीं। अब न तो पहले जैसे बगीचे रहे और न ही मोर की आवाज सुनाई देती है। यानी बिन झूला झूले ही सावन गुजर जाता है। लगातार पड़ रहे प्राकृतिक आपदाओं के कहर का असर माना जाए या वन माफियाओं की टेढ़ी नजर का परिणाम कि गांवों में भी बगीचे नहीं बचे, जहां युवतियां झूला डाल कर झूल सके व मोर विचरण कर सके। 

गांव की बुजुर्ग महिलायें बताती हैं कि सावन के नजदीक आते ही बहन-बेटियां ससुराल से मायके बुला ली जाती थीं और पेड़ों पर झूला डाल कर झूलती थीं। झुंड के रूप में इकट्ठा होकर महिलाएं सावनी गीत गाया करती थीं। बुजुर्ग महिलायें बताती हैं कि त्योहार में बेटियों को ससुराल से बुलाने की परम्परा आज भी चली आ रही है, लेकिन जगह के अभाव में न तो कोई झूला झूल पाता है और न ही अब मोर, पपीहा व कोयल की सुरीली आवाज ही सुनने को मिलती हैं। बुजुर्ग महिलाओं की मानें तो दस साल पहले तक यहां रक्षाबंधन तक झूले का आनंद लिया जाता रहा है। गांव के पेड़ पर मोटी रस्सी से झूला डाला जाता था और सारे गांव की बहन-बेटियां झूलती थीं। अब पेड़ ही नहीं हैं तो झूला कहां डालें। 

सावन के महीने में नवविवाहित महिलाओं को अपने मायके जाने की परम्परा राजस्थान की संस्कृति में अधिक परिलक्षित होती है, जो आज भी अनवरत रूप से चली आ रही है। इसलिए सावन के महीने में राजस्थान के घर-घर और गली-मोहल्लों में झूले पर झूलती हुई अविवाहित कुमारियां अपने माता-पिता और सगे-संबंधियों से यह आग्रह करती हैं कि उनका विवाह कहीं पास के गाँव में ही किया जाये, ताकि सावन के महीने में उसे अपने घर बुला पाएं।

झूला झूलने के खत्म हुए रिवाज के लिए गांवों में फैल रही वैमनष्यता जिम्मेदार हैं। पहले गांव के लोग हर बहन-बेटी को अपनी मानते थे लेकिन अब जमाना बदल गया है। जिसके हाथ में रक्षा सूत्र बांधा जाता है, वही भक्षक बन जाता है। कुल मिला कर बाग-बगीचों के खात्मे के साथ जहां मोर-पपीहों की संख्या घटी है, वहीं समाज में बढ़ रही गैर समझदारी के कारण भाईचारे में बेहद कमी आई है। नतीजतन, झूला झूलने की परम्परा को ग्रहण लग गया है। 

सावन में झूला झूलना मात्र आनंद की अनुभूति नहीं कराता अपितु यह स्वास्थ्यवर्धक प्राचीन योग है जो सावन के मनोरम मौसम के कारण प्रदूषण मुक्त शुद्ध वायु देता है और स्वास्थ्य प्रदायक है। सावन महीने की विशेषता है कि इस माह हवा अन्य महीनों की तुलना में अधिक शुद्ध होती है। सावन में चहुंदिशा हरियाली छाई होती है। हरा रंग आंखों पर अनुकूल प्रभाव डालता है। इससे नेत्र ज्योति बढ़ती है। झूला झूलते समय श्वांस-उच्छवास लेने की गति में तीव्रता आती है। इससे फेफड़े सुदृढ़ होते हैं। इसके साथ ही झूलते समय श्वांस अधिक भरा, रोका एवं वेग से छोड़ा जाता है। इससे नवीन प्रकार का प्राणायाम पूर्ण हो जाता है जो स्वास्थ्य सहयोगी है। झूलते समय रस्सी पर हाथों की पकड़ सुदृढ़ होती है। इसी प्रकार खड़े होकर झूलते समय झूले को गति देने पर बार-बार उठक-बैठक लगानी पड़ती हैं। इन क्रियाओं से एक ओर हाथ, हथेलियों और उंगलियों की शक्ति बढ़ती है वहीं दूसरी ओर हाथ-पैर और पीठ-रीढ़ का व्यायाम हो जाता है। यह अच्छे स्वास्थ्य का कारक है।

शहरों में जगह की कमी ने परम्परा के निर्वाह में बाधा खड़ी कर दी है। अब झूले लगाने के लिए जगह की तलाश करनी पड़ती है। पहले संयुक्त परिवार में बड़े-बूढ़ों के सानिध्य में लोग एक दूसरे के घरों में एकत्रित होते थे। जबकि एकल परिवार ने इस आपसी स्नेह को खत्म कर दिया है। महिलाएं सामुदायिक केन्द्रों में तीज पर्व मनाती हैं। सांस्कृतिक कार्यक्रमों के माध्यम से सभी एक दूसरे के साथ खुशियां बांटती हैं। सावन के झूले कहां हैं, अब तो लोग महंगाई के झूले झूल रहे हैं। भौतिकवाद ने एक-दूसरे के प्रति लगाव भी खत्म कर दिया है। लॉन में लोहे व बांस के झूले लगा लिए और हो गया परम्परा का निर्वाह। अब तो पहनावा भी आधुनिकीकरण की भेंट चढ़ गया है। अब तो लोग तीज के दिन मॉल में जाते हैं, फिल्म देखते हैं, खाना खाते हैं और मना लेते हैं सावन के पूरे त्योहार।

- रमेश सर्राफ धमोरा

All the updates here:

अन्य न्यूज़