अपने सुहाग की रक्षा के लिए इस तरह करें वट सावित्री व्रत

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इस दिन भक्त को सोने या मिट्टी से बने सावित्री-सत्यवान और भैंसे पर सवार यमराज की मूर्ति बनाकर धूप-चन्दन, रोली, फल और केसर से पूजन करना चाहिए और सावित्री-सत्यवान कि कथा सुननी चाहिए।

वट सावित्री व्रत कथा का हमारे भारतीय समाज में खास महत्व है। यह त्यौहार उत्तर भारत के साथ दक्षिण भारत के कुछ राज्यों में भी धूमधाम से मनाया जाता है। इस दिन महिलाएं अपने सुहाग की रक्षा के लिए वट वृक्ष की पूजा करती हैं।

ज्येष्ठ मास के कृष्ण पक्ष की अमावस्या को वट सावित्री अमावस्या होती है। इस दिन सौभाग्यवती नारियां अखंड सौभाग्य पाने के लिए वट सावित्री का व्रत रखकर वट के पेड़ और यमदेव की अराधना करती हैं। हमारी भारतीय संस्कृति में यह व्रत आदर्श नारी का पर्याय बन चुका है। इस व्रत में वट और सावित्री, दोनों का खास महत्व है।

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कैसे करें पूजा

इस दिन सत्यवान, सावित्री की यमराज के साथ पूजा होती है। इस व्रत को करने से नारी का अखंड सौभाग्य बना रहता है। सावित्री ने इसी व्रत को कर अपने पति सत्यवान को यमराज से जीत लिया था। इस दिन भक्त को सोने या मिट्टी से बने सावित्री-सत्यवान और भैंसे पर सवार यमराज की मूर्ति बनाकर धूप-चन्दन, रोली, फल और केसर से पूजन करना चाहिए और सावित्री-सत्यवान कि कथा सुननी चाहिए।

व्रत से जुड़ी कथा

सावित्री राजा अश्वपति की बेटी थी। राजा ने बहुत पूजा-पाठ करने के बाद सावित्री देवी की अनुकम्पा से पाया था। इसलिए राजा ने अपनी बेटी का नाम 'सावित्री' रखा था। सावित्री बहुत सुंदर और गुणी थीं, लेकिन पिता की बहुत कोशिशों के बाद सावित्री को उनकी तरह गुणवान वर न मिल सका। अंत में हारकर राजा ने सावित्री को खुद वर की तलाश में भेज दिया। उसी समय सावित्री को सत्यवान मिले और उन्होंने सत्यवान को वर के रूप में स्वीकार कर लिया। सत्यवान वैसे तो राजघराने के थे लेकिन परिस्थितयों ने उनका राज छीन लिया था और उनके माता-पिता अंधे हो गए थे।

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सत्यवान व सावित्री की शादी से पहले ही नारद मुनि ने सावित्री को बता दिया था कि सत्यवान दीर्घायु नहीं बल्कि अल्पायु हैं, इसलिए सावित्री उनसे शादी न करे। लेकिन सावित्री ने देवर्षि नारद की बात न मानकर उनसे विवाह कर लिया और कहा नारी जीवन में एक बार ही पति का वरण करती है, बार-बार नहीं। इसलिए मैंने एक बार सत्यवान को वर मान लिया है तो मुझे उसके लिए मौत से भी लड़ना पड़े तो मैं हूं।

जब सत्यवान की मौत का समय पास आया तो तीन दिन पहले ही सावित्री ने अन्न-जल छोड़ दिया। मौत वाले दिन सत्यवान जब जंगल में लकड़ी काटने गए तो सावित्री भी उनके साथ गयीं और जब यमराज उन्हें लेने आए तो सावित्री भी उनके साथ जाने लगीं। यह देखकर यमराज उन्हें समझाने लगें फिर भी वह वापस नहीं लौटीं। तब यमराज ने सावित्री से कहा कि तुम सत्यवान का जीवन छोड़कर कोई भी वर मांग सकती हो।

ऐसे में सावित्री ने अपने अंधे सास-ससुर की आंखें और ससुर का खोया हुआ राजपाट मांग लिया, लेकिन वापस नहीं लौटीं। सावित्री का पति के प्रेम देखकर यमराज द्रवित हो उठे और उन्होंने सावित्री से वर मांगने को कहा तो सावित्री ने सत्यवान के पुत्रों की मां बनने का वर मांगा। इसके बाद यमराज जैसे ही तथास्तु कहा तो वटवृक्ष के नीचे पड़ा हुआ सत्यवान का शरीर जीवित हो उठा। तब से अखंड सुहाग पाने के लिए इस व्रत की परंपरा शुरू हो गयी और इस व्रत में वटवृक्ष व यमदेव की पूजा की जाती है।

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हिन्दू धर्म में वट वृक्ष का है खास महत्व

शास्त्रों में पीपल के पेड़ की तरह बरगद के पेड़ का भी खास महत्व है। पुराणों में ऐसा माना गया है कि वटवृक्ष में ब्रह्मा, विष्णु और शिव का वास होता है। इसलिए ऐसा माना जाता है कि इस पेड़ के नीचे बैठकर पूजा और कथा करने से सभी इच्छाएं पूरी होती हैं। यह पेड़ लम्बे समय तक बना रहता है, इसलिए इसे अक्षयवट भी कहा जाता है।

वटवृक्ष कई तरह से खास है, सबसे पहले यह पेड़ अपनी विशालता के लिए जाना जाता है। वटवृक्ष पर्यावरण के लिए अच्छा होता है यह वातावरण को शीतलता व शुद्धता देता है और आध्यात्मिक नजरिए से भी यह फायदेमंद होता है। इसलिए वट सावित्री व्रत के रूप में वटवृक्ष की पूजा का यह परम्परा भारतीय संस्कृति की गरिमा का परिचायक है और इससे पेड़ों के महत्व का भी ज्ञान होता है।

- प्रज्ञा पाण्डेय

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