वर्षों पुरानी राजसी प्रथा जारी है जम्मू कश्मीर में

मौसम के बदलाव के साथ ही राजधानी को बदलने की प्रथा को फिलहाल समाप्त नहीं किया गया है तभी तो गर्मियों में राजधानी जम्मू से श्रीनगर चली जाती है और छह महीनों के बाद सर्दियों की आहट के साथ ही यह जम्मू आ जाती है।

चौंकाने वाली बात यह है कि जम्मू कश्मीर में ‘राजसी प्रथा’ अभी भी जारी है। हर छह महीने के बाद मौसम के बदलाव के साथ ही राजधानी को बदलने की प्रथा को फिलहाल समाप्त नहीं किया गया है तभी तो गर्मियों में राजधानी जम्मू से श्रीनगर चली जाती है और छह महीनों के बाद सर्दियों की आहट के साथ ही यह जम्मू आ जाती है। इस राजधानी बदलने की प्रक्रिया को राज्य में दरबार मूव के नाम से जाना जाता है जो प्रतिवर्ष सभी मदों पर खर्च किए जाने वाली राशि को जोड़ा जाए तो तकरीबन 800 करोड़ रूपया डकार जाती है और वित्तीय संकट से जूझ रही रियासत में राजसी प्रथा को बंद करने की हिम्मत कोई भी जुटा नहीं पा रहा है। इस बार जम्मू में ‘दरबार’ 29 अप्रैल को बंद होगा है और 9 मई को ग्रीष्मकालीन राजधानी श्रीनगर में खुलेगा।

राजधानी बदलने की प्रक्रिया ‘दरबार मूव’ के नाम से जानी जाती है जो ब्रिटिश शासन काल से चली आ रही है लेकिन जबसे आतंकवाद के भयानक साए ने धरती के स्वर्ग को अपनी चपेट में लिया है तभी से इस प्रक्रिया के विरोध में स्वर भी उठने लगे हैं। लेकिन फिलहाल इस प्रक्रिया को रोका नहीं गया है और यह अनवरत रूप से जारी है। सर्वप्रथम 1990 में उस समय इस प्रक्रिया का विरोध ‘दरबार मूव’ के जम्मू से संबंद्ध कर्मचारियों ने किया था जब कश्मीर में आतंकवाद अपने चरमोत्कर्ष पर था और तत्कालीन राज्यपाल श्री जगमोहन के निर्देशानुसार आतंकवाद की कमर तोड़ने का अभियान जोरों पर था। लेकिन सुरक्षा संबंधी आश्वासन दिए जाने के उपरांत ही सभी श्रीनगर आने के लिए तैयार हुए थे। हालांकि यह बात अलग है कि आज भी सुरक्षा उन्हें नहीं मिल पाई है और असुरक्षा की भावना आज भी उनमें पाई जाती है।

आधिकारिक रूप से सचिवालय के बंद होने से सप्ताह भर पहले ही सचिवालय की सभी फाइलों को सचिवालय के बाहर कतार में खड़े असंख्य ट्रकों में लादना आरंभ कर दिया जाता है। सैंकड़ों टनों के हिसाब से इन फाइलों को ट्रंकों में बंद कर सील लगा दी जाती है और अति विशिष्ट सुरक्षा व्यवस्था में रवाना किया जाता है। शायद राज्य में फाइलों को अधिक महत्व इसलिए भी दिया जाता है क्योंकि अधिकतर कार्य जमीन पर न होकर फाइलों में ही होते हैं।

फाइलों के श्रीनगर के लिए रवाना होने के अगले ही दिन 10 हजार अधिकारियों तथा कर्मचारियों का काफिला भी सेना की सुरक्षा में आगे बढ़ना आरंभ हो जाएगा। इन कर्मचारियों में 2400 राजपत्रित अधिकारी तथा 28 सचिव भी शामिल हैं जिन्हें सरकार प्रत्येक वर्ष जम्मू या श्रीनगर आने-जाने के लिए दो बार 15000 रूपए की रकम परिवार भत्ता के रूप में देती है ताकि अगर वे चाहें तो अपने परिवारों को भी साथ में ले जा सकते हैं। परिवार भत्ते पर प्रति वर्ष 6.05 करोड़ रूपये की रकम खर्च की जाती है जबकि मूव कर्मचारियों को प्रतिमाह 2000 रूपये अलग से भी मिलते रहते हैं जब तक वे मूव कार्यालयों में रहते हैं। इस पर भी प्रतिवर्ष 6.95 करोड़ रूपये तथा कर्मचारियों की सुरक्षा, रहने तथा यातायात की व्यवस्था पर सात से आठ करोड़ रूपये की अतिरिक्त राशि खर्च की जाती है। इस तथ्य को नजरअंदाज करके कि हर वर्ष सरकार वित्तीय संकट का रोना भी रोती है।

‘दरबार मूव’ के साथ जाने वाले अधिकारियों तथा कर्मचारियों के लिए इस बार भी श्रीनगर में रहने की समस्या मुहं बाए खड़ी है क्योंकि पहले वे संतूर होटल जैसे सुरक्षित क्षेत्र में रहते थे। हालांकि कुछेक अधिकारियों तथा मंत्रियों को इस बार इस होटल में ठहराया जाएगा। आधिकारिक तौर पर कहा जा रहा है कि सुरक्षित स्थलों की तलाश जारी है और यह तलाश जल्द ही खत्म कर ली जाएगी। मजेदार बात यह है कि इस बार कर्मचारियों को जिन क्षेत्रों में रखा जाना है वे उन्हें असुरक्षित मान रहे हैं। असल में ऐसा इसलिए हुआ है क्योंकि सरकार के मंत्रियों की फौज के लिए सुरक्षित स्थानों की तलाश को प्राथमिकता दी गई है तो उसके उपरांत अधिकारियों के लिए। अंतिम प्राथमिकता कर्मचारियों के लिए स्थान तलाशने की रही है। नतीजतन कर्मचारियों में भय की लहर है। वे चाहते हैं कि आतंकवाद की समाप्ति तक एक स्थाई राजधानी बना ली जानी चाहिए लेकिन अधिकारियों ने यह आग्रह अस्वीकार करते हुए कहा कि इससे स्पष्ट संकेत आतंकियों को मिलेंगे कि सरकार ने आत्मसमर्पण किया है। आतंकी धमकियों, हमलों तथा कर्मियों के विरोध के बावजूद सरकार वर्षों से चली आ रही इस प्रक्रिया को रोकने के पक्ष में नहीं है और वह चाहती है कि यह प्रक्रिया इसी प्रकार चलती रहे।

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