भारत में देखने को मिलते हैं होली के विभिन्न आध्यात्मिक रंग

Different spiritual colors of Holi in India
सौरभ 'सहज' । Feb 27 2018 6:36PM

यहीं मणिकर्णिका घाट है जहां लगातार हिन्दू अन्त्येष्टि होती रहती हैं व घाट पर चिता-रूपी होली की अग्नि लगातार जलती ही रहती है। यह होली स्वयं श्री रूद्र रुप भगवान शिव ने जलायी थी जो आज तक निरन्तर रुप से जल रही है और विनाश तक जलती रहेगी।

हमारे देश में मूलत: दो जगह की होली विश्व-विख्यात है पहली काशी की ... जहां "सर्वतीर्थमयी एवं सर्वसंतापहारिणी मोक्षदायिनी गंगा मैया" सम्पूर्ण विश्व-हरि श्री काशी विश्वनाथ देव के चरणों का चरणाम्रत सभी को अपने निर्मल जल के रुप में देकर मनुष्य जीवन को धन्य करती है। वह कभी भी किसी भी जीव-आत्मा में कोई भेद न करते हुए प्रेम, स्नेह एवं शुभाशीष प्रदांन करती है। 

यहीं मणिकर्णिका घाट है जहां लगातार हिन्दू अन्त्येष्टि होती रहती हैं व घाट पर "चिता-रूपी होली" की अग्नि लगातार जलती ही रहती है। यह होली स्वयं श्री रूद्र रुप भगवान शिव ने जलायी थी जो आज तक निरन्तर रुप से जल रही है और विनाश तक जलती रहेगी। रुद्र से अभिप्राय है जो "दुखों का निर्माण व नाश" करता है इसीलिए ये चिता रुपी होली हमको "शून्य से अन्नत" का ज्ञान कराती है और "मोक्ष" को शिव के रुप में "वेदो शिवम शिवो वेदम" कह कर परिभाषित करती है।

दूसरी "विश्व-विख्यात" होली है ब्रज की होली जिसके बारे में कहा जाता है "सब जग होरी, जा ब्रज होरा" याने ब्रज की होली सबसे अनूठी होती है। जो प्रेम की होली होती है जिसे प्रभु श्री कृष्ण और देवी राधा के प्रेम से जोड़ कर देखा जाता है और हर कोई प्रभु प्रेम में डूबा नज़र आता है। लोग अपने-अपने तरीके से प्रभू को याद करते हैं।

उनकी रचायी रास-लीला को याद करके एवं लोकगीत गा-गा कर "कान्हा बरसाने में आई जइयो बुलाए गई राधा प्यारी" लठ्ठ-मार होली के रुप में रंगोत्सव मनाते हैं जिसमें मुख्यतः नंदगाँव के पुरुष और बरसाने की महिलाएं भाग लेती हैं, क्योंकि कृष्ण नंदगाँव के थे और राधा बरसाने की थीं। नंदगाँव की टोलियाँ जब पिचकारियाँ लिए बरसाना पहुँचती हैं तो उनपर बरसाने की महिलाएँ खूब लाठियाँ बरसाती हैं। पुरुषों को इन लाठियों से बचना होता है और साथ ही महिलाओं को रंगों से भिगोना होता है। नंदगाँव और बरसाने के लोगों का विश्वास है कि होली का लाठियों से किसी को चोट नहीं लगती है। अगर चोट लगती भी है तो लोग घाव पर मिट्टी मलकर फ़िर शुरु हो जाते हैं और गाते जाते हैं "फाग खेलन आए हैं नटवर नंद किशोर" और "उड़त गुलाल लाल भए बदरा" जैसे गीत गाते हैं। 

कोरे-कोरे कलश मँगाओ, केसर घोलो री...

मुख पर इसके मलो, करो काले से गोरा री ||

पास-पड़ोसन बुला, इसे आँगन में घेरो री...

पीतांबर लो छीन, इसे पहनाओ चोली री ||

माथे पे बिंदिया, नैनों में काजल सालो री

नाक में नथनी और शीश पे चुनरी डालो री ||

हरे बाँस की बाँसुरी इसकी तोड़-मरोड़ो री...

ताली दे-दे इसे नचाओ अपनी ओरी री || 

लोक-लाज मरजाद सबै फागुन में तोरो री

नैकऊ दया न करिओ जो बन बैठे भोरो री ||

चन्द्र्सखी यह करे वीनती और चिरौरी री...

हा-हा खाय पड़े पइयाँ, तब इसको छोड़ो री ||

वहीं एक और होली होती है "शब्द-रस होली"। इस होली को सन्त एकनाथ, रामकृष्ण परमहंस, स्‍वामी विवेकानंद, महर्षि दयानंद, गोस्‍वामी तुलसी दास,सूरदास,रसखान, मीराबाई न जाने कितने शव्द-सारथी खेलते आयें हैं इतने बड़े-बडे शव्द-शिल्पीयों के शव्द-रस रंग की एक बूंद भी पढ़ जाये तो जीवन सार्थक हो जाये 

अत: आपको सपरिवार सहित शव्द-रुपी रंगो से होली के पावन पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं।

(सौरभ 'सहज'- लेखक युवा कवि व स्वतंत्र पत्रकार हैं)

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