राजस्थान में धूमधाम से मनाया जाता है सुहागिनों का पर्व गणगौर

गणगौर का उत्सव भी ऐसा ही लोकोत्सव है, जिसकी पृष्ठ भूमि पौराणिक है। काल प्रभाव से उनमें शास्त्राचार के स्थान पर लोकाचार हावी हो गया है परन्तु भाव भंगिमा में कोई कमी नहीं आई है।

हमारा देश एक धर्म प्रधान देश है। धर्म नियंत्रित एवं आस्तिक भाव से परिपूर्ण धर्म भीरू राजस्थान को देव भूमि कहा जाये तो अनुचित नहीं होगा। प्राचीन काल से ही यह वीर भूमि सर्व धर्म शरणदायनी रही है। इसी कारण सभी पूजा पद्धतियां एवं सम्प्रदाय यहां वैचारिक दृष्टि से फले फूले हैं परन्तु उन सब में परस्पर सहिष्णुता एवं एक दूसरे के उपास्य देवों के प्रति सहज सम्मान का भाव रहा है। सनातन धर्मी राजस्थानी शासकों ने प्राणीमात्र की सद्भावना की जागृति एवं विश्व कल्याण की मंगल भवना से अभिभूत होकर जनगण की लोक मान्यताओं का सदा सम्मान किया है। इसी कारण यहाँ सभी पौराणिक एवं वैदिक देवी देवताओं के मन्दिर पूजित हैं। उनके उत्सव बड़ी धूमधाम से मनाये जाते हैं। गणगौर का उत्सव भी ऐसा ही लोकोत्सव है, जिसकी पृष्ठ भूमि पौराणिक है। काल प्रभाव से उनमें शास्त्राचार के स्थान पर लोकाचार हावी हो गया है परन्तु भाव भंगिमा में कोई कमी नहीं आई है।

राजस्थान में गणगौर का पर्व लोकोत्सव के रूप में अनादिकाल से मनाया जाता रहा है। कुंवारी एवं विवाहितायें (सभी आयुवर्ग की महिलायें) विवाह के दिन वाली पोशाक पहन कर इसकी पूजा करती हैं। होली के दूसरे दिन से सोलह दिनों तक लड़कियां नियमपूर्वक प्रतिदिन ईसर-गणगौर को पूजती हैं। जिस लड़की की शादी हो जाती है वो शादी के प्रथम वर्ष अपने पीहर जाकर गणगौर की पूजा करती है। इसी कारण इसे ''सुहागपर्व’’ भी कहा जाता है। कहा जाता है कि चैत्र शुक्ला तृतीया को राजा हिमाचल की पुत्री गौरी का विवाह शंकर भगवान के साथ हुआ उसी की याद में यह त्यौहार मनाया जाता है। कामदेव मदन की पत्नी रति ने भगवान शंकर की तपस्या कर उन्हें प्रसन्न कर लिया तथा उन्हीं के तीसरे नेत्र से भस्म हुए अपने पति को पुन: जीवन देने की प्रार्थना की। रति की प्रार्थना से प्रसन्न हो भगवान शिव ने कामदेव को पुन: जीवित कर दिया तथा विष्णुलोक जाने का वरदान दिया। उसी की स्मृति में प्रतिवर्ष गणगौर का उत्सव मनाया जाता है एवं विवाह के समस्त नेगचार होते हैं।   

होलिका दहन के दूसरे दिन गणगौर पूजने वाली बालाएं होली दहन की राख लाकर उसके आठ पिण्ड बनाती हैं एवं आठ पिण्ड गोबर के बनाती हैं तथा उन्हें दूब पर रखकर प्रतिदिन पूजा करती हुई दीवार पर एक काजल व एक रोली की टिकी लगाती हैं। शीतलाष्टमी तक इन पिण्डों को पूजा जाता है, फिर मिट्टी से ईसर गणगौर की मूर्तियां बनाकर उन्हें पूजती हैं। लड़कियां प्रात: ब्रह्ममुहुर्त में गणगौर पूजते हुये गाती हैं:-


गौर ये गणगोर माता खोल किवाड़ी, छोरी खड़ी है तन पूजण वाली।’’

गीत गाने के बाद लड़कियां गणगौर की कहानी सुनती हैं। दोपहर को गणगौर को भोग लगाया जाता है तथा गणगौर को कुएं से लाकर पानी पिलाया जाता है। लड़कियां कुएं से ताजा पानी लेकर गीत गाती हुई आती हैं:-

’’ईसरदास बीरा को कांगसियो म्हे मोल लेस्यांराज,

रोंवा बाई का लाम्बा-लाम्बा केश, कांगसियों बाईक सिर चढ्योजी राज।’’

’’म्हारी गौर तिसाई ओ राज घाट्यारी मुकुट करो,

बीरमदासजी रो ईसर ओराज, घाटी री मुकुट करो,

म्हारी गौरल न थोड़ो पानी पावो जी राज घाटीरी मुकुट करो।’’

लड़कियां गीतों में गणगौर के प्यासी होने पर काफी चिन्तित लगती हैं एवं वे गणगौर को शीघ्रतिशीघ्र पानी पिलाना चाहती हैं। पानी पिलाने के बाद गणगौर को गेहूं चने से बनी ’’घूघरी’’ का प्रसाद लगाकर सबको बांटा जाता है और लड़कियां गाती हैं:-


’’म्हारा बाबाजी के माण्डी गणगौर, दादसरा जी के माण्ड्यो रंगरो झूमकड़ो,

ल्यायोजी - ल्यायो ननद बाई का बीर,  ल्यायो हजारी ढोला झुमकड़ो।’’

रात को गणगौर की आरती की जाती है तथा लड़कियां नाचती हुई गाती हैं:-


’’म्हारा माथान मैमद ल्यावो म्हारा हंसा मारू यहीं रहवो जी,

म्हारा काना में कुण्डल ल्यावो म्हारा हंसा मारू यहीं रहवोजी।’’

गणगौर पूजन के मध्य आने वाले एक रविवार को लड़कियां उपवास करती हैं। प्रतिदिन शाम को क्रमवार हर लड़की के घर गणगौर ले जायी जाती है, जहां गणगौर का ’’बिन्दौरा’’ निकाला जाता है तथा घर के पुरुष लड़कियों को भेंट देते हैं। लड़कियां खुशी से झूमती हुई गाती हैं:-

’’ईसरजी तो पेंचो बांध गोराबाई पेच संवार ओ राज महे ईसर थारी सालीछां।’’

गणगौर विसर्जन के पहले दिन गणगौर का सिंगारा किया जाता है, लड़कियां मेहन्दी रचाती हैं, नये कपड़े पहनती हैं, घर में पकवान बनाये जाते हैं। सत्रहवें दिन लड़कियां नदी, तालाब, कुएं, बावड़ी में ईसर गणगौर को विसर्जित कर विदाई देती हुई दु:खी हो गाती हैं:-

’’गोरल ये तू आवड़ देख बावड़ देख तन बाई रोवा याद कर।''

गणगौर की विदाई का बाद त्यौहार काफी समय तक नहीं आते इसलिए कहा गया है-

’’तीज त्यौहारा बावड़ी ले डूबी गणगौर’’

अर्थात् जो त्यौहार तीज (श्रावणमास) से प्रारम्भ होते हैं उन्हें गणगौर ले जाती है। ईसर-गणगौर को शिव पार्वती का रूप मानकर ही बालाएं उनका पूजन करती हैं। गणगौर के बाद बसन्त ऋतु की विदाई व ग्रीष्म ऋतु की शुरुआत होती है। दूर प्रान्तों में रहने वाले युवक गणगौर के पर्व पर अपनी नव विवाहित प्रियतमा से मिलने अवश्य आते हैं। जिस गोरी का साजन इस त्यौहार पर भी घर नहीं आता वो सजनी नाराजगी से अपनी सास को उलाहना देती है:-

’’सासू भलरक जायो ये निकल गई गणगौर, मोल्यो मोड़ों आयो रे’’

राजस्थान की राजधानी जयपुर में गणगौर उत्सव दो दिन तक धूमधाम से मनाया जाता है। ईसर और गणगौर की प्रतिमाओं की शोभायात्रा राजमहलों से निकलती है इनके दर्शन करने देशी-विदेशी सैलानी उमड़ते हैं। सभी उत्साह से भाग लेते हैं। इस उत्सव पर एकत्रित भीड़ जिस श्रद्धा एवं भक्ति के साथ धार्मिक अनुशासन में बंधी गणगौर की जय-जयकार करती हुई भारत की सांस्कृतिक परम्परा का निर्वाह करती है जिसे देख कर अन्य धर्मावलम्बी इस संस्कृति के प्रति श्रृद्धा भाव से ओतप्रोत हो जाते हैं। ढूंढाड़ की भांति ही मेवाड़, हाड़ौती, शेखावाटी सहित इस मरुधर प्रदेश के विशाल नगरों में ही नहीं बल्कि गांव-गांव में गणगौर पर्व मनाया जाता है एवं ईसर-गणगौर के गीतों से हर घर गुंजायमान रहता है।

हमें आवश्यकता है आज इस भक्तिमय, श्रद्धापूर्ण एवं लोक कल्याण हेतु संस्थापित लोकोत्सव को संज्ञान वातावरण में मनाये जाने की परम्परा को अक्षुण बनाये रखने की। इसका दायित्व है उन सभी सांस्कृतिक परम्परा के प्रेमियों एवं पोषकों पर जिनका इससे लगाव है और जो सिर्फ पर्यटक व्यवसाय की दृष्टि से न देखकर भारत के सांस्कृतिक विकास की दृष्टि से देखने के हिमायती हैं।

- रमेश सर्राफ धमोरा

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