आज भी प्रासंगिक है भगवान महावीर की विचारधारा

विभिन्न संस्कृति और धर्म वाले देश में जैन धर्म कितना प्राचीन है, यह स्पष्ट रूप से नहीं कहा जा सकता है। यद्यपि जैन धर्म के तीर्थंकर भगवान महावीर को जैन धर्म का संस्थापक कहा जाता है।

जैन दर्शन एक प्राचीन भारतीय दर्शन है। यह विचारधारा लगभग छठी शताब्दी ई.पू. मे भगवान महावीर स्वामी के द्वारा पुनरावर्तित हुयी। इसमें वेद की प्रामाणिकता को कर्मकाण्ड की अधिकता और जड़ता के कारण अस्वीकार किया गया। इसमें अहिंसा को सर्वोच्च स्थान देते हुए तीर्थंकर के उपदेश का दृढ़ता से पालन करने का विधान है। यह विचारधारा मूलतः नैतिकता और मानवतावादी है। इसके प्रमुख ग्रन्थ प्राकृत (मागधी) भाषा में लिखे गये हैं। बाद में कुछ जैन विद्वानों ने संस्कृत में भी लिखे। उनमें 100 ई. के आसपास आचार्य उमास्वामी द्वारा रचित तत्त्वार्थ सूत्र बड़ा महत्वपूर्ण है। वह पहला ग्रंथ है जिसमें संस्कृत भाषा के माध्यम से जैन सिद्धान्त के सभी अंगों का पूर्ण रूप से वर्णन किया गया है। इसके पश्चात अनेक जैन विद्वानों ने संस्कृत में व्याकरण, दर्शन, काव्य, नाटक आदि की रचना की।

जीव और कर्मों का यह सम्बन्ध अनादि काल से नीर−क्षीरवत जुड़ा हुआ है। जब जीव इन कर्मों से अपनी आत्मा को सम्पूर्ण रूप से मुक्त कर देता है तो वह स्वयं भगवान बन जाता है। लेकिन इसके लिए उसे सम्यक पुरूषार्थ करना पड़ता है। यह जैन धर्म की मौलिक मान्यता है। जैनदर्शन का अपना विशेष महत्त्व उसकी प्राचीन परम्परा को छोड़कर अन्य महत्त्व के आधारों पर भी है। किसी भी तात्विक विमर्श का विशेषकर दार्शनिक विचार का महत्व इस बात में होना चाहिए कि वह प्रकृत वास्तविक समस्याओं पर वस्तुतः उन्हीं की दृष्टि से किसी प्रकार के पूर्वाग्रह के बिना विचारे करे। भारतीय अन्य दर्शनों में शब्दप्रमाण का जो प्रामुख्य है वह एक प्रकार से उनके महत्व को कुछ कम ही कर देता है। उन दर्शनों में ऐसा प्रतीत होता है कि विचारधारा की स्थूल रूपरेखा का अंकन तो शब्द−प्रमाण कर देना है और तत्वदर्शन केवल उसमें अपने−अपने रंगों को ही भरना चाहते हैं। इसके विपरित जैन दर्शन में ऐसा प्रतीत होता है, जैसे कोई बिल्कुल साफ स्लेट पर लिखना शुरू करता है। विशुद्ध दार्शनिक दृष्टि में इस बात का बड़ा महत्व है। किसी भी व्यक्ति में दार्शनिक दृष्टि के विकास के लिए यह अत्यन्त आवश्यक है कि वह स्वतंत्र विचारधारा की भित्ति पर अपने विचारों का निर्माण करे और परम्परा−निर्मित पूर्वाग्रहों से अपने को बचा सके।

जैनदर्शन नास्तिक नहीं

लोग जैनदर्शन को नास्तिक भी मानते हैं जबकि यह मात्र भ्रम के अतिरिक्त कुछ भी नहीं हैं। तथाकथित "वैदिक" दर्शनों को आस्तिक दर्शन और जैन, बौद्ध जैसे दर्शनों को "नास्तिक दर्शन" कहा जाता हैं। वस्तुतः यह वर्गीकरण निराधार ही नहीं, नितान्त मिथ्या भी है। आस्तिक और नास्तिक शब्द "अस्ति नास्ति दिष्टं मति रू" (पा.) इस पाणिनिसूत्र के अनुसार बने हैं। मौलिक अर्थ उनका यही था कि परलोक (जिसको हम दूसरे शब्दों में इन्द्रियातीत तथ्य भी कह सकते हैं) की सत्ता को मानने वाला "आस्तिक" और न मानने वाला "नास्तिक" कहलाता है। स्पष्टतः इस अर्थ में जैन बौद्ध जैसे दर्शनों को नास्तिक कहा ही नहीं जा सकता। इसके विपरित हम तो यह समझते हैं कि शब्द−प्रमाण की निरपेक्षता से वस्तुतत्व पर विचार करने के कारण दूसरे दर्शनों की अपेक्षा उनका अपना एक वैशिष्टय ही है।

जैनदर्शन की देन

भारतीय दर्शन को इतिहास में जैनदर्शन की अपनी अनोखी देन है। दर्शन शब्द का फिलासफी के अर्थ में कब से प्रयोग होने लगा है, इसका तत्काल निर्णय करना कठिन है, तो भी इस शब्द का इस अर्थ में प्राचीनता में विषय में सन्देह नहीं हो सकता। तत्तद् दर्शनों के दर्शन शब्द का प्रयोग मूल में इसी अर्थ से हुआ होगा कि किसी भी इन्द्रियातीत तत्व के परीक्षण में तत्तद् व्यक्ति की स्वाभाविक रूचि, परिस्थिति या अधिकारिता के भेद से जो तात्त्विक दृष्टिभेद होता है उसी के दर्शन शब्द से व्यक्त किया जाये। ऐसी अवस्था में यह स्पष्ट है कि किसी तत्व के विषय में कोई भी तात्त्विक दृष्टि ऐकान्तिक नहीं हो सकती। प्रत्येक तत्व में अनेकरूपता स्वभावतः होनी चाहिए और कोई भी दृष्टि उन सबका एक साथ तात्विक प्रतिपादन नहीं कर सकती। इसी सिद्धान्त को जैनदर्शन की परिभाषा में "अनेकान्तदर्शन" कहा गया है। जैनदर्शन को तो यह आधार स्तम्भ है ही, परन्तु वास्तव में प्रत्येक दार्शनिक विचारधारा के लिए भी इसको आवश्यकता मानना चाहिए।

बौद्धिक स्तर में इस सिद्धान्त के मान लेने से मनुष्य के नैतिक और लौकिक व्यवहार में एक महत्व का परिवर्तन आ जाता है। चरित्र ही मानव के जीवन का सार है। चरित्र के लिए मौलिक आवश्यकता इस बात की है कि मनुष्य एक ओर तो अभिमान से अपने को पृथक रखे, साथ ही हीन भावना से भी अपने को बचाये। स्पष्टतः यह मार्ग अत्यन्त कठिन है। वास्तविक अर्थों में जो अपने स्वरूप को समझता है, दूसरे शब्दों में आत्मसम्मान करता है और साथ ही दूसरे के व्यक्तित्व को भी उतना ही सम्मान देता है, वही उपर्युक्त दुष्कर मार्ग अनुगामी बन सकता है। इसीलिए सारे नैतिक समुत्थान में व्यक्तित्व का समादर एक मौलिक महत्व रखता है। जैन दर्शन के उपर्युक्त अनेकान्त दर्शन का अत्यन्त महत्व इसी सिद्धान्त के आधार पर है कि उसमें व्यक्तित्व का सम्मान निहित है।

जहां व्यक्तित्व का समादर होता है वहां स्वभावतः साम्प्रदायिक संकीर्णता, संघर्ष या किसी भी छल, जाति, जल्प, वितण्डा आदि जैसे असदुपाय से वादिपराजय की प्रवृत्ति नहीं रह सकती। व्यावहारिक जीवन में भी खण्डन के स्थान में समन्वयात्मक निर्माण की प्रवृति यहां रहती है। साध्य की पवित्रता के साथ ही रह सकता है। इस प्रकार अनेकान्तदर्शन नैतिक उत्कर्ष के साथ−साथ व्यवहार शुद्धि के लिए भी जैनदर्शन की एक महान देन है।

विचार−जगत् का अनेकान्तदर्शन ही नैतिक जगत् में आकर अहिंसा के व्यापक सिद्धान्त का रूप धारण कर लेता है। इसीलिए जहां अन्य दर्शनों में परमतखण्डन पर बड़ा बल दिया गया है, वहां जैनदर्शन का मुख्य ध्येय अनेकान्त−सिद्धान्त के आधार पर वस्तुस्थिति मूलक विभिन्न मतों का समन्वय रहा है। वर्तमान जगत की विचारधारा की दृष्टि से भी जैनदर्शन के व्यापक अहिंसामूलक सिद्धान्त का अत्यन्त महत्व है। आजकल के जगत की सबसे बड़ी आवश्यकता यह है कि अपने−अपने परम्परागत वैशिष्टय को रखते हुए भी विभिन्न मनुष्य जातियां एक−दूसरे के समीप आयें और उनमें एक व्यापक मानवता की दृष्टि का विकास हो। अनेकान्तसिद्धान्तमूलक समन्वय की दृष्टि से ही यह हो सकता है।

इसमें सन्देह नहीं कि न केवल भारतीय दर्शन के विकास का अनुगमन करने के लिए, अपितु भारतीय संस्कृति के उत्तरोत्तर विकास को समझने के लिए भी जैनदर्शन का अत्यन्त महत्व है। भारतीय विचारधारा में अहिंसावाद के रूप में अथवा परमतसहिष्णुता के रूप में अथवा समन्वयात्मक भावना के रूप में जैनदर्शन और जैन विचारधारा की जो देन है उसको समझे बिना वास्तव में भारतीय संस्कृति के विकास को नहीं समझा जा सकता।

प्राचीन समय से ही भारत देश अपनी अर्वाचीन संस्कृति के लिए पहचाना जाता है। विभिन्न संस्कृति और धर्म वाले देश में जैन धर्म कितना प्राचीन है, यह स्पष्ट रूप से नहीं कहा जा सकता है। यद्यपि जैन धर्म के तीर्थंकर भगवान महावीर को जैन धर्म का संस्थापक कहा जाता है जबकि इनसे पूर्व भी इस धर्म के 23 तीर्थंकर हुए और महावीर स्वामी अन्तिम व 24वें तीर्थंकर थे। महावीर स्वामी ने कभी नहीं कहा कि वे जैन धर्म के संस्थापक हैं, परन्तु जैन अनुयायियों ने उनसे ही जैन धर्म का उदय माना। यह सत्य है कि जहां इस धर्म के पहले 23 तीर्थंकरों ने उन्हीं शिक्षाओं व सि़द्धांतों का प्रचार−प्रसार किया जिन्हें महावीर स्वामी ने आलोकित और संस्थापित किया।

प्राचीन जैन धर्म को विद्वानों ने श्रमणों का धर्म कहा है। वेदों में भी प्रथम तीर्थंकरी ऋषभनाथ का उल्लेख मिलता है। माना जाता है कि वैदिक साहित्य में जिन यतियों और व्रात्यों का पता चलता है वे श्रमण परम्परा के थे। आर्यों के समय में ऋषभदेव और अरिष्टनेमी को लेकर जैन परम्परा का पता चलता है। महाभारतकाल में इस धर्म के प्रमुख नेमीनाथ थे। ईसा पूर्व 8वीं सदी में पार्श्वनाथ हुए जिनका जन्म काशी में हुआ। काशी के समीप ही 11वें तीर्थंकर श्रेयांसनाथ का जन्म हुआ और संभवतः इन्हीं के नाम पर सारनाथ नाम प्रचलित है। भगवान पार्श्वनाथ तक जैन परम्परा संगठित रूप में सामने नहीं आई। पार्श्वनाथ के समय से पार्श्वनाथ सम्प्रदाय प्रारम्भ हुआ और इसे संगठित होने का स्वरूप भी शुरू हुआ। यह श्रवण सम्पदाय का पहला सम्प्रदाय था। भगवान महावीर स्वामी भी पार्श्वनाथ सम्प्रदाय से थे। श्रमण वैदिक परम्परा के विरूद्ध थे। यहीं से जैन धर्म का अपना अलग अस्तित्व प्रारम्भ हुआ। महावीर तथा गौतम बुद्ध के समय में यह श्रमण कुछ बुद्ध और कुछ जैन हो गये। दोनों की अलग−अलग शाखाएं बन गईं। 

जैन धर्म के अन्तिम तीर्थंकर महावीर स्वामी (599 ई.पू.) ने तीर्थंकरों के धर्म और परम्परा को एक सुव्यवस्थित स्वरूप प्रदान किया। कैवल्य का मार्ग प्रशस्त किया। मुनी, आर्यिका, श्रावक और श्राविका चतुर्विद संघ कहलाया। जैन धर्म के जिन के आधार पर इस धर्म का नाम जैन धर्म पड़ा। इसका अर्थ था ऐसे व्यक्ति जो अपनी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर ले। सम्राट अशोक के समय के शिलालेख आदि साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि मगध में जैन धर्म का प्रचार था। मठों में जैन मुनि रहते थे। उनमें इस बात पर मतभेद रहा कि तीर्थंकरों की प्रतिमाओं को कपड़े पहनाकर रखा जाये या नहीं। जैन मुनि वस्त्र धारण करें या नहीं। आगे चलकर जब मतभेद बढ़ गया तो ईसा की पहली सदी में आकर जैन मुनि श्वेताम्बर और दिगम्बर दो दलों में विभक्त हो गये। इनमें श्वेताम्बर मुनि श्वेत वस्त्र धारण करने लगे और दिगम्बर मुनि बिना कपड़ों के नग्न अवस्था में रहने लगे। यहीं से जैन धर्म श्वेताम्बर और दिगम्बर दो सम्प्रदायों में विभाजित हो गया जो आज तक प्रचलित है। 

दोनों सम्प्रदायों में मतभेद दार्शनिक सिद्धांतों की अपेक्षा चरित्र को लेकर अधिक है। दिगम्बर जहां आचरण के पालन में कठोर हैं वहीं श्वेताम्बर उदार हैं। दिगम्बर मानते हैं कि मूल आगम लुप्त हो गये हैं। कैवल्य ज्ञान प्राप्ति से भोजन की आवश्यकता नहीं रहती और स्त्री शरीर से कैवल्यज्ञान की प्राप्ति संभव नहीं जबकि श्वेताम्बर ऐसा नहीं मानते हैं। करीब 300 वर्ष पूर्व श्वेताम्बरों से ही एक और शाखा निकली जिसे स्थानकवासी कहा गया और वे मूर्ति पूजक नहीं हैं। जैनियों की तेरहपंथी, बीसपंथी, तारणपंथी, यापनीय आदि कुछ और उपशाखाएं भी बन गईं। सभी शाखाओं में कतिपय मतभेद अवश्य है परन्तु महावीर स्वामी तथा अहिंसा, संयम और अनेकान्तवाद में सबका बराबर विश्वास है। 

प्राचीन समय में गुप्तकाल में कलिंग के राजा खारवेल ने ईसा की पहली शताब्दी में जैन धर्म स्वीकार किया। इस समय में उत्तर भारत में मथुरा और दक्षिण भारत में मैसूर जैन धर्म के बड़े केन्द्र थे। पांचवीं से बारहवीं शताब्दी तक दक्षिण भारत के राष्ट्रकूट, चालुक्य, गंग एव कदम्बु राजवंशों द्वारा जैन धर्म के प्रचार−प्रसार में महत्वपूर्ण योगदान दिया गया। इन शासकों ने जैन मुनियों को आश्रय प्रदान किया। ग्यारहवीं सदी में चालुक्य वंश के राजा सिद्धराज एवं उनके पुत्र कुमार पाल ने जैन धर्म को राज धर्म घोषित किया तथा गुजरात क्षेत्र में इस धर्म का प्रचार किया। मुगलकाल में हिन्दू, जैन एवं बौद्ध मन्दिरों को आक्रमणकारी मुस्लिमों ने निशाना बनाया जिससे बड़े पैमाने पर मन्दिरों का विनाश हुआ। धीरे−धीरे जैनियों के मठ भी टूटने और बिखरने लगे फिर भी इस समाज के लोगों ने जैन धर्म को संगठित होकर बचाये रखा। जैन समाज के लोगों का भारतीय संस्कृति, सभ्यता, कला और समाज को विकसित करने में महत्वपूर्ण योगदान रहा जो निरन्तर आज भी जारी है। 

जैन समुदायों की पृष्ठभूमि

जैन धर्म विश्व के प्राचीनतम धर्मों में से एक है। जैन धर्म श्रमण धर्म एवं निरग्रंथ धर्म के नाम से जाना जाता है। विभिन्न कालों में जैन धर्म आज तक एक स्वतंत्र धर्म के रूप में बना रहा है। तीर्थंकरों की शिक्षाओं पर आधारित इसे जिन कहा जाता है। जिन के अनुयायी जैन कहलाये तथा इनके द्वारा अपनाये गये धर्म के कारण इसे जैनदर्शन या जैनधर्म पुकारा जाता है। प्रत्येक तीर्थंकर के साथ उनके जैन संघ साथ रहे। वर्तमान जैन संघ की स्थापना 24वें तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी द्वारा की गई। जैन संघ का विभिन्न समूहों में गठन इस प्रकार हुआ। 

साधु संघ, साधवी संघ, श्रावक संघ एवं श्राविका संघ। भगवान महावीर स्वामी ने 527 ई.पू. में निर्वाण प्राप्त किया। उनके साथ 11 शिष्य थे जो गणधर कहलाते थे। इनमें से 9 गणधरों की जीवन से मुक्ति महावीर स्वामी के जीवन काल में हो गई थी जबकि 2 गणधर गौतम स्वामी एवं सुधर्म स्वामी निर्वाण के समय जीवित थे। बाद में ये दोनों शिष्य अरिहंत कहलाये। महावीर स्वामी की शिक्षाओं एवं सिद्धान्तों को गणधरों ने अभिलेखों (अगम) के माध्यम से जनता तक पहुँचाया। अगम 12 भागों में लिखे गये जिन्हें द्वादशंगी कहा जाता है। इन्हें सभी अनुयायियों ने अंगीकार किया। लम्बे समय तक ये अगम अप्रकाशित रहे। जैन शिष्य इन्हें मौखिक रूप से याद कर लेते थे। महावीर स्वामी के निर्वाण के करीब 150 वर्ष बाद 12 वर्ष अकाल पड़ा तथा इस समय में कुछ साधु भद्रबाहु स्वामी के साथ दक्षिण की ओर प्रस्थान कर गये। अकाल समाप्ति के बाद कुछ साधु वापस उत्तर की ओर आ गये। उन्होंने महसूस किया कि अगम को मौखिक रूप से याद करने में असमानता आ गई है। उन्होंने अगमों को फिर से लिखने को कहा। महावीर स्वामी के निर्वाण के 160 वर्ष बाद पाटलीपुत्र में साधुओं का प्रथम सम्मेलन आयोजित किया गया जिसमें ऐसे साधु अनुपस्थित रहे जो अगमों का ज्ञान रखते थे। याददाश्त के आधार पर साधु एवं शिष्य केवल 11 अगमों को ही लिख पाये और इस प्रकार 12 आगम विलुप्त हो गया। दक्षिण के साधु लिखे गये 11 अगमों से मतभेद रखते थे और सहमत नहीं थे। यहीं से जैनधर्म में प्रथम विभेद प्रारंभ हो गया। जैनधर्म के अनुयायी 2 प्रमुख समूह दिगम्बर जैन और श्वेताम्बर जैन समुदायों में विभक्त हो गये।

दिगम्बर जैन समुदाय

दिगम्बर जैन समुदाय आगे चलकर बीसापंथ, तेरापंथ एवं तरानापंथ अथवा साम्यापंथ तीन प्रमुख समुदायों में विभक्त हो गया। आगे चलकर इन समुदायों के भी गुमानपंथ एवं टोटापंथ समुदाय बन गये।

बीसापंथ

बीसापंथ के अनुयायी धर्मगुरुओं का समर्थन करते थे, जो धार्मिक रूप से अधिकृत थे और जिन्हें भट्टाराखास के नाम से पुकारा जाता है और वह जैन मठों के प्रमुख होते हैं। बीसापंथी अपने मंदिरों तीर्थंकरों के साथ−साथ क्षेत्रपाल, पदमावती एवं अन्य देवताओं की प्रतिमाओं की पूजा करते हैं। वे अपने इष्ट को केसर, फूल, फल, मिष्ठान का प्रसाद अर्पित करते हैं तथा सुंगधित अगरबत्ती लगाते हैं। पूजा के समय वे जमीन पर बैठकर पूजा करते हैं। रात्रि के समय प्रतिमा के सम्मुख दीप प्रज्जवलित करते हैं तथा प्रसाद वितरण करते हैं। कुछ लोगों के अनुसार बीसापंथी दिगम्बर समुदाय का मौलिक हिस्सा हैं। वर्तमान में वस्तुतः महाराष्ट्र, कर्नाटक, दक्षिण भारत तथा बड़ी संख्या में राजस्थान और गुजरात के जैन अनुयायी इसी मत से हैं।

तेरापंथ

जैन मठों के प्रमुखों भट्टारखास के आचरण एवं उनके आधिपथ्य के विरोध में उत्तर भारत में 1683 विक्रम संवत् में तेरापंथ उप समुदाय का उदय हुआ। परिणामस्वरूप भट्टारखास संस्था का उत्तर भारत में आदर और सम्मान कम हो गया परन्तु इन संस्थाओं का महत्व दक्षिण भारत में बना रहा। तेरापंथी अपने तीर्थंकरो की प्रतिमा स्थापित करते है और उनकी पूजा करते हैं। वे बीसापंथी की तरह क्षेत्रपाल, पदमावती एवं अन्य देवताओं की प्रतिमा नहीं पूजते हैं। वे पूजा में फूलों, फलों का उपयोग भी नहीं करते हैं। पूजा में पवित्र चावल जिन्हें अक्षत कहा जाता है चढ़ाते हैं। वे चन्दन, बादाम एवं सूखा गोला, खजूर आदि प्रसाद के रूप में अर्पित करते हैं। पूजा के समय वे खड़े होकर पूजा करते तथा प्रसाद का वितरण नहीं करते हैं। तेरापंथी भट्टारखास के चंगुल से मुक्त होने के लिए वार्ताओं का आयोजन करते हैं। तेरापंथियों ने आज दिगम्बर जैन समुदाय में अपना विशेष स्थान बना लिया है। तेरापंथी अधिकतर राजस्थान, उत्तर प्रदेश एवं मध्य प्रदेश में निवास करते हैं। इस प्रकार बीसापंथी एवं तेरापंथी एक दूसरे से काफी विभिन्नता रखते हैं। दिगम्बर तेरापंथी बिना वस्त्रों के मूर्ति पूजा में विश्वास रखते हैं जबकि श्वेताम्बर तेरापंथी इसके एकदम विपरीत हैं।

तरानापंथ

तरानापंथ जैन उप समुदाय की स्थापना इसके संस्थापक तराना स्वामी (1448−1515 ईस्वी) के नाम पर हुई। इस उपसमुदाय को इसके अनुयायियों द्वारा "सम्या" अर्थात् पवित्र ग्रंथ की पूजा करने के कारण सम्यापंथ भी कहा जाता है। ये देव प्रतिमा के स्थान पर पवित्र ग्रंथ की पूजा करते हैं। तराना स्वामी की मध्य प्रदेश में ग्वालियर के मलाहगढ़ में मृत्यु होने के कारण यह स्थान तरानापंथियों का केन्द्रीय धार्मिक स्थल है।

तरानापंथी दृढ़ता के साथ मूर्ति पूजा का विरोध करते हैं और वे अपने मंदिरों में पवित्र ग्रंथों को रखकर उनकी पूजा करते हैं। वे पूजा में किसी भी प्रकार के फल−फूल जैसी सामग्री नहीं चढ़ाते हैं। वे दिगम्बर पवित्र ग्रंथों के साथ−साथ तराना स्वामी द्वारा लिखी गई 14 पवित्र पुस्तकों की भी पूजा करते हैं। वे धार्मिक मूल्यों को विशेष महत्व देते हैं तथा पवित्र ग्रंथों का अध्ययन करते हैं। तराना स्वामी पूर्ण रूप से जाति प्रथा के विरोध में थे और उनके द्वार सबके लिए खुले थे, यहां तक की इस उप समुदाय में मुस्लिम एवं निम्न जाति के व्यक्ति भी आ सकते हैं। इस प्रकार तरानापंथी मूर्ति पूजा के विरोधी, बाहरी संसार की पूजा की धार्मिक प्रवृति से मुक्त एवं जाति विभेद की परम्परा के हैं। तराना पंथी यद्धपि कम ही संख्या में हैं फिर भी मध्य प्रदेश के मालवा क्षेत्र, बुंदेलखण्ड एवं महाराष्ट्र के खानदेश क्षेत्र में अधिक निवास करते हैं।

गुमानापंथ

गुमानपंथ उप समुदाय विशेष महत्व नहीं रखता है। इसकी शुरुआत पंडत गुमानी राम या गुमानी राय द्वारा की गई जो राजस्थान में तत्कालीन जयपुर राज्य के निवासी पंडत टोडरमल के पुत्र थे। इस पंथ के अनुयायी जैन मंदिर में मोमबत्ती या दीपक जलाना निषेध मानते हैं। ये जैन धर्म के मौलिक सिद्धान्त अहिंसा में विश्वास करते हैं। ये मंदिर में जाते हैं व प्रतिमा के दर्शन करते हैं तथा प्रतिमा को कुछ भी भेंट नहीं करते हैं। ये आचरण की शुद्धता एवं अनुशासन पर विशेष ध्यान देने के कारण "शुद्ध अमनया" भी कहे जाते हैं। गुमानापंथ का उदय 18वीं शताब्दी हुआ। ये राजस्थान के कुछ क्षेत्रों में जयपुर के आसपास पाये जाते हैं।

टोटापंथ

टोटापंथ मुख्यतः बीसापंथ एवं तेरापंथ समुदाय के मध्य मतभेदों के कारण अस्तित्व में आया। इन दोनों पंथों को टूटने से बचाने के लिए कई प्रयास किये गये परन्तु वे सफल नहीं हो पाये। बीसा (20) एवं तेरा (13) से निकल कर षडसोलह (16 एवं आधा) पंथ या टोटापंथ बना। टोटापंथ के अनुयायी बीसापंथ एवं तेरापंथ दोनों पंथों के कुछ−कुछ सिद्धान्तों में विश्वास रखते हैं। इस पंथ के अनुयायी बहुत कम संख्या में मध्य प्रदेश के कुछ जगहों पर निवास करते हैं।

दिगम्बर जैन समुदाय के उक्त मुख्य एवं उप समुदायों के अतिरिक्त कुछ ही वर्षों पूर्व एक बड़ा उप समुदाय कांजी स्वामी के नाम पर "कांजीपंथ" के नाम से उभर कर सामने आया। शिक्षित वर्ग के बीच यह उपसमुदाय लोकप्रिय हुआ। कांजीपंथ भी श्वेताम्बर−स्थानकवासी एवं आचार्य कुन्द−कुन्द समुदाय में विभक्त हो गया। कांजीपंथ का प्रसार गुजरात के सोनगढ़ तथा राजस्थान के जयपुर क्षेत्र में हुआ। 

जैन धर्म संबंधी महत्वपूर्ण तथ्य

जैन धर्म, साहित्य, दर्शन, कला, आचार्य, जैन स्थान आदि के बारे में महत्वपूर्ण तथ्य इस प्रकार हैं−

जैन साहित्य

जैन पुराण साहित्य− आचारमीमांसा, गोम्मट पंजिका, गोम्मटसार जीव तत्व प्रदीपिका, जयधवल टीका, जीव तत्व प्रदीपिका, आगम, त्रिभंगी टीका, धवला टीका, पंचसंग्रह टीका, रामकथा साहित्य, लब्धिसार क्षपणासार टीका, भाव संग्रह, मन्द्रप्रबोधिनी, पद्म चरित्र, रिटि्ठनेमि चरित्र, तिसटि्ठ महारूरिष गुणालंकार, णाय कुमार चरित्र, जसहर चरित्र, कोश ग्रंथ, आचारांग।

जैन दर्शन

उद्देश्य, उद्भव और विकास, प्रमुख ग्रन्थ, अध्यात्म, तार्किक और उनके न्यायग्रन्थ,

जैन कला

जैन संग्रहालय मथुरा, गोपाचल पर्वत एवं श्री धर्म मंगल जैन विद्यापीठ।

जैन आचार्य

अकलंकदेव, अजितसेन, पद्मनंदि द्वितीय, अनन्तकीर्ति, अभयचन्द्र, अभयदेव, अभिनव धर्मभूषणयति, कुमारनन्दि, गृद्धपिच्छ, चारूकीर्ति भट्टारक, देवनन्दि पूज्यपाद, देवसूरि, देवसेन, नरेन्द्रसेन भट्टारक, पात्रस्वामी, प्रभाचन्द्र, बृहदनन्तवीर्य, भावसेन त्रैविद्य, मल्लिषेण, माणिक्यनन्दि, कुंदकुंदाचार्य, यशोविजय, रत्नप्रभसूरि, लघु अनन्तवीर्य, लघु समन्तभद्र, वादिराज, वादीभसिंह, विद्यानन्द, विमलदास, मेरूतुंग, शान्तिवर्णी, श्रीदत्त, समन्तभद्र, सिद्धसेन, सिद्धसेन द्वितीय, हरिभद्र, हेमचन्द्र, भद्रबाहु एवं बाहुबलि।

जैन स्थान 

प्रणति भूमि, धनेर, जीर्णवप्र, गजाग्रपद, कोटिकापुर, गांगाणी, तलाजा, कोटिशिला, ढंकगिरि, जीरापल्ली, पुरिमताल, जिझिक, संख्यावती, सम्मेत शिखर, वणिजग्राम, तारणगढ़, श्रीनग, हरिवर्ष पर्वत, कोटीगाम, शाण्डिल्य जनपद, हस्तोड़ीपुर, नाणक तीर्थ, रथावर्त, रत्नबाहपुर, वीतभय, देवकीपट्टन एवं पोदनपुर।

- डॉ. प्रभात कुमार सिंघल

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