बच्चे का सामान्य विद्यार्थी होना अभिभावकों को क्यों स्वीकार नहीं?

why parents not accepting child a normal student
डॉ. संजीव राय । Jun 12 2018 1:02PM

क्या अभिभावक अपने बच्चे का एक सामन्य विद्यार्थी होना स्वीकार नहीं कर सकते? जीवन की हर विधा में कोई अव्वल नहीं रह सकता है। समाज का सफल से सफल व्यक्ति, असफलता की राह से गुजरा हुआ है।

आज सुबह पार्क में टहलते हुए, उम्र में बड़े एक मित्र ने पूछ लिया कि, आज कल दसवीं-बारहवीं में इतने नंबर कैसे आते हैं ? अभी-अभी सीबीएसई के दसवीं के परिणाम आये हैं और सर्वोच्च स्थान प्राप्त करने वाले छात्र को 500 में से 499 अंक मिले हैं। पिछले एक दशक में, दसवीं में 90% से अधिक अंक पाने वाले छात्रों का प्रतिशत 1% से बढ़ कर अब 7% तक हो गया है। साथ ही, दसवीं-बारहवीं के परिणाम आने के बाद कुछ बच्चों के आत्म हत्या कर लेने की घटनाएं भी अब सामान्य होती जा रही हैं।

निश्चित रूप से मेधावी छात्रों की क्षमता, उनकी मेहनत और परीक्षा की अच्छी तैयारी उन्हें एक बेहतर परिणाम दिलाती है और उनकी इस सफलता के लिए उन्हें इसका श्रेय भी परिवार, स्कूल और समाज अपने-अपने तरीके से देते हैं। लेकिन ऐसा क्या है कि छात्रों की मेधा के अलावा, प्राप्तांकों का प्रतिशत, गणित-विज्ञान के अतिरिक्त अंग्रेजी-संस्कृत जैसे विषयों में भी सौ प्रतिशत तक पहुँच जा रहा है ? दसवीं के परीक्षा परिणाम आने के बाद जहाँ 90 % से अधिक अंक पाने वाले छात्रों को whatsapp, फेसबुक से लेकर व्यक्तिगत रूप से बधाईयां मिल रही हैं वहीं अन्य सफल छात्र एक सामाजिक और कहीं-कहीं पारिवारिक दबाव झेल रहे हैं। जो परीक्षा पास नहीं कर सके, उनकी कोई सुध लेने वाला नहीं है। कुछ माता-पिता, जिनके बच्चों के परिणाम उनकी अपेक्षा से कम आए हैं, अब बच्चे को कोपभाजन का शिकार बना रहे रहे हैं। अभिभावक ये भूल रहे हैं कि बच्चे ने अपनी क्षमता के अनुसार उस परिस्थिति में बेहतर किया है। क्या अभिभावक, बच्चे की उम्मीद पर खरे उतर रहे हैं?

परीक्षा में ज़्यादा नंबर अब इसलिए भी आ रहे हैं क्योंकि, परीक्षा और मूल्यांकन का तरीका बदल गया है। पहले के मुकाबले सिलेबस कम हो गया है। पूर्व के वर्षों में नवी-दसवीं की बोर्ड की परीक्षा एक साथ होती थी लेकिन अब बोर्ड में सिर्फ दसवीं का पाठ्यक्रम शामिल रहता है। दसवीं की परीक्षा पद्धति ऐसी है जिसमें 20 अंक मूल स्कूल के अध्यापकों के हाथ में होते हैं। ये 20 अंक, गृहकार्य-नोटबुक, समझ की क्षमता और टेस्ट में प्रदर्शन आदि के आधार पर दिए जाते हैं। इसमें औसतन छात्र अच्छे अंक पा जाते हैं और मेधावी छात्र 19-20 तक क्योंकि अधिकांश स्कूल के शिक्षकों पर, एक बेहतर परिणाम देने का दबाव स्कूल के प्राचार्य और स्कूल प्रशासन की तरफ से रहता है। यदि किसी कक्षा का परिणाम ख़राब होता है तो प्राचार्य, शिक्षक-शिक्षिका को तलब करते हैं और कोई भी शिक्षक, स्थिति से बचना चाहता है, विशेष रूप से निजी विद्यालयों में ! इसी प्रकार, प्रायोगिक विषयों में भी आज कल उदारवादी ढंग से छात्रों को नंबर दिए जाते हैं। प्रायोगिक विषयों में प्राप्तांक शत प्रतिशत और उसके आस-पास होना अब विस्मय का विषय नहीं रहा।

परीक्षा की पद्धति अब ऐसी है जिसमें विश्लेषण परक लेख, निबंध लेखन और विस्तृत उत्तर की बजाय एक-एक अंक, दो-दो तीन-तीन अंक के सवाल बहुतायत में होते हैं। ऐसे सवालों के मूल्याकंन के जो तरीके हैं वह सीबीएसई तय करता है। सीबीएसई के मूल्यांकन का तरीका भी अंकों के बढ़ते ग्राफ में सहयोग करता है। अंग्रेजी के टेस्ट पेपर में ज़रूरी नहीं है कि मूल्यांकन करने वाले शिक्षक को स्पेलिंग और व्याकरण जांचने की छूट हो। संस्कृत में अगर छात्र, चित्र का भाव समझ रहा है और गलत व्याख्या भी करता है तो 2 में से उसको 1 अंक मिल जाता है। मूल्यांकन करने वाले ज़रूरी नहीं कि जिस विषय की कॉपी वह जांच रहे हैं, उसके एक्सपर्ट हों। प्राइवेट स्कूलों पर मूल्यांकन हेतु शिक्षकों को भेजने का दबाव तो रहता ही है तो ज़रूरी नहीं की वह विषय में दक्ष ही हों। सरकारी अध्यापक अपने प्रमोशन के लिए किसी अन्य विषय में पत्राचार आदि से स्नातकोत्तर कर लेते हैं और बाद में मूल विषय छोड़ कर अन्य विषय के अध्यापक हो जाते हैं। इन स्थितियों में, ऐसे मूल्यांकन कर्ता कम नंबर देने का जोखिम नहीं लेते हैं। हालाँकि सीबीएसई ने  दिल्ली में संयुक्त मूल्यांकन का तरीका अपनाया है जिसमें एक कॉपी को दो शिक्षक मिल कर जांचते हैं और मूल्यांकन प्रमुख भी उन कॉपियों को देखते और हस्ताक्षर करते हैं। संयुक्त मूल्यांकन का तरीका एक अच्छा प्रयोग है और इससे निष्पक्ष मूल्यांकन को मदद मिलती है।

टेस्ट पेपर्स के सामूहिक मूल्यांकन में एक अध्यापक को प्रतिदिन औसतन 25 कॉपी देखनी होती हैं। छात्र जिस कॉपी को तीन घंटे में लिखता है शिक्षक उसका मूल्यांकन औसतन 20 मिनट में करते हैं। शिक्षकों को और ज्यादा समय की ज़रूरत है जिससे वह छात्रों के कार्य का एक समग्र मूल्यांकन कर सकें। नम्बरों की बढ़ती दौड़ पर गम्भीरता से सोचने की ज़रूरत है। यशपाल समिति ने भारत की स्कूली शिक्षा में बदलाव की पहल के लिए परीक्षा-पद्धति को सबसे पहले बदलने की वक़ालत की थी और यह प्रक्रिया नए अनुभव के आधार पर चलती रहनी चाहिए।

ऐसा नहीं लगता कि सामाजिक दबाव में, हमारी अपेक्षा एक दसवीं में पढ़ने वाले बच्चे से कुछ ज़्यादा हो गई है। क्या एक स्कूल में या एक कक्षा में सभी छात्र मेधावी हो सकते हैं ? आगे चल कर कोई छात्र क्या करेगा, विज्ञान पढ़ेगा, सामाजिक विज्ञान पढ़ेगा या फिर संगीत सीखेगा, फोटोग्राफी करेगा, कुछ पता नहीं है। नम्बरों का बढ़ते जाना एक चिंता भी पैदा करता है कि अब 499/500 के आगे क्या ? अगर एक दसवीं के टॉपर बच्चे के बारहवीं में काम नंबर आये तो फिर क्या होगा ? एक सामान्य कक्षा में 60 प्रतिशत छात्र तो औसत ही होते हैं। तो माता-पिता को अनावश्यक तनाव लेने और बच्चे में हीन भावना भरने का क्या मतलब है ? बच्चे को उसकी गति और उपलब्धि के लिए बधाई दीजिये। स्कूल की पढ़ाई में आज औसत हैं, ऐसा आवश्यक तो नहीं कि वह आगे कुछ विशेष नहीं कर सकते। क्या अभिभावक अपने बच्चे का एक सामन्य विद्यार्थी होना स्वीकार नहीं कर सकते? जीवन की हर विधा में कोई अव्वल नहीं रह सकता है। समाज का सफल से सफल व्यक्ति, असफलता की राह से गुजरा हुआ है। ये और बात है कि सफलता के आगे, उसके असफलता के किस्से कोई नहीं सुनाता !

-डॉ. संजीव राय

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