माँ दुर्गा के नौ रूपों के पूजन की विधि एवं माहात्म्य

शुभा दुबे । Mar 28 2017 12:31PM

इस पर्व में प्रत्येक दिन मां दुर्गा के नौ रूपों- श्री शैलपुत्री, श्री ब्रह्मचारिणी, श्री चंद्रघंटा, श्री कूष्मांडा, श्री स्कंदमाता, श्री कात्यायनी, श्री कालरात्रि, श्री महागौरी और श्री सिद्धिदात्री की पूजा की जाती है।

चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से शुरू होने वाले 'वासन्तिक' नवरात्रि के पहले दिन यानि प्रतिपदा के दिन घट की स्थापना करके तथा नवरात्रि व्रत का संकल्प करके पहले गणपति तथा मातृक पूजन करना चाहिए फिर पृथ्वी का पूजन करके घड़े में आम के हरे पत्ते, दूब, पंचामूल, पंचगव्य डालकर उसके मुंह में सूत्र बांधना चाहिए। घट के पास गेहूं अथवा जौ का पात्र रखकर वरूण पूजन करके मां भगवती का आह्वान करना चाहिए। विधिपूर्वक मां भगवती का पूजन तथा दुर्गा सप्तशती का पाठ करके कुमारी पूजन का भी माहात्म्य है। कुमारियों की आयु एक वर्ष से 10 वर्ष के बीच ही होनी चाहिए। अष्टमी तथा नवमी महातिथि मानी जाती है। नवदुर्गा पाठ के बाद हवन करके ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए।

माता की पूजा करने के बाद दुर्गा देवी की जय हो का उच्चारण कर कथा सुनें। माता की चौकी को स्थापित करने में जिन वस्तुओं की आवश्यकता पड़ती है उनमें गंगाजल, रोली, मौली, पान, सुपारी, धूपबत्ती, घी का दीपक, फल, फूल की माला, बिल्वपत्र, चावल, केले का खम्भा, चंदन, घट, नारियल, आम के पत्ते, हल्दी की गांठ, पंचरत्न, लाल वस्त्र, चावल से भरा पात्र, जौ, बताशा, सुगन्धित तेल, सिंदूर, कपूर, पंच सुगन्ध, नैवेद्य, पंचामृत, दूध, दही, मधु, चीनी, गाय का गोबर, दुर्गा जी की मूर्ति, कुमारी पूजन के लिए वस्त्र, आभूषण तथा श्रृंगार सामग्री आदि प्रमुख हैं।

नवरात्रि पर्व के दौरान पूरा देश माता की भक्ति में डूब जाता है। माता के मंदिरों में इन 9 दिनों श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ पड़ती है और जगह−जगह माता की पूजा कर प्रसाद बांटा जाता है। इस दौरान विभिन्न जगहों पर छोटे बड़े स्तर पर माता का जागरण भी कराया जाता है। देश भर के मंदिरों में इस दिन मां भगवती का पूरा श्रृंगार कर उनकी पूजा की जाती है। नवरात्रि पर्व से जुड़ी कुछ परम्पराएं और नियम भी हैं जिनका श्रद्धालुओं को अवश्य पालन करना चाहिए। इन नौ दिनों में दाढ़ी, नाखून व बाल काटने से परहेज करना चाहिए। इन दिनों घर में लहसुन, प्याज का उपयोग भोजन बनाने में नहीं करना चाहिए। लोगों को छल कपट करने से भी बचना चाहिए। 

कथा− सुरथ नामक राजा अपना राजकाज मंत्रियों को सौंपकर सुख में रहता था। कालान्तर में शत्रु ने उसके राज्य पर आक्रमण कर दिया। मंत्री भी शत्रु से जा मिले। पराजित होकर राजा सुरथ तपस्वी के वेश में जंगल में रहने लगा। वहां एक दिन उसकी भेंट समाथि नामक वैश्य से हुई। वह भी राजा की तरह दुरूखी होकर वन में रह रहा था। दोनों महर्षि मेधा के आश्रम में चले गए। महर्षि मेधा ने उनके वहां आने का कारण पूछा तो उन्होंने बताया कि यद्यपि हम लोग अपने स्वजनों से तिरस्कृत होकर यहां आए हैं लेकिन उनके प्रति हमारा मोह टूटा नहीं है। इसका कारण हमें बताइए− 

महर्षि ने उन्हें उपदेश देते हुए कहा कि मन शक्ति के अधीन है। आदिशक्ति भगवती के विद्या तथा अविद्या के दो रूप हैं। विद्या ज्ञान स्वरूपा है तो अविद्या अज्ञान रूपा। अविद्या मोह की जननी है। भगवती को संसार का आदिकरण मानकर भक्ति करने वाले लोगों का भगवती जीवन मुक्त कर देती हैं। राजा तथा समाधि नामक वैश्य ने देवी शक्ति के बारे में विस्तार से जानने का आग्रह किया तो महर्षि मेधा ने बताया कि कालान्तर में प्रलयकाल के समय क्षीर सागर में शेष शैया पर सो रहे भगवान विष्णु के कानों से मधु तथा कैटभ नामक दो राक्षस पैदा होकर नारायण की शक्ति से उत्पन्न कमल पर विराजित भगवान ब्रह्मा जी को मारने के लिए दौड़े। ब्रह्माजी ने नारायण को जगाने के लिए उनके नेत्रों में निवास कर रही योगनिद्रा की स्तुति की। इसके परिणामस्वरूप तमोगुण की अधिष्ठात्री देवी योगनिद्रा भगवान के नेत्र, मुख, नासिका, बाहु, हृदय तथा वक्षस्थल से निकलकर भगवान ब्रह्मा के सामने प्रस्तुत हुईं। नारायण जी जाग गए। उन्होंने उन दैत्यों से पांच हजार वर्ष तक बाहु युद्ध किया। महामाया ने पराक्रमी दैत्यों को मोहपाश में डाल रखा था। वे भगवान विष्णु जी से बोले कि हम आपकी वीरता से संतुष्ट हैं। वरदान मांगिए। नारायण जी ने अपने हाथों उनके मरने का वर मांगकर उनका वध कर दिया।

इसके बाद महर्षि मेधा ने आदिशक्ति देवी के प्रभाव का वर्णन करते हुए कहा कि एक बार देवताओं तथा असुरों में सौ साल तक युद्ध छिड़ा रहा। देवताओं के स्वामी इन्द्र थे तथा असुरों के महिषासुर। महिषासुर देवताओं को पराजित करके स्वयं इन्द्र बन बैठा। पराजित देवता भगवान शंकर तथा भगवान विष्णु जी के पास पहुंचे। उन्होंने आपबीती कहकर महिषासुर के वध के उपाय की प्रार्थना की। भगवान शंकर तथा भगवान विष्णु को असुरों पर बड़ा क्रोध आया। वहां भगवान शंकर और विष्णु जी तथा देवताओं के शरीर से बड़ा भारी तेज प्रकट हुआ। दिशाएं उज्ज्वल हो उठीं। एकत्रित होकर तेज ने नारी का रूप धारण कर लिया। देवताओं ने उनकी पूजा करके अपने आयुध तथा आभूषण उन्हें अर्पित कर दिए।

इस पर देवी ने जोर से अट्टहास किया, जिससे संसार में हलचल फैल गई। पृथ्वी डोलने लगी। पर्वत हिलने लगे। दैत्यों के सैन्यदल सुसज्जित होकर उठ खड़े हुए। महिषासुर दैत्य सेना सहित देवी के सिंहनाद की ओर शब्दभेदी बाण की तरह बढ़ा। अपनी प्रभा से तीनों लोकों को प्रकाशित कर देने वाली देवी पर उसने आक्रमण कर दिया और देवी के हाथों मारा गया। यही देवी फिर शुम्भ तथा निशुम्भ का वध करने के लिए गौरी देवी के शरीर से प्रकट हुई थीं।

शुम्भ तथा निशुम्भ के सेवकों ने मनोहर रूप धारण करने वाली भगवती को देखकर स्वामी से कहा कि महाराज हिमालय को प्रकाशित करने वाली दिव्य कान्ति युक्त इस देवी को ग्रहण कीजिए। क्योंकि सारे रत्न आपके ही घर में शोभा पाते हैं। स्त्री रत्नरूपी इस कल्याणमयी देवी का आपके अधिकार में होना जरूरी है। दैत्यराज शुम्भ ने भगवती के पास विवाह प्रस्ताव भेजा। देवी ने प्रस्ताव को ठुकरा कर आदेश दिया कि जो मुझसे युद्ध में जीत जाएगा मैं उसी का वरण करूंगी। कुपित होकर शुम्भ ने धूम्रलोचन को भगवती को पकड़ लाने के उद्देश्य से भेजा। देवी ने अपनी हुंकार से उसे भस्म किया और देवी के वाहन सिंह ने शेष दैत्यों को मौत के घाट उतार दिया। इसके बाद उसी उद्देश्य से चण्ड−मुण्ड देवी के पास गए। दैत्य सेना को देखकर देवी विकराल रूप धारण कर उन पर टूट पड़ीं। चण्ड−मुण्ड को भी अपनी तलवार लेकर 'हूं' शब्द के उच्चारण के साथ ही मौत के घाट उतार दिया।

दैत्य सेना तथा सैनिकों का विनाश सुनकर शुम्भ क्रोधित हो गया। उसने शेष बची सम्पूर्ण दैत्य सेना को कूच करने का आदेश दिया। सेना को आता देख देवी ने धनुष की टंकार से पृथ्वी तथा आकाश को गुंजा दिया। दैत्यों की सेना ने कालान्तर में चंडिका, सिंह तथा काली देवी को चारों ओर से घेर लिया। इसी बीच दैत्यों के संहार तथा सुरों की रक्षा के लिए समस्त देवताओं की शक्तियां उनके शरीर से निकल कर उन्हीं के रूप में आयुधों से सजकर दैत्यों से युद्ध करने के लिए प्रस्तुत हो गईं। देव शक्तियों के आवृत्त महादेव जी ने चंडिका को आदेश दिया कि मेरी प्रसन्नता के लिए तुम शीघ्र ही इन दैत्यों का संहार करो। ऐसा सुनते ही देवी के शरीर से भयानक तथा उग्र चंडिका शक्ति पैदा हुई। अपराजित देवी ने महादेव जी के द्वारा दैत्यों को संदेशा भेजा कि यदि जीवित रहना चाहते हो तो पाताल लोक में लौट जाओ तथा इन्द्रादिक देवताओं को स्वर्ग और यज्ञ का भोग करने दो अन्यथा युद्ध में मेरे द्वारा मारे जाओगे। दैत्य कब मानने वाले थे। युद्ध छिड़ गया। देवी ने धनुष की टंकार करके दैत्यों के अस्त्र−शस्त्रों को काट डाला।

जब अनेक दैत्य हार गए तो महादैत्य इतना कहकर च.डिका ने शूल से रक्तबीज पर प्रहार किया और काली ने उसका रक्त अपने मुंह में ले लिया। रक्तबीज ने क्रुद्ध होकर देवी पर गदा का प्रहार किया, परंतु देवी को इससे कुछ भी वेदना नहीं हुई। कालान्तर में देवी ने अस्त्र−शस्त्रों को बौछार से रक्तबीज का प्राणान्त कर डाला। प्रसन्न होकर देवतागण नृत्य करने लगे। रक्तबीज के वध का समाचार पाकर शुम्भ−निशुम्भ के क्रोध की सीमा नहीं रही। दैत्यों की प्रधान सेना लेकर निशुम्भ महाशक्ति का सामना करने के लिए चल दिया। महापराक्रमी शुम्भ भी अपनी सेना सहित युद्ध करने के लिए आ पहुंचा। दैत्य लड़ते−लड़ते मारे गए। संसार में शांति हुई और देवतागण प्रसन्न होकर देवी की स्तुति करने लगे।

- शुभा दुबे

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