म्यांमार में सेना के अत्याचार झेल रही जनता की मदद के लिए कोई देश क्यों नहीं आ रहा आगे ?

Myanmar

पूर्व में म्यांमार में लंबे समय तक लोकतंत्र बहाली के लिए प्रयास करता रहा भारत भी ज्यादा सख्त रुख नहीं दिखा रहा है जिससे कई गंभीर सवाल उठ रहे हैं। भारत हिंसा की तो निंदा कर रहा है लेकिन अब तक सैन्य तख्तापलट की निंदा नहीं की गयी है।

म्यांमार में सेना द्वारा तख्तापलट के दो महीने पूरे हो गये हैं और देश के विभिन्न शहरों में लोगों का विरोध प्रदर्शन तमाम अत्याचारों के बावजूद अब भी जारी है। भारत के पड़ोस में हो रहे इस बवाल के पीछे चीन का हाथ माना जा रहा है। लोकतंत्र विरोधी चीन की शह पर ही म्यांमार की सेना ने सरकार का तख्तापलट कर कमान संभाली है और चीन के ही स्टाइल में म्यांमार अपने ही लोगों पर गोलीबारी और बमबारी कर रहा है। आम जनता के खिलाफ सेना की कार्रवाई में बच्चों सहित सैंकड़ों लोगों की मौत हो चुकी है और यह रक्तपात अभी और बढ़ने की आशंका है लेकिन इसके बावजूद संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद समेत दुनिया के बड़े देश एक तरह से चुप्पी साध कर ही बैठे हुए हैं। संयुक्त राष्ट्र ने म्यांमार की स्थिति पर जो बैठक की उसे भी मात्र दिखावा ही कहा जायेगा क्योंकि इसमें चर्चा के मसौदे में शामिल कड़े शब्दों को बदल कर नरम कर दिया गया।

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पूर्व में म्यांमार में लंबे समय तक लोकतंत्र बहाली के लिए प्रयास करता रहा भारत भी ज्यादा सख्त रुख नहीं दिखा रहा है जिससे कई गंभीर सवाल उठ रहे हैं। भारत हिंसा की तो निंदा कर रहा है लेकिन अब तक सैन्य तख्तापलट की निंदा नहीं की गयी है। सवाल उठता है कि भारत को यह चिंता तो नहीं सता रही कि तख्तापलट की निंदा कर दी गयी तो कहीं म्यांमार पूरी तरह चीन के साथ ना हो जाये? इसीलिए म्यांमार के सैन्य शासन की सख्त आलोचना तो दूर की बात है भारत उन आठ देशों में शामिल हो गया जिन्होंने 27 मार्च को नेपिडाव में म्यांमार सशस्त्र सेना दिवस सैन्य परेड में भाग लिया। हम आपको बता दें कि सशस्त्र सेना दिवस सैन्य परेड में भारत के अलावा चीन, रूस, पाकिस्तान, बांग्लादेश, वियतनाम, लाओस और थाइलैंड शामिल हुए। परेड में भारत की मौजूदगी इसलिए महत्वपूर्ण मानी गयी क्योंकि वहां एकमात्र प्रमुख लोकतंत्रिक देश भारत था। वैसे तो रूस और पाकिस्तान में भी लोकतंत्र है लेकिन वह कितना निष्पक्ष है यह अपने आप में बड़ा सवाल है।

जारी हैं घोर अत्याचार

जहां तक म्यांमार में इस समय के हालात की बात है तो वहां सैन्य शासन के घोर अत्याचारों के बावजूद लोग अब भी प्रदर्शन करते हुए लोकतंत्र को बहाल करने तथा हिरासत में लिए गए नेताओं को रिहा करने की मांग कर रहे हैं। उल्लेखनीय है कि म्यांमा में एक फरवरी को तख्तापलट के बाद सुरक्षा बलों ने प्रदर्शनकारियों के खिलाफ लगातार सख्त कार्रवाई जारी रखी है। यही नहीं पश्चिमी देशों द्वारा सैन्य शासन के खिलाफ पाबंदी के बावजूद प्रदर्शनकारियों के खिलाफ गोलीबारी की घटनाएं भी बदस्तूर जारी हैं। यही नहीं पुलिस की ओर से जगह-जगह छापेमारी और मॉलों तथा दुकानों को आग लगा देने का खेल भी खेला जा रहा है। म्यांमार में अब तक 500 से ज्यादा लोग लोकतंत्र के लिए लड़ाई में अपनी जान गंवा चुके हैं जिनकी याद में देश के सबसे बड़े शहर यांगून में सूर्योदय के तुरंत बाद युवाओं के एक समूह ने प्रदर्शन में मारे गए लोगों की याद में शोक गीत गाए। इसके बाद उन्होंने जुंटा शासन के खिलाफ नारेबाजी की और अपदस्थ नेता आंग सान सू ची को रिहा करने तथा लोकतंत्र को बहाल करने की मांग करते हुए सड़कों पर प्रदर्शन किया। यांगून की तरह मांडले तथा अन्य शहरों में भी प्रदर्शनकारी बड़ी संख्या में एकत्र हुए। म्यांमार के करिन प्रांत के कई इलाकों में तो दर्जनों नागरिकों के मारे जाने और 20,000 से ज्यादा लोगों के विस्थापित होने की भी सूचना मिली है।

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गृह युद्ध का खतरा

इस बीच, म्यांमार के लिए संयुक्त राष्ट्र की विशेष दूत क्रिस्टीने स्क्रेनर बर्गेनर ने आगाह किया है कि देश में गृह युद्ध का खतरा मंडरा रहा है। उन्होंने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद से लोकतंत्र बहाल करने के लिए ठोस कार्रवाई की संभावना पर विचार करने को कहा है। बर्गनर ने यह भी कहा है कि म्यांमार के शरणार्थियों का भारत और थाईलैंड की सीमाओं और अन्य स्थानों पर प्रवेश एक गलत संकेत है लेकिन यह अभी महज शुरुआत मात्र ही है। उन्होंने आगाह किया है कि क्षेत्रीय सुरक्षा बदतर होगी और कहा कि क्षेत्र में कोई भी देश यह नहीं चाहेगा कि उसका पड़ोसी एक असफल राज्य हो।

क्या है 2008 का संविधान?

उधर, म्यांमार के विभिन्न शहरों में प्रदर्शनकारियों ने 2008 के संविधान की प्रतियां जलायीं। म्यांमार में पद से हटाए गए सांसदों समेत विपक्षी समूह ने सेना के निर्देश के तहत 2008 में देश के घोषित संविधान को अमान्य बताया है और इसके स्थान पर एक अंतरिम संविधान पेश किया, जो सत्तारुढ़ जुंटा के लिए एक बड़ी राजनीतिक चुनौती है। हालांकि यह कदम व्यावहारिक नहीं, बल्कि सांकेतिक है। सेना के तख्तापलट के बाद भूमिगत हुए निर्वाचित सांसदों द्वारा स्थापित स्वयंभू वैकल्पिक सरकार सीआरपीएच ने सोशल मीडिया पर इन कदमों की घोषणा की। हम आपको बता दें कि सैन्य शासन के तहत 2008 में लागू संविधान में यह व्यवस्था है कि सत्ता में सेना का प्रभुत्व बना रहे जैसे कि संसद में एक तिहाई सीट सेना के लिए आरक्षित करना और देश की सुरक्षा की जिम्मेदारी लेना। एक फरवरी को निर्वाचित सरकार को हटाकर सत्ता हथियाने वाले जुंटा ने संविधान में आपातकाल के प्रावधानों का हवाला देते हुए ही तख्तापलट किया था। अब सीआरपीएच ने एक अंतरिम संविधान पेश किया है इसका मकसद म्यांमार में सैन्य तानाशाही के लंबे इतिहास को खत्म करने के साथ ही अपने क्षेत्र में वृहद स्वायत्तता के लिए असंख्य जातीय अल्पसंख्यक समूहों की दीर्घकालीन मांगों को पूरा करना है। सीआरपीएच ने उसे म्यांमार की एकमात्र वैध सरकार के तौर पर मान्यता दिए जाने की मांग की है। विदेशी सरकारों और अंतरराष्ट्रीय संगठनों ने उसे अभी औपचारिक दर्जा नहीं दिया है लेकिन कुछ इसे सरकार का एक पक्ष मानते हैं जिससे कम से कम चर्चा तो की जानी चाहिए। लेकिन जुंटा ने इसे देशद्रोही घोषित किया है।

पड़ोसी देशों की मुश्किलें बढ़ीं

उधर, म्यांमार की सेना के अत्याचारों से पड़ोसी देशों की मुश्किलें बढ़ गयी हैं क्योंकि हजारों लोग भागकर दूसरे देशों में शरण लेने पहुँच रहे हैं। सेना ने इस सप्ताह मंगलवार को म्यांमार के पूर्वी हिस्से में और हवाई हमले किए। इससे पहले भी इसी तरह की कार्रवाई की वजह से कारेन जाति के हजारों लोगों को थाईलैंड भागना पड़ा था। थाईलैंड पर आरोप लगा कि उसने म्यांमार के लोगों को वापस भेज दिया तो वहां के प्रधानमंत्री ने इस बात से इंकार किया कि देश के सुरक्षा बलों ने म्यांमार में हवाई हमलों से बचकर आए गांव वासियों को वापस भेज दिया है। उन्होंने कहा कि उनकी सरकार संघर्ष से बचकर आए किसी भी व्यक्ति को शरण देने के लिये तैयार है। दूसरी ओर भारत ने भी म्यांमार से लगते अपने राज्य मिजोरम की सरकार से सावधानी और सतर्कता बरतने को कहा है लेकिन रिपोर्टों के मुताबिक म्यांमार से शरणार्थी भारत आ ही रहे हैं।

म्यांमार पर क्या है भारत का रुख?

जहाँ तक भारत की बात है तो देश ने म्यांमार में हिंसा की निंदा की और लोगों की मौत पर शोक जताया, साथ ही म्यांमार से अधिक से अधिक संयम बरतने और हिरासत में लिए गए नेताओं को रिहा करने की अपील की है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने म्यांमार की स्थिति पर बंद कमरे में चर्चा की। इस चर्चा के बाद संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थायी प्रतिनिधि टीएस तिरुमूर्ति ने ट्वीट किया कि बैठक में उन्होंने ‘‘हिंसा की निंदा की, लोगों की मौत पर शोक जताया, अधिक से अधिक संयम बरतने की अपील की, लोकतांत्रिक सत्ता हस्तांतरण के लिए प्रतिबद्धता जताई, हिरासत में लिए गए नेताओं को रिहा करने की मांग की और आसियान देशों की कोशिशों का स्वागत किया।’’

संयुक्त राष्ट्र क्या कर रहा है?

जहाँ तक संयुक्त राष्ट्र की बात है तो सुरक्षा परिषद ने म्यांमार में शांतिपूर्ण तरीके से प्रदर्शन कर रहे लोगों के खिलाफ हिंसा और सैकड़ों नागरिकों की मौत की निंदा तो की लेकिन एक फरवरी के तख्तापलट के बाद म्यांमार की सेना के खिलाफ भविष्य में की जाने वाली संभावित कार्रवाई के खतरे को कम कर दिया। ऐसा संयुक्त राष्ट्र में इसलिए संभव हो सका क्योंकि चीन ने म्यांमार का पक्ष लिया। दरअसल सुरक्षा परिषद म्यांमार की स्थिति पर बैठक के दौरान जिस मसौदे पर चर्चा कर रही थी वह काफी कठोर था, जिसमें प्रतिबंध लगाने सहित सुरक्षा परिषद के अन्य कदमों पर विचार करने को तैयार होने का जिक्र था। लेकिन म्यांमार के पड़ोसी एवं दोस्त चीन के जोर देने पर अंतिम बयान में बदलाव किए गए और ‘‘आगे की कार्रवाई’’ का जिक्र हटा दिया गया और ‘‘हत्या’’ तथा ‘‘निंदा’’ जैसे शब्दों की जगह नरम शब्दों का इस्तेमाल किया गया। अंतिम बयान में ‘‘आगे की कार्रवाई’’ को इस वाक्य में बदल दिया गया कि परिषद के सदस्यों ने ''इस बात पर जोर दिया है कि वे स्थिति पर करीब से नजर बनाए रखेंगे और मामले पर विचार करते रहेंगे।’’

बहरहाल, दुनिया को चाहिए कि म्यांमार की जनता का साथ दे और चीन की चालबाजियों को कामयाब होने से रोका जाये क्योंकि म्यांमार में जो कुछ हो रहा है उससे उन देशों के लिए मुश्किलें बढ़ सकती हैं जहां सेना की ओर से तख्तापलट किये जाते रहे हैं। 

-नीरज कुमार दुबे

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