हरतालिका तीज पर अखण्ड सौभाग्य प्राप्त करने के लिए ऐसे करें पूजन
हरतालिका तीज सौभाग्यवती स्त्रियों का व्रत है और इसे बड़े विधि विधान के साथ किया जाता है। वैसे तो साल भर में कई तीज आती हैं लेकिन हरतालिका तीज खासकर पूर्वांचल में खासी प्रसिद्ध है। इस दिन भगवान शिवजी और पार्वतीजी की विशेष पूजा की जाती है।
हरतालिका तीज सौभाग्यवती स्त्रियों का व्रत है और इसे बड़े विधि विधान के साथ किया जाता है। वैसे तो साल भर में कई तीज आती हैं लेकिन हरतालिका तीज खासकर पूर्वांचल में खासी प्रसिद्ध है। इस दिन भगवान शिवजी और पार्वतीजी की विशेष पूजा की जाती है। सौभाग्य चाहने वाली प्रत्येक स्त्री को यह व्रत अवश्य करना चाहिए। इस दिन घर पर ही शिव−पार्वती की मिट्टी की मूर्तियां रखकर प्रातः, दोपहर और सायं, तीनों ही समय उनकी पूजा की जाती है।
पूजन समय
-प्रातःकाल पूजन मुहूर्त- 06:15 से 08:42
-तृतीया तिथि इस बार 11 सितम्बर को शाम 18 बजकर चार मिनट पर शुरू हो रही है और समापन 12 सितम्बर को 16 बजकर 7 मिनट पर होगा।
कब करें यह व्रत
हरतालिका तीज का व्रत भाद्रपद शुक्लपक्ष की तृतीया तिथि को हस्त नक्षत्र में करना चाहिए। ध्यान रखें यह व्रत दिनभर निर्जल रहकर किया जाता है। उल्लेख मिलता है कि सबसे पहले इस व्रत को माता पार्वती ने भगवान शिव के लिए रखा था। इस व्रत में भगवान शिव-पार्वती के विवाह की कथा सुनने का काफी महत्व है।
पूजन विधि
सबसे पहले घर को शुद्ध करके सुगन्धि छिड़कें, केले के खंभे लगाकर तोरण−पताकाओं से मंडप को सजाएं और मंडप की छत में सुंदर वस्त्र लगायें। शंख, घंटे, घड़ियाल आदि बाजे बजायें और मंगल गीत गायें। मंडप में पार्वती समेत बालू के शिवलिंग की स्थापना करके चंदन, अक्षत, धूप−दीप, फल−फूल और नैवेद्य से पूजन करें और रात्रि भर जागरण करें। ब्राह्मणों को यथाशक्ति दक्षिणा दें। वस्त्र, स्वर्ण, गौ और सौभाग्यसूचक वस्तुएं दान करें। यह व्रत स्त्रियों को सौभाग्य देने वाला और उनके सुहाग की रक्षा करने वाला है।
पूजन के पश्चात यह बात अवश्य ध्यान रखें
कथा सुनने के बाद मिष्ठान्न, वस्त्र, पकवान, सौभाग्य की सामग्री, दक्षिणा आदि रखकर किसी ब्राह्मण को दान करें। इस दिन रात्रि भर जागरण करना चाहिए और शिव भजन गाते या सुनते रहना चाहिए। अगले दिन प्रातः भगवान शिव और पार्वती की आरती कर व्रत का पारण करना चाहिए।
कथा− श्री परम पावन भूमि कैलाश पर्वत पर विशाल वट वृक्ष के नीचे भगवान शिव−पार्वती सभी गणों सहित बाघम्बर पर विराजमान थे। बलवान वीरभद्र, भृंगी, श्रृंगी, नंदी आदि अपने−अपने पहरों पर सदाशिव के दरबार की शोभा बढ़ा रहे थे। गंधर्व गण, किन्नर, ऋषि, हरि भगवान की अनुष्टुम छंदों से स्तुति गान स्वर, अलापों से वाद्यों में संलग्न थे, उसी सुअवसर पर महारानी पार्वती जी ने भगवान शिव से दोनों हाथ जोड़कर प्रश्न किया− हे महेश्वर! मेरे बड़े सौभाग्य हैं जो मैंने आप सरीखे पति को वरण किया, क्या मैं जान सकती हूं कि मैंने वह कौन सा पुण्य अर्जन किया है जिससे आप मुझे प्राप्त हुए हैं? आप अर्न्तयामी हैं, मुझको बताने की कृपा करें। पार्वती जी की ऐसी प्रार्थना सुनने पर शिवजी बोले− हे वरानने! तुमने अति उत्तम पुण्य का संग्रह किया था, जिससे तुमने मुझे प्राप्त किया है। वह अति गुप्त है अब तुम्हारे आग्रह पर प्रकट करता हूं।
शिवजी ने कहा कि एक बार तुमने हिमालय पर गंगा तट पर अपनी बाल्यावस्था में बारह वर्ष की आयु में अधोमुखी होकर घोर तप किया था। तुम्हारी कठोर तपस्या को देखकर तुम्हारे पिता को बड़ा क्लेश होता था। एक दिन तुम्हारी तपस्या और तुम्हारे पिता के क्लेश के कारण नारदजी तुम्हारे पिता के पास आये और बोले कि भगवान विष्णु आपकी कन्या से विवाह करना चाहते हैं। उन्होंने इस कार्य हेतु मुझे आपके पास भेजा है। तुम्हारे पिता ने भगवान विष्णुजी के प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार कर लिया। इसके बाद नारदजी ने विष्णुजी के पास जाकर कहा कि हिमालयराज अपनी पुत्री सती का विवाह आपसे करना चाहते हैं। विष्णुजी भी तुमसे विवाह करने को राजी हो गए।
नारदजी के जाने के बाद तुम्हारे पिता ने तुम्हें बताया कि तुम्हारा विवाह विष्णुजी से तय कर दिया है। यह अनहोनी बात सुनकर तुम्हें अत्यंत दुख हुआ और तुम जोर−जोर से विलाप करने लगीं। एक अंतरंग सखी के द्वारा विलाप का कारण पूछने पर तुमने सारा वृतांत सखी को बता दिया। मैं शंकर भगवान से विवाह के लिए कठोर तप कर रही हूं, उधर हमारे पिताश्री भगवान विष्णुजी के साथ मेरा संबंध कराना चाहते हैं। क्या तुम मेरी सहायता करोगी? नहीं तो मैं अपने प्राण त्याग दूंगी।
तुम्हारी सखी बड़ी दूरदर्शी थी। वह तुम्हें एक घनघोर जंगल में ले गई। इधर तुम्हारे पिता तुम्हें घर में ना पाकर बहुत चिंतित हुए। मैं विष्णुजी से उसका विवाह करने का वचन दे चुका हूं। वचन भंग की चिंता से वह मूर्छित हो गए। उधर तुम्हारी खोज होती रही और तुम अपनी सहेली के साथ नदी के तट पर एक गुफा में मेरी तपस्या करने में लीन हो गई। भाद्रपद शुक्ला की तृतीया को हस्त नक्षत्र में तुमने रेत का शिवलिंग स्थापित करके व्रत किया और पूजन तथा रात्रि जागरण भी किया। तुम्हारे इस कठिन तप व्रत से मेरा आसन डोलने लगा। मेरी समाधि टूट गई। मैं तुरन्त तुम्हारे पास पहुंचा और वर मांगने का आदेश दिया। तुम्हारी मांग तथा इच्छानुसार तुम्हें मुझे अर्धांगिनी के रूप में स्वीकार करना पड़ा।
तुम्हें वरदान देकर मैं कैलाश पर्वत पर चला आया। प्रातरू होते ही तुमने पूजा की समस्त सामग्री को नदी में प्रवाहित करके अपनी सहेली सहित व्रत का पारण किया। उसी समय तुम्हें ढूंढते हुए हिमालय राज उस स्थान पर पहुंच गए। बिलखते हुए तुम्हारे घर छोड़ने का कारण पूछने लगे। तब तुमने उन्हें बताया कि मैं शंकर भगवान को पति रूप में वरण कर चुकी हूं परंतु आप मेरा विवाह भगवान विष्णुजी से करना चाहते थे। इसीलिए मुझे घर छोड़कर आना पड़ा। मैं अब आपके साथ घर इसी शर्त पर चल सकती हूं कि आप मेरा विवाह भगवान विष्णुजी से न करके भगवान शिव से करेंगे। गिरिराज तुम्हारी बात मान गये और शास्त्रोक्त विधि द्वारा हम दोनों को विवाह के बंधन में बांध दिया।
इस कथा को सुनकर महिलाएं भगवान से यही प्रार्थना करती हैं कि जैसा अखण्ड सौभाग्य पार्वती माता को मिला वैसा ही सौभाग्य हर सुहागन को मिले। महिलाएं इस अवसर पर स्वर्ण गौरी और पार्वती जी की भी आराधना करती हैं।
-शुभा दुबे
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