जागो नागरिक जागोः दहेज कानून से संबंधित आपके मन के सभी सवालों के जवाब

Dowry Prohibition Act 1961
आशीष राय । Jul 2 2020 7:00PM

आजकल कोरोना कालखंड में देखने को मिल रहा है कि समाज में महिलाओं के प्रति हिंसा बढ़ती जा रही है। घरेलू हिंसा के बचाव हेतु कानून में कुछ दंडात्मक प्रावधान हैं जिनकी जानकारी रखनी आवश्यक है इसके अलावा दहेज कानून भी महिलाओं की सुरक्षा का एक सशक्त माध्यम है।

दहेज नाम सुनते ही सामान्य अभिभावकों को चिंता सताते लगती है। परंतु दहेज लेना और देना दोनों अपराध की श्रेणी में आते हैं। दहेज के कारण कारित अपराधों के लिए भारतीय दंड संहिता में दंड के विधान हैं। दहेज से संबंधित अपराध दहेज निषेध अधिनियम, 1961 में वर्णित हैं।

दहेज क्या है:- विवाह के समय, उससे पूर्व और उसके पश्‍चात किसी भी समय दूल्‍हे को दुल्‍हन द्वारा अथवा दुल्‍हन को दूल्‍हे द्वारा अथवा दुल्‍हन या दूल्‍हे के माता-पिता द्वारा अथवा किसी अन्‍य व्‍यक्‍ति द्वारा दी गई अथवा दिए जाने पर सहमति प्राप्‍त कोई संपत्‍ति अथवा बहुमूल्‍य सुरक्षा।

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अधिनियम के अनुसार, दहेज देना, लेना, मांगना अथवा यहां तक कि विज्ञापित करना भी एक अपराध है। इनमें से किसी भी उल्‍लंघन के लिए 6 माह से 5 वर्ष तक के कारावास और जुर्माने के दंड का प्रावधान है।

बहुत-सी महिलाओं के साथ दहेज को लेकर या अन्‍यथा उनके पतियों और पति के सगे-संबंधियों द्वारा निर्दयतापूर्ण व्‍यवहार किया जाता है। भारतीय दंड संहिता की धारा 498A के अनुसार, ऐसे मामलों में 3 वर्ष तक के कारावास और जुर्माने के दंड का प्रावधान है ।

दहेज मृत्‍यु क्या है-

विवाह के 7 वर्षों के भीतर जलने, घायल होने या किसी अन्‍य अप्राकृतिक कारण से महिला की मृत्‍यु हो जाना। शर्त यह है कि महिला की मृत्‍यु से पूर्व उसके साथ दहेज को लेकर उसके पति और पति के सगे-संबंधियों द्वारा निर्दयतापूर्ण व्‍यवहार किया गया हो। यह सिद्ध करने का दायित्‍व पति और महिला के ससुराल पक्ष का है कि महिला की मृत्‍यु उनके गलत व्‍यवहार के कारण नहीं हुई। इसके लिए भारतीय दंड संहिता की धारा 304B के तहत 7 वर्ष से लेकर आजीवन कारावास के दंड का प्रावधान है। प्राकृतिक मृत्यु दहेज हत्या नहीं मानी जाती है।

महिलाओं की सुरक्षा के लिए घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005, 26 अक्टूबर 2006 को लागू किया गया था। अधिनियम का उद्देश्य "परिवार के भीतर किसी भी तरह की हिंसा की शिकार महिलाओं को संविधान के तहत प्रत्याभूत अधिकारों को अधिक प्रभावी संरक्षण प्रदान करना" है। उच्चतम न्यायालय ने इस कानून के उचित क्रियान्वयन में समय-समय पर कुछ महत्वपूर्ण हस्तक्षेप भी किए हैं और व्याख्याएं दी हैं। 

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आजकल न्यायालयों में पारिवारिक न्यायालय कक्षों के सामने भीड़ देखकर लगता है कि पारिवारिक विवादों की संख्या बढ़ती जा रही है। कुछ स्वयंसेवी संगठन महिलाओं के अधिकारों को लेकर मुखर हैं तो कुछ पुरुषों के प्रति कानूनों के दुरुपयोग की भी लगातार आवाज उठाते रहे हैं।

पीड़ित परिवारों की लगातार यह चिंता रही है कि घरेलू हिंसा के कानूनों का दुरुपयोग करते हुए निर्दोष लोगों को भी फंसाया जाता रहा है। वहीं दूसरी तरफ पीड़ित महिला का भी आरोप रहता है कि सही गुनाहगारों को भी कानून सजा नहीं देता।

-सामान्यतया देखने में आता है कि पीड़ित महिला घर के सभी सदस्यों सहित रिश्तेदारों तक को घरेलू हिंसा के मामले में आरोपी बना देती है परंतु कानून में उसकी वास्तविक स्थिति क्या है ? घरेलू हिंसा कानून के अंतर्गत किस किस को आरोपी बनाया जा सकता है ? गुजारा भत्ता की मांग किससे की जा सकती है। वैकल्पिक आवास की व्यवस्था के लिए कौन उत्तरदायी है ?

आज इस प्रश्न का हल ढूंढ़ते हैं:-

घरेलू हिंसा अधिनियम इस बारे में स्पष्ट प्रावधान करता है कि जब भी कोई घरेलू हिंसा कारित हुई हो और जिस व्यक्ति को पीड़ित महिला आरोपित करना चाहती हो वह उसके साथ साझा आवास में अवश्य रहा/रही हो। जो व्यक्ति पीड़ित महिला के साथ साझे आवास में नहीं रहा हो उसको आरोपी नहीं बनाया जा सकता।

हम इसको अन्य प्रकार से ऐसे समझ सकते हैं कि पीड़ित पत्नी अपनी उस ननद को आरोपित नहीं कर सकती जिसकी शादी पीड़ित की शादी के पूर्व हो गयी हो और वह शादी के बाद अपने ससुराल में रह रही हो या कोई अन्य रिश्तेदार जो उस परिवार में ना रहता हो, उसको सिर्फ इसलिए आरोपित नहीं किया जा सकता क्योंकि शादी करवाने में उसकी भूमिका थी। यदि पीड़ित के जेठ जेठानी भी साझा परिवार में नहीं रहते हों तो उनको भी आरोपी नहीं बनाया जा सकता। इस कानून का मंतव्य साफ है कि परिवार में साथ रहने वाला व्यक्ति ही घरेलू हिंसा के लिए आरोपी बनाया जा सकता है अन्य कोई नहीं।

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घरेलू हिंसा अपराध के लिए आवश्यक है कि घरेलू हिंसा साझा आवास पर घटित हुई होनी चाहिए और आरोपित व्यक्ति पीड़ित व्यक्ति के साथ जीवन की किसी भी अवस्था में घरेलू रिश्तों में रह चुका है।

माननीय उच्चतम न्यायालय ने भी ''एसआर बत्रा बनाम तरुणा बत्रा (2006)'' के वाद में इस विषय को स्पष्ट किया है। इस मामले में अदालत ने पत्नी की ओर से से दिए निवेदन का निस्तारण किया था कि साझा घर की परिभाषा में एक ऐसा घर शामिल है, जहां पीड़ित व्यक्ति रहता हो अथवा जीवन की किसी अवस्था में घरेलू रिश्तों में रह चुका हो। अदालत ने घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 17 (1), धारा 2 (एस) का हवाला देते हुए कहा कि पत्नी केवल साझा घर में निवास के अधिकार का दावा करने की हकदार है और एक `साझा घर' का मतलब केवल उस घर से है या लिया जाता है जो पति द्वारा किराए पर लिया गया हो या उसी का हो, या वह घर जो संयुक्त परिवार से संबंधित हों, जिसमें पति भी एक सदस्य हो। 

पीड़ित पत्नी द्वारा वैकल्पिक आवास की मांग

घरेलू हिंसा में पीड़ित महिला को सबसे ज्यादा आवश्यकता उसके वैकल्पिक आवास की ही होती है और वह न्यायालय में गुजारे भत्ते के साथ वैकल्पिक आवास की भी मांग करती है। वैकल्पिक आवास के मामले को भी इसी वाद में उच्चतम न्यायालय की जस्टिस एसबी सिन्हा और जस्‍टिस मार्कंडेय काटजू की बेंच ने घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 19 (1) (एफ) की व्याख्या करते हुए, कहा कि वैकल्पिक आवास के लिए केवल पति के खिलाफ ही दावा हो सकता है, न कि ससुराल वालों या अन्य रिश्तेदारों के खिलाफ। इस मामले के तथ्यों में माना गया है कि पत्नी अपनी सास की संप‌त्त‌ि में आवास के अधिकार का दावा नहीं कर सकती है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि वैकल्पिक आवास की मांग पति से ही की जा सकती है।

गुजारा भत्ता

अपने व अपने बच्चों के गुजारे भत्ते के लिए पीड़ित महिला सिर्फ अपने पति की आय से से ही यह मांग कर सकती है न्यायालयों ने इस बिंदु पर कई स्पष्ट निर्णय दिए हुए हैं।

-आशीष राय

(लेखक उच्चतम न्यायालय में अधिवक्ता हैं)

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