''अनियंत्रित विकास'' ने हिमाचल प्रदेश को विनाश की राह पर धकेला

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संतोष उत्सुक । Sep 19 2018 1:03PM

बारिश ने इस बार हिमाचल प्रदेश में उधम मचाए रखा। संसार प्रसिद्ध पर्यटक नगरी शिमला का एक सौ सत्रह साल का रिकार्ड धो डाला। प्रदेश के दूसरे शहर और गांवों में कोई रिकार्ड बांचे या नहीं, लेकिन बारिश ने वहां की ज़िंदगी का पानी पानी तो कर ही दिया।

बारिश ने इस बार हिमाचल प्रदेश में उधम मचाए रखा। संसार प्रसिद्ध पर्यटक नगरी शिमला का एक सौ सत्रह साल का रिकार्ड धो डाला। प्रदेश के दूसरे शहर और गांवों में कोई रिकार्ड बांचे या नहीं, लेकिन बारिश ने वहां की ज़िंदगी का पानी पानी तो कर ही दिया। विश्व धरोहर कालका शिमला रेलवे ट्रैक पर भू-स्खलन हुआ, मलबा पड़ा रहा, पेड़ गिरे। कालका शिमला रोड़ कभी बारह घंटे तो कभी इससे ज़्यादा समय के लिए बंद रहा, मीलों लंबा जाम लगा रहा, मलबा सड़क पर गिरकर आकर पसरता रहा। विविध प्रजाति के लगभग पच्चीस हजार वृक्षों की हत्या कर इस सड़क को फोर लेन किया जा रहा है ताकि पर्यटक जल्दी शिमला पहुँचें। अब हमें वृक्षों से ज़्यादा सड़कों की ज़रूरत है। नंगा सच यह है कि सड़कों का कुविकास ही विनाश ला रहा है।

सड़क निर्माता मिट्टी का मलबा अवैध और अवैज्ञानिक तरीके से सड़क के निचली तरफ फेंक ठिकाने लगा देते हैं। वे समझदार हैं उन्हें पता है माँ प्रकृति बारिश के बहाने उनकी मदद करती है। सड़क से नीचे बसे गांव वालों को या किसी और को परेशानी होती है तो भगवान मदद करेंगे। यह तो उस सड़क की बात है जो दिन-रात चलती है उन इलाकों की सड़कों की हालत किसे मालूम जिन्हें कम लोग जानते हैं, वहां भी तो मलबा है। कई गांव टापू बने, पहाड़ियाँ दरकी, दरार यहां से शुरू होकर वहां तक आ चुकी। मकान, पशु, खेत कितने तो गर्क हो चुके हैं। सैंकड़ों पेड़ गिरे, बादल फटे, बिजली गिरी, भूकंप की आशंका रही, हजारों डंगे डहे, पुल टूटे और बह गए, टूटी सड़कें। लगभग पाँच सौ सड़क मार्ग बंद हो गए थे। स्कूली बच्चे डूबे, मरे, वाहन फंसे रहे। मलबे का हलवा गाड़ियों में घुस गया। बिजली प्रोजेक्ट बंद सिल्ट का राज रहा। स्कूल बंद, सरकारी कर्मचारी रास्तों में फंसे, आम जनता परेशान रही। बाज़ारों में पानी, दुकानों, घरों, दफ्तरों में पसरा, कम चौड़े मुहानों से पानी नहीं निकला पाया क्यूंकि प्लास्टिक व दूसरा कचरा भी अटा पड़ा रहा। मरीज परेशान, पगडंडियों में प्रसव और मौत भी। पीने का पानी नहीं मिला, बीमारियां बढ़ीं। मलबा हटाने में मशीनें लगी रहीं, काम मैनुअल भी करना पड़ता है, मलबा जमा हो गया है, समय लगता है। क्या यह मलबा पहले की तरह हटा कर आस पास फैलाया, गिराया जा रहा है।

बारिश तो पहले भी बहुत होती थी। दादी कहती हैं शनिवार को लगी झड़ी कई दिन नहीं रुकती थी। पहले नुकसान कम होता था क्यूंकि अनियंत्रित विकास कम होता था अब विकास है कि बुलेट ट्रेन पर सवार हैं हम। अब बारिश रुक भी जाती है तो मलबा गिरता, फैला रहता है। विकास के कई मोहल्लों में मकान इतने सटकर बनाए हैं कि अर्थी निकालना मुश्किल। पैदल चलना दूभर है पानी की पाइपें पाँव से लिपट जाती हैं, हर जगह सीमेंट कर पक्का कर दिया कहीं पानी घुस न जाए। मकान बनाकर मलबा यहां वहां रख दिया या खड्ड में फेंक दिया, बारिश उसे सड़क पर ले आती है। पेड़ के आसपास साफ कर मकान बना लेते हैं। विकास भी हो जाता है और पर्यावरण की रक्षा भी, कुछ साल बाद नंगी जड़ें पेड़ को हटवा लेती हैं। मिलजुलकर भाईचारे की सफल नीति के अंतर्गत सब हो जाता है। अवैध व अवैज्ञानिक खनन, नदियों के रास्ते बदल कर होटल निर्मित किए गए हैं। जो अफसर ईमानदारी व कर्मठता दिखाए उसे दूसरी जगह दिखा दी जाती है। अभी तो सुरंगें बन रही हैं। पानी वक़्त की मानिंद खुद्दार होता है उसे रास्ता बनाना आता है। प्राचीन काल में पढ़ते थे कि वृक्ष की जड़ें मिट्टी को रोके रखती थी जिससे बहते पानी की गति भी कम हो जाती थी। बारिश का पानी बचाने के उपाय भी अंग्रेज़ तो कर गए थे लेकिन हमारे बस में किसी भी चीज़ को संरक्षित करना नहीं है। अनियोजित शहर, अंधा आधुनिकीकरण, विदेशों की गलत नकल कर विस्तार व निर्माण, जल निकासी पर समुचित ध्यान नहीं, खुले नाले, प्लास्टिक व दूसरा कचरा हमेशा अटा पड़ा होता है, सफाई नहीं होती।

बारिश से ज़्यादा नुकसान लोक निर्माण विभाग, सिंचाई एवं स्वास्थय विभाग, कृषि एवं बागवानी विभाग का होता है। सड़कें तो हमेशा बहुत बढ़िया बनाई जाती हैं और उनकी मुरम्मत का काम सदबुद्धि से प्रेरित हो बरसात से पहले कर दिया जाता है। क्या चंबा, कुल्लू, मंडी, शिमला, किन्नौर, सोलन, बिलासपुर जैसे संवेदनशील क्षेत्रों में निर्माण कार्य अनुशासित ढंग से होता है। आपदा प्रबंधन पर हमेशा एक अच्छी बैठक होती है। कार्यशालाओं के नाम पर चर्चा एवं खर्चा संजीदगी से होता है तभी दावों और जमीनी हकीकत में काफी फर्क आ जाता है। मोकड्रिल का आपदा प्रबंधन भी तो नकली होता है। सैंकड़ों करोड़ों का नुकसान होता है जिसमें राहत हमेशा ऊंट के मुंह में जीरा जैसी आती है। राज्य आपदा कोश में जो प्रावधान है उससे तो आपदा का मुंह भी नहीं भरता। टोल फ्री नंबर ऐन मौके पर खराब रहता है या वहां का बंदा खराब होता है। क्या आपदा प्रबंधन एक वस्तु है जिसे ठीक से रखने के लिए हमारे पास उचित जगह नहीं है। विकास एवं विनाश की राशि एक है, वैसे भी बरसात बीत चुकी है धीरे धीरे बात भी बीत जाएगी। अगले मौसम के वस्त्र बाज़ार में आने लगे हैं। लेकिन अगले बरस पानी बरसने से पहले ज़रूरी है कुदरत के साथ संतुलन बनाए रखने प्रयास ईमानदार व पारदर्शी हों। पहाड़, वृक्ष, पक्षी, जानवर, हवा, मिट्टी और जल जैसे कुदरत के अनमोल उपहारों को असंतुलित व अवैज्ञानिक दृष्टिकोण ने बहुत नुकसान पहुंचाया है। विकास ज़रूरी है, लेकिन किस तरह के विकास से कैसा नुकसान संभावित है यह अनुमान लगाना मुश्किल नहीं। हम सब पर्यावरण प्रेमी बनने का संजीदा अभिनय न करते हुए, वास्तविक व सही आवश्यकता के आधार पर विकास से संबन्धित व्यक्तिगत, सामाजिक, धार्मिक व राजनीतिक निर्णय लें तो भविष्य में मलबे की बारिश को कम, नियंत्रित किया जा सकता है।

-संतोष उत्सुक

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