बचपन की पूंजी (लघुकथा)

विजय कुमार । Feb 13 2017 1:37PM

उन्होंने चार साल के चुन्नू को भी एक फांक दी, तो वह मचलता हुआ बोला, ‘‘मैं दो सेब लूंगा।’’ मां ने चाकू से उसी एक फांक के दो टुकड़े किये और उसे देती हुई बोली, ‘‘लो बेटा, आप दो सेब लो।’’

घर में सब लोग साथ बैठकर खाना खा रहे थे। चार साल के बच्चे से लेकर 70 साल के बुजुर्ग सब वहां थे। मां सेब काट कर सबको दे रही थीं। जब उन्होंने चार साल के चुन्नू को भी एक फांक दी, तो वह मचलता हुआ बोला, ‘‘मैं दो सेब लूंगा।’’ मां ने चाकू से उसी एक फांक के दो टुकड़े किये और उसे देती हुई बोली, ‘‘लो बेटा, आप दो सेब लो।’’

चुन्नू खुश होकर नाचने लगा। सबको दिखा-दिखा कर बोला, ‘‘मां ने मुझे दो सेब दिये। मैं दो सेब खाऊंगा।’’

इस पर चुन्नू का दस वर्षीय बड़ा भाई बोला, ‘‘मां, चुन्नू बिल्कुल गधा है। आपने एक फांक के दो टुकड़े कर दिये। ये इसी को दो सेब मानकर खुश हो गया।’’

मां ने कहा, ‘‘नहीं बेटा, चुन्नू गधा नहीं भोला है। इस आयु में सब बच्चे ऐसे ही

 भोले होते हैं। फिर उसे अपनी मां पर विश्वास है कि यदि उसने कोई बात कही है, तो और कोई भले ही टाल दे, पर मां उसे हर हाल में पूरा करेगी। ये भोलापन और विश्वास ही ‘बचपन की पूंजी’ है।’’ 

- विजय कुमार

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