कश्मीर संबंधी संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद की रिपोर्ट आधारहीन

UNHRC report on Kashmir is baseless

संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने यूएन मानवाधिकार उच्चायुक्त जीद राद अल हुसैन की कश्मीर में मानवाधिकारों की स्थिति पर अंतरराष्ट्रीय जांच की मांग का समर्थन किया है।

संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने यूएन मानवाधिकार उच्चायुक्त जीद राद अल हुसैन की कश्मीर में मानवाधिकारों की स्थिति पर अंतरराष्ट्रीय जांच की मांग का समर्थन किया है। इससे जाहिर है कि मानवाधिकारों के अधिकारों की वैश्विक और सबसे बड़ी पंचायत अपनी प्रासंगिकता खोती जा रही है। संयुक्त राष्ट्रसंघ का यह संगठन अब हास्य का पात्र बनता जा रहा है। वजह है इसका पक्षपातपूर्ण रवैया। ऐसे बेतुके बयानों और निर्णयों के कारण यूएन की साख में लगातार गिरावट आ रही है। अमेरिका और चीन जैसे देशों ने तो इसकी उपेक्षा करके पहले ही आईना दिखा दिया है।

आश्चर्य की बात तो यह है कि संयुक्त राष्ट्र जैसी संस्था ने आतंकवाद को देखने का नजरिया दुरूस्त नहीं किया। इसे भी अच्छे और खराब आतंकवाद से जोड़ कर देखा जा रहा है। यदि पश्चिमी देशों पर आतंकवादी हमला हो तो वह आतंकवाद कहलाता है और यदि भारत में सेना या सुरक्षा बल आतंकियों पर कार्रवाई करें तो यह खराब आतंकवाद की श्रेणी में माना जाता है। जबकि भारत वैश्विक मंचों से इस मामले में आवाज मुखर करता रहा है कि आतंकवाद सिर्फ आतंकवाद है, इसे अच्छे और खराब के नजरिए से नहीं देखा जा सकता। संयुक्त राष्ट्र का इससे ज्यादा पक्षपातपूर्ण रवैया क्या होगा कि यूएन ने अपनी ही उस रिपोर्ट को नकार दिया, जिसमें कहा गया था कि तीनों राज्यों के आतंकी नाबालिगों का इस्तेमाल आतंकी बनाने में कर रहे हैं।

यूएन महासचिव गुटेरेस इस मुद्दे को दरकिनार कर गए। ऐसे में संयुक्त राष्ट्र की नीतियों से भरोसा उठना लाजिमी है। वैसे भी भारत आतंकवाद का दंश दशकों से झेल रहा है। पाकिस्तान दो बार युद्ध में मात खाने के बाद भारत से दुश्मनी निकालने के लिए आतंकवाद का सहारा ले रहा है। मुंबई में और संसद पर हमले जैसी कार्रवाइयों में पाकिस्तान का सीधा हाथ होना साबित हो चुका है। पाकिस्तान लगातार कश्मीरियों को भड़काने की र्कारवाई में लगा हुआ है। कश्मीर में ज्यादती मानवाधिकार का उल्लंघन नहीं बल्कि पाकिस्तान की देन है। सरकार ने हर संभव लोकतांत्रिक तरीकों से राज्य के संचालन का प्रयास किया। लोकतांत्रिक संस्थाओं की स्वस्थ परंपरा के तहत ही विधान सभा और लोकसभा के चुनाव कराए गए। राज्य की सत्ता को चुने हुए राजनीतिक दल को सौंपा। 

इसके बावजूद आतंकियों और उनके खैरख्वाहों की हरकतों में कोई कमी नहीं आई। यहां तक की रमजान के दौरान सैन्य कार्रवाई तक स्थगित कर दी। इस अवधि में भी आतंकियों और पत्थरबाजों की कार्रवाई में कोई कमी नहीं आई। मानवाधिकार संयुक्त राष्ट्रसंघ के प्रति बढ़ते अविश्वास का ही परिणाम है कि बर्मा जैसे छोटे से देश ने रोहिंग्या मुस्लिमों पर ज्यादतियों के मामले में मानवाधिकार दल के प्रतिनिधियों को उलटे पांव लौटने पर मजबूर कर दिया। बर्मा ने इन्हें प्रवेश देकर जांच कराने से साफ इंकार कर दिया। भारत को भी ऐसा ही दृढ़ निश्चय दिखाना होगा। संयुक्त राष्ट्र और उसकी मानवाधिकार जैसी संस्थाओं को दशकों से पाकिस्तान का आतंकवाद और उसे चीन की सरपरस्ती नजर नहीं आ रही है।

मानवाधिकार आयोग को कश्मीर, छत्तीसगढ़ और झारखंड में आतंकियों पर की जा रही र्कारवाई में मानवाधिकारों का उल्लंघन नजर आया किन्तु इन राज्यों में कानून−व्यवस्था बहाल करने और विकास के सरकारी प्रयास नजर नहीं आए। यूएन के महासचिव गुटेरेस ने हुसैन के बयान का समर्थन करने से पहले यह तक नहीं देखा कि दो साल पहले जब समूचा कश्मीर बाढ़ जैसी आपदा से घिर गया तब सेना के जवानों ने अपनी जान दांव पर लगाते हुए हजारों लोगों की जान बचाई। आपदा में फंसे लोगों के रहने−खाने का इंतजाम किया गया। केन्द्र सरकार ने देश के अन्य बाढ़ग्रस्त राज्यों की तुलना में कश्मीर में दिल खोल कर मदद की।

कश्मीर के गुमराह युवकों को समाज और देश की मुख्य धारा में लाने के भरसक प्रयास किए जा चुके हैं। शिक्षा के साथ रोजगार के अतिरिक्ति अवसर मुहैया कराए गए। सेना पर पत्थरबाजी जैसे देशद्रोही कृत्य में शामिल होने के बाद भी उन्हें यह सोच कर बार−बार माफी दी गई कि युवा गुमराह हैं, इनका भविष्य खराब न हो। इसके बावजूद आतंकवादियों को छिपाने के लिए सेना पर पत्थरबाजी जारी है। इन तीनों राज्यों में अब तक हजारों सैन्य और पुलिसकर्मी शहीद हो चुके हैं। आतंकियों के विरूद्ध कार्रवाई के दौरान हमेशा इस बात का ख्याल रखा जाता रहा कि किसी निर्दोष की जान नहीं चली जाए। यहां तक कि आतंकियों के परिजनों के खिलाफ कोई कानूनी कार्रवाई नहीं की गई। ऐसे मामलों में मानवाधिकारों के उल्लंघन से बचा गया।

केन्द्र और राज्य सरकारों ने भरसक प्रयास किए कि नक्सली राष्ट्र की मुख्यधारा में शामिल होकर लोकतांत्रिक तरीके से अपनी बात रखें। इसके लिए कई बार अपील की गई। इतना ही नहीं समर्पण करने वाले नक्सलियों के पुनर्वास और रोजगार का इंतजाम तक किया गया, जिनके हाथ दर्जनों लोगों के खून से रंगे हुए रहे। इन राज्यों में विकास के विशेष पैकेज जारी किए गए। बुनियादी सुविधाओं का विस्तार किया गया। नक्सलियों ने इन सुविधाओं में भी बाधा पहुंचाई ताकि सरकार की पहुंच आम लोगों तक नहीं हो सके। रेल की पटरियों, पुलों, सड़कों और यहां तक स्कूलों को भी नक्सलियों ने निशाना बनाया।

तीनों राज्यों में ही मुखबरी के शक में आतंकियों ने दर्जनों निर्दोष लोगों की हत्या कर दी। चुनावों के दौरान मतदाताओं को डराने−धमकाने का काम किया। हालांकि इस दौरान चुनाव आयोग के पुख्ता सुरक्षा इंतजामों के कारण ज्यादा हिंसा नहीं हो सकी। सफलतापूर्वक हुए चुनाव ही आतंकियों की हार साबित हुए। मतदाताओं ने इनकी हरकतों को नकार दिया। यह भी संयुक्त राष्ट्रसंघ को दिखाई नहीं दिया। बेहतर होगा कि केंद्र सरकार संयुक्त राष्ट्रसंघ के ऐसे भेदभावपूर्ण रवैये को दरकिनार करे और तीनों राज्यों के भटके हुए युवाओं को रास्ते पर लाने के प्रयास जारी रखे।

-योगेन्द्र योगी

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