प्रकृति में समाधान भरा पड़ा है पर हम दवाओं के जरिये ही इलाज चाहते हैं

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एसोचैम द्वारा पिछले दिनों जारी एक रिपोर्ट में सामने आया है कि 88 फीसदी दिल्लीवासियों में विटामिन डी की कमी है। यह स्थिति दिल्ली में ही नहीं अपितु कमोबेश देश के सभी महानगरों में देखने को मिल जाएगी।

यह कितनी दुर्भाग्यजनक स्थिति है कि हम मंहगी से मंहगी दवाएं खाने के लिए तैयार हैं पर केवल और केवल 20 मिनट धूप का सेवन नहीं कर सकते। इसका परिणाम भी साफ है। हडि्डयों में दर्द, फ्रेक्चर, जल्दी जल्दी थकान, घाव भरने में देरी, मोटापा, तनाव, अल्झाइमर जैसी बीमारियां आज हमारे जीवन का अंग बन चुकी हैं। शरीर की जीवनी शक्ति या यों कहें कि प्रकृति से मिलने वाले स्वास्थ्यवर्द्धक उपहारों से हम मुंह मोड़ चुके हैं और नई से नई बीमारियों को आमंत्रित करने में आगे रहते हैं। यह आश्चर्यजनक लेकिन जमीनी हकीकत है कि केवल और केवल मात्र पांच प्रतिशत महिलाओं में ही विटामिन डी पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है। देश की 68 फीसदी महिलाओं में तो विटामिन डी की अत्यधिक कमी है।

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इसी तरह से एसोचैम द्वारा पिछले दिनों जारी एक रिपोर्ट में सामने आया है कि 88 फीसदी दिल्लीवासियों में विटामिन डी की कमी है। यह स्थिति दिल्ली में ही नहीं अपितु कमोबेश देश के सभी महानगरों में देखने को मिल जाएगी। पता है इसका कारण क्या है? इसका कारण या निदान कहीं बाहर ढूंढ़ने के स्थान पर हमें हमारी जीवन शैली में थोड़ा से बदलाव करके ही पाया जा सकता है। पर इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि आधुनिकता की दौड़ में हम प्रकृति से इस कदर दूर होते जा रहे हैं कि जल, वायु, हवा, धूप, अग्नि और ना जाने कितनी ही मुफ्त में प्राप्त प्राकृतिक उपहारों का उपयोग ही करना छोड़ दिया है। ऐसा नहीं है कि लोग जानते नहीं हैं पर जानने के बाद भी आधुनिकता का बोझ इस कदर छाया हुआ है कि हम प्रकृति से दूर होते हुए कृत्रिमता पर आश्रित होते जा रहे हैं। दरअसल हमारी जीवन शैली ही ऐसी होती जा रही है कि प्रकृति की जीवनदायिनी शक्ति से हम दूर होते जा रहे हैं। कुछ तो दिखावे के लिए तो कुछ हमारी सोच व मानसिकता के कारण।

विटामिन डी की कमी के कारण हजारों रुपए के केमिकल से बनी दवा तो खाने को हम तैयार हैं पर केवल कुछ समय का धूप सेवन का समय नहीं निकाल सकते हैं। दरअसल हमने हमारी जीवन शैली ही इस तरह की बना ली है कि प्रकृति से हम दूर होते जा रहे हैं। आज हम स्कूलों में आयोजित मड़ उत्सव को तो धूम धाम से मनाने को तैयार हैं पर क्या मजाल जो बच्चे को खुले में खेलने के लिए छोड़ दें। मिट्टी में खेलने और खेलते-खेलते लग भी जाने पर प्राकृतिक तरीके से ही इलाज भी हो जाता है। तीन से चार दशक पुराने जमाने को याद करें तो कहीं लग जाने पर खून आता रहे तो वहां पर स्वयं का मूत्र विसर्जन करने या मिट्टी की ठीकरी पीस कर लगाने या चोट गहरी हो तो कपड़ा जला कर भर देने या खून लगातार आ रहा हो तो बीड़ी का कागज लगा देना तात्कालिक इलाज होता था। आज जरा सी चोट लगते ही हम हॉस्पिटल की ओर भागते हैं। यह सब तब होता था जब टिटनेस का सर्वाधिक खतरा होता था। आज यूरोपीय देश प्रकृति के सत्य को स्वीकारने लगे हैं और प्रकृति की ओर आने लगे हैं। खाना खाने से पहले हाथ धोने की जो हमारी सनातन परंपरा रही है उस ओर विदेशी लौटने लगे हैं। अभियान चलाकर हाथ धोने के लिए प्रेरित कर रहे हैं क्योंकि अब समझ में आने लगा है कि बाहर से आने पर हमारे शरीर व हाथों में कितने नुकसान दायक बैक्टेरिया होते हैं और वह बिना हाथ धोए खाना खाने पर हमारे शरीर में प्रविष्ठ कर जाते हैं और हमारे सिस्टम को तहस नहस कर देते हैं। स्कूलों में मड़ उत्सव या रेन डे मनाने का क्या मतलब है, इनमें भी हम बड़े उत्साह से भाग लेते हैं जबकि बरसात में बच्चा जरा-सा भीग जाए तो हम उसके पीछे पड़ जाते हैं। एक जमाना था तब पहली बरसात में क्या बड़े, क्या छोटे, सभी नहा कर आनंद लेते थे। यह केवल आनंद की बात नहीं बल्कि गर्मी के कारण हुई घमोरी का प्राकृतिक इलाज भी था। आज हम ना जाने कौन-कौन से पाउडरों का प्रयोग करने लगते हैं।

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ऐसा नहीं है कि विटामिन डी की कमी या प्रकृति से दूर होने की स्थिति हमारे देश में ही है। अपितु यह विश्वव्यापी समस्या बनती जा रही है। कैलिफोर्निया के टॉरो विश्वविद्यालय के एक अध्ययन में सामने आया है कि दुनिया में बड़ी संख्या में लोगों ने खुले में समय बिताना छोड़ दिया है। बाहर जाते हैं तब दुनिया भर के पाउडर, सनस्क्रीन और ना जाने किस किसका उपयोग करके निकलते हैं जिससे शरीर को जो प्राकृतिक स्वास्थ्यवर्द्धकता मिलनी चाहिए वह नहीं मिल पाती है और यही कारण है कि आए दिन बीमारियां जकड़ती रहती हैं। यहां तक कि लोग नई नई और गंभीर बीमारियों से ग्रसित होने लगे हैं।

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दुनिया के देशों के गैर सरकारी संगठनों और अन्य संस्थाओं को लोगों को प्रकृति से जोड़ने का अभियान चलाना होगा। हां यह अवश्य ध्यान रहे कि यह अभियान दुकान बन कर नहीं रह जाए। क्योंकि आज व्यावसायिकता इस कदर हावी हो चुकी है कि हवा, पानी तक बाजार में ऊँचे दाम देकर प्राप्त करना पड़ रहा है। ऐसे में लोगों को केवल प्रकृति के पंच तत्वों और उनकी ताकत का अहसास कराना ही काफी है। हमें भी कुछ समय प्रकृति से साक्षात्कार का निकालना ही होगा ताकि प्रकृति के मुफ्त उपहार की जगह मंहगे कैमिकलों के सहारे जीवन नहीं जीना पड़े। यह मत भूलिये कि दवाओं का साइड इफेक्ट होता है और देर सबेर वह नुकसान ही पहुंचाती है। ऐसे में संकल्प लें कि कुछ समय प्रकृति से जुड़ने के लिए भी निकालें।

-डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा

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