मजदूरों के हक के लिए लड़ने वाले नेता अब कहां मिलते हैं
फर्नांडिस, दत्तोपंत ठेंगडी और वामपंथी नेताओं के अस्त होते ही मजदूर आंदोलन भी बिखर गया। आज कोई सर्वमान्य नेता नहीं होने के कारण मजदूरों की लड़ाई ठंडी पड़ गई है। इसके साथ मई दिवस का आयोजन भी रसमी हो चला है।
दुनिया के मजदूरों एक हों, का नारा विश्व में अवश्य बुलंद हुआ मगर भारत में आज भी मजदूर रोटी, कपड़ा और मकान की बुनियादी जरूरतों के लिए तरस रहे हैं। इस दौरान यह प्रगति जरूर देखने को मिली की संगठित क्षेत्र के मजदूरों को पूरा वेतन मिलने लगा। मगर असंगठित क्षेत्र के मजदूर इससे वंचित हैं। मजदूर नेता जॉर्ज फर्नांडिस की रेल का चक्का जाम करने की सफल हड़ताल के बाद मजदूर अपने अधिकारों के प्रति सचेत होने लगे। उन्हें लगने लगा कि अपने बुनियादी हकों के लिए एक हो कर लड़ाई लड़ी गई तो सफलता निश्चित है। साम्यवादी शासित प्रदेशों में मजदूरों को पूरा नहीं तो आधा अधूरा न्याय अवश्य मिला। उनकी रोटी की मुश्किलें हल हुईं और शिक्षा चिकित्सा के भी माकूल प्रबंध हुए। सातवें दशक में कई बार मजदूर आंदोलनों ने अंगड़ाई ली। विभिन्न विचार धाराओं से जुडी यूनियन एक हुईं जिससे मजदूरों का भला ही हुआ मगर उसके बाद मजदूर नेताओं के आपसी अहम् की लड़ाई तेज हो गई। फर्नांडिस, दत्तोपंत ठेंगडी और वामपंथी नेताओं के अस्त होते ही मजदूर आंदोलन भी बिखर गया। आज कोई सर्वमान्य नेता नहीं होने के कारण मजदूरों की लड़ाई ठंडी पड़ गई है। इसके साथ मई दिवस का आयोजन भी रसमी हो चला है।
अंतरराष्ट्रीय श्रमिक दिवस को अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस के नाम से भी जाना जाता है। इसे पूरे विश्व भर में 1 मई को मनाया जाता है। मजदूरों के इस विश्वव्यापी आंदोलन से भारत भी अछूता नहीं रह सका। देश के स्वाधीनता आंदोलन में मजदूरों की उल्लेखनीय भूमिका रही। हमारे यहाँ मई दिवस का प्रथम आयोजन 1923 में हुआ। प्रथम मई को मद्रास के समुद्र तट पर आयोजित इस प्रथम मई दिवस के समारोह के अध्यक्ष मजदूर नेता श्री चेट्टीयार थे। इसके बाद राष्ट्रीय स्तर पर और संगठित रूप में इसका आयोजन 1928 में हुआ। उस समय से लेकर अब तक हमारे यहाँ मई दिवस का आयोजन प्रतिवर्ष बहुत उत्साह के साथ होता रहा है।
भारत में वर्तमान में एक दर्जन संगठन ऐसे हैं जिन्हें केंद्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त है। इनमें भारतीय मजदूर संघ, हिंद मजदूर सभा, आल इंडिया ट्रेड यूनियन, लेबर प्रोग्रेसिव यूनियन, इंडियन ट्रेड यूनियन, इंडियन ट्रेड यूनियन काउंसिल, सेंटर फॉर इंडियन ट्रेड यूनियन, टेलीकॉम प्रोग्रेसिव यूनियन आदि शामिल हैं। आजादी के बाद एसए डांगे, ज्योतिर्मय बसु, एके गोपालन, नंबूदरीपाद, एसएम बनर्जी, वीवी गिरी, एपी शर्मा, पीटर अलवारिस, जॉर्ज फर्नांडिस, दत्तोपंत ठेंगड़ी, दत्ता सामंत, उमरावमल पुरोहित सरीखे मजदूर नेताओं ने मजदूरों की भलाई के लिए जीवन पर्यन्त संघर्ष किया और उन्हें सफलता भी मिली। मजदूरों को आवास की सुविधा मिली। भोजन का स्तर भी सुधरा। बच्चों को शिक्षा सहित रहन सहन के अच्छे अवसर मिले। मजदूरों के बड़े आंदोलन भी इस अवधि में देखने को मिले। भूख हड़ताल से भी देश गुजरा। कामगारों को अपने हक के लिए तमाम कुर्बानियां देनी पड़ीं। इसका असर यह हुआ कि मजदूर पढ़ने लिखने लगा, बच्चों को भी अच्छी शिक्षा मिली। साल 2012 के आंकड़े बताते हैं कि भारत में मजदूरों की कुल संख्या 4 करोड़ 87 लाख थी जिनमें 94 प्रतिशत मजदूर असंगठित क्षेत्र के थे। आज असंगठित क्षेत्र का मजदूर 12 से 14 घंटे तक काम करने को मजबूर है। मौजूदा समय भारत और अन्य मुल्कों में मजदूरों के 8 घंटे काम करने का संबंधित कानून लागू है।
मजदूर हमारे समाज का वह तबका है जिस पर समस्त आर्थिक उन्नति टिकी होती है। वह मानवीय श्रम का सबसे आदर्श उदाहरण है। वह सभी प्रकार के क्रियाकलापों की धुरी है। आज के मशीनी युग में भी उसकी महत्ता कम नहीं हुई है। उद्योग, व्यापार, कृषि, भवन निर्माण, पुल एवं सड़कों का निर्माण आदि समस्त क्रियाकलापों में मजदूरों के श्रम का योगदान महत्त्वपूर्ण होता है। मजदूर अपना श्रम बेचता है। बदले में वह न्यूनतम मजदूरी प्राप्त करता है। उसका जीवन−यापन दैनिक मजदूरी के आधार पर होता है। जब तक वह काम कर पाने में सक्षम होता है तब तक उसका गुजारा होता रहता है। जिस दिन वह अशक्त होकर काम छोड़ देता है, उस दिन से वह दूसरों पर निर्भर हो जाता है। भारत में कम से कम असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की तो यही हालत है। असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की न केवल मजदूरी कम होती है, अपितु उन्हें किसी भी प्रकार की सामाजिक सुरक्षा भी प्राप्त नहीं होती। महात्मा गांधी ने कहा था कि किसी देश की तरक्की उस देश के कामगारों और किसानों पर निर्भर करती है। उद्योगपति स्वयं को मालिक या प्रबंधक समझने की बजाय अपने−आप को ट्रस्टी समझें।
- बाल मुकुन्द ओझा
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