वृंदावन की लाचार, बेबस विधवाओं की आखिरकार मोदी सरकार ने सुध ली

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ललित गर्ग । Sep 7 2018 2:37PM

वक्त की मार झेली, अपनों के गहरे जख्म लिए, उपेक्षा की शिकार विधवाओं के लिए वृंदावन आश्रय स्थल के तौर पर जाना जाता है। यहां विधवाएं अपनी अंतिम सांसें गुजारने की इच्छा ले कर आती हैं लेकिन उनका जीवन यहां नरक से कम नहीं होता।

वक्त की मार झेली, अपनों के गहरे जख्म लिए, उपेक्षा की शिकार विधवाओं के लिए वृंदावन आश्रय स्थल के तौर पर जाना जाता है। यहां विधवाएं अपनी अंतिम सांसें गुजारने की इच्छा ले कर आती हैं लेकिन उनका जीवन यहां नरक से कम नहीं होता। वे यहां फटेहाल, भीख मांग कर अपना पेट भरती हैं या भजनाश्रमों में भजन करने के बदले उन्हें चंद रुपए दिए जाते हैं। इसके लिए भी उन्हें मंदिरों के पुजारियों के हाथ-पैर जोड़ने पड़ते हैं ताकि भजन-कीर्तन में उन का नंबर आ सके। कृष्ण नगरी को कंस नगरी होने से बचाना होगा। इसके लिये उपेक्षित एवं यातना का जीवन जीने वाली इन महिलाओं की सुध प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सरकार ने ली है। उनके केंद्रीय महिला एवं बाल कल्याण मंत्रालय की ओर से वृंदावन में रहने वाली लाचार, बेबस एवं बेसहारा विधवाओं के लिए आवास बनवाने की खबर राहत देने वाली है। निश्चित ही इस तरह के आवास बनने से इन विधवा एवं उपेक्षित महिलाओं के जीवन में एक नई सुबह होगी। पांच सौ साल पहले चैतन्य महाप्रभु द्वारा शुरू की गई इस प्रथा को बदनुमा होने से बचाना राष्ट्रीय अस्मिता एवं अस्तित्व के गौरव के लिये जरूरी है। 

विधवा महिलाओं की यह दुर्दशा वृंदावन के नाम पर एक कलंक बनता जा रहा है। जिस धर्म नगरी की कुंज गलियों में जहां कभी अपनी गोपियों से घिरे भगवान श्रीकृष्ण बांसुरी बजाया करते थे। या फिर कान्हा, अपने दोस्तों के साथ मिलकर दूध और मक्खन की मटकी फोड़ा करते थे। जिसके रग-रग में भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा नारी को गोपियों के रूप में सम्मानित एवं गौरवान्वित करने की कहानी गूंजती रही है, उस पुण्य धरा पर नारी के शोषण, उपेक्षा एवं कष्टों का होना विडम्बनापूर्ण एवं त्रासदी से कम नहीं है। क्योंकि आज वहां श्रीकृष्ण तो हैं लेकिन इससे पहले कि श्रीकृष्ण के भक्त उन गलियों, उन रास्तों में श्रीकृष्ण की बांसुरी की धुन सुन पाएं, कृष्ण को महसूस कर पाएं, उनका ध्यान उन महिलाओं की तरफ चला जाता है जिनका काम सिर्फ भीख मांगकर अपना पेट भरना रह गया है। वे भीख मांगने के लिए मजबूर इसलिए हैं क्योंकि उनका अपराध बस इतना है कि वे विधवा हैं। 

आज के वृंदावन की गलियों में ना तो अपने ग्वालाओं के साथ मटकी फोड़ते श्रीकृष्ण नजर आते ना ही बांसुरी की धुन में मंत्रमुग्ध गोपियां, ना ही श्रीकृष्ण के पीछे भागती उनकी मैया और ना ही मां की डांट सुनते कान्हा। अगर कुछ नजर आता है तो बस उन विधवाओं का दर्द, उनकी पीड़ा, उनका त्रासद जीवन। कुछ सुनाई देता है उन विधवाओं के मुंह से निकले श्रीकृष्ण के भजन, जिसे सुनकर आने-जाने वाले लोग उन्हें भीख दे जाते हैं। बरसों से यह बात सार्वजनिक जानकारी में है कि घर-परिवार और नाते-रिश्तेदारों द्वारा दुत्कार दी गयी, उपेक्षा की शिकार ये विधवा स्त्रियां यहां किस बेचारगी में गुजारा करती हैं। दुनिया में इनका कहीं कोई और ठिकाना नहीं होता, कोई इनकी खोज-खबर लेने वाला नहीं होता, इसलिए हर कोई इनके शोषण को तैयार बैठा रहता है। यहां की हर विधवा स्त्री की दुखभरी कहानी है। किसी का बेटा उन्हें मारता था तो किसी की बहू उन्हें खाना नहीं देती थी। यहां रहते हुए उन्हें लगता है “काश मैं संतानहीन होती, क्योंकि ऐसी औलाद से तो बांझ कहलाना ज्यादा अच्छा है।“ कुछ कम उम्र की विधवाएं ऐसी भी हैं जिनके ससुराल वाले उनके साथ नौकर से भी बुरा व्यवहार करते थे। इसलिए घर छोड़कर उन्हें वृंदावन आना पड़ा, यहां आकर उन्हें अच्छा लगता है, क्योंकि यहां लोग मारते-पीटते नहीं। लेकिन जिस तरह का परिदृश्य इन दिनों यहां भी देखने को मिल रहा है उससे तो यही लगता है कि कुएं से निकले और खायी में गिर पड़े।

विदेशी पर्यटक, छोटे-बड़े व्यापारी और अन्य दानदाता लोग वृंदावन के मंदिरों एवं भजनाश्रमों में लाखों-करोड़ों रुपये का चढ़ावा चढ़ाते हैं, इस उद्देश्य से कि इससे यहां अपने जीवन का अंतिम समय काटने आए वृद्ध स्त्री-पुरुषों, विधवाओं एवं बच्चों का पालन-पोषण होता रहेगा, लेकिन यह सारा चढ़ावा मंदिरों-भजनाश्रमों, मठों के पंडों-पुजारियों, धर्मगुरुओं की तिजोरियों में चला जाता है। वृंदावन की सड़कों पर झुर्रियों भरे चेहरे, दुःखों के काले घेरों से झांकती निरीह आंखों, सफेद गंदी धोतियों में झुकी कमर, लाठी के सहारे दर-दर भटकने और भीख मांगने वाली लाचार, बूढ़ी विधवा औरतों का दर्द अब दिखना चाहिए एवं ऐसी उजली भौर होनी जिससे नरक भोग रही इन महिलाओं को जीवन का उजाला मिल सके। 

आंकड़ों के मुताबिक, वृंदावन में करीब लगभग दस हजार विधवाएं सरकारी और गैरसरकारी आश्रमों में रहती हैं। फुटपाथों, रेलवे स्टेशन, मंदिरों की चौखट पर पड़ी रहने वाली व वहीं दम तोड़ देने वाली बूढ़ी विधवाओं का जीवन परोपकार एवं सेवा के नाम पर वाह-वाही लूटने वाले धनाढ्यों पर भी एक शर्मनाक धब्बा है। छोटी अंधेरी कोठरियों में इन्हें किराया देकर रहना पड़ता है। अपने पापों को धोने के नाम पर पुण्य जमा कराने के लिए समर्पित भाव से रोज आठ घंटे भजन गाने, झाल बजाने की एवज में जो मेहनताना इन्हें दिया जाता है वह किसी भी सभ्य समाज की नियत पर सवाल खड़े करता है कि आखिर इन विधवा महिलाओं का ही शोषण क्यों? विश्वास की धरती में दरारें क्यों? उन्हें निश्चिन्तता का आश्वासन कौन देगा? उनकी अपेक्षाओं को भरने वाला दीया कौन जलाएगा? और अविश्वास की दरारों को फटकार उसके विश्वास को आधार कौन देगा? जबकि करोड़ों-अरबों के तथाकथित साम्राज्य यहां रोज पनप रहे हैं। हमारे धनाढ्यों, धर्मगुरुओं एवं सामाजिक सेवा के नाम पर दुकानें चलाने वाले लोगों के श्रद्धाभाव के पीछे छिपे इन खौफनाक दृश्यों से भले ही हमारा प्रशासन, मीडिया, समाज एवं धर्म आंखें मूंद ले, लेकिन विदेशी मीडिया में यह सब बार-बार सुर्खियों में आता रहता है जो हमारी धार्मिकता, हमारी सामाजिकता, हमारे परोकारिता को तार-तार कर देता है। अफसोस कि न सरकार, न ही समाज ने हाल तक इस यातना का कोई प्रतिकार करने की जरूरत समझी। आखिरकार पिछले साल सुप्रीम कोर्ट को ही इस मामले में भी दखल देना पड़ा, उसकी फटकार के बाद सरकार की नींद खुली और उसने एक ‘कृष्ण कुटीर’ बनवाया, जिसमें करीब 1000 विधवाओं के रहने की व्यवस्था है। कहा जा रहा है कि यहां विधवाओं को प्रशिक्षण के जरिए आत्मनिर्भर भी बनाया जाएगा। मगर उद्घाटन हो जाने के बावजूद ‘कृष्ण कुटीर’ में विधवाएं रहने नहीं आ रहीं। भांति-भांति के डर आड़े आ रहे हैं। इसलिए पहली चुनौती उनके मन में यह विश्वास जगाने की है कि यह उनके लिए बनाई गई कोई सरकारी जेल नहीं, बल्कि उनका घर है जहां वे जैसे और जब तक चाहें रह सकती हैं।

वृंदावन की विधवा महिलाओं का जीवन संवारना एवं उनके जीवन के उत्तरार्द्ध को सुखद बनाने की जिम्मेदारी कोरी सरकार की नहीं है बल्कि समाज एवं आमजन को भी इसके लिये जागरूक होना होगा। ‘कृष्णा कुटीर’ में रहने गई विधवाओं का जीवन सचमुच बेहतर होना जरूरी है, कहीं अन्य सरकारी योजनाओं की तरह इसमें भी भ्रष्टाचार का घुन न लग जाये। मंदिर संचालकों से जुड़ी लॉबियों पर भी अंकुश लगाने की जरूरत है। वृंदावन में कई विधवा आश्रम बने हुए हैं, जहां रहकर ये विधवाएं अपनी वीरान हो चुकी जिन्दगी जीने के लिए लगातार संघर्ष करती हैं। इन आश्रमों पर भी निगरानी रखी जानी जरूरी है।

ईसा ने कहा है, ‘बैकुण्ठ तुम्हारे हृदय में है।’’ उसी आधार पर गांधीजी ने रामराज्य की कल्पना प्रस्तुत की है। अन्य महापुरुषों ने भी आत्मिक चेतना को जाग्रत करने के लिए भीतर के द्वार खोलने का आह्वान किया। मंदिर में कोई दुष्कर्म नहीं करता, क्योंकि उसमें प्रभु की मूर्ति रहती है और व्यक्ति के अंदर जाने-अनजाने यह भय बना रहता है कि यदि उसने उस पवित्र स्थान पर कोई बुरा काम किया तो उसका अनिष्ट हुए बिना नहीं रहेगा। फिर क्यों वृंदावन में लगातार अनिष्टकारी स्थितियां बनी हुई हैं, कहीं यह किसी बड़ी विपदा का कारण न बन जाये?

- ललित गर्ग

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