NATO की चाह में ज़ेलेंस्की ने चढ़ा दी यूक्रेन की बलि, बदले में क्या मिला? 8 महीनों से केवल रूस की 'निंदा' कर रहा उत्तर अटलांटिक संधि संगठन

NATO
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रेनू तिवारी । Oct 13 2022 1:02PM

पिछले 8 महीनों से रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध चल रह है। सैन्य संगठन नाटो में शामिल होने की यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोडिमिर ज़ेलेंस्की की चाह ने इस युद्ध की नीव रखी थीं। ज़ेलेंस्की की बेकरारी ने युद्ध का जन्म तो दे दिया लेकिन उन्हें युद्ध में नाटो का साथ नहीं मिला।

पिछले 8 महीनों से रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध चल रह है। सैन्य संगठन नाटो में शामिल होने की यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोडिमिर ज़ेलेंस्की की चाह ने इस युद्ध की नीव रखी थीं। ज़ेलेंस्की की बेकरारी ने युद्ध का जन्म तो दे दिया लेकिन उन्हें युद्ध में नाटो का साथ नहीं मिला। रूस का मानना था कि नाटो किसी भी नये देश को अपना हिस्सा नहीं बनाएगा। रूस से सटे यूक्रेन की नाटो से बढ़ती नजदीकियां रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन को खटक रही थी। रूस लगातार यूक्रेन को चेदावनी दे रहा था कि यूक्रेन ऐसा न करें। यूक्रेन के नाटो में शामिल होते ही रूस की सीमा तक आमेरिका और यूरोप के देशों पहुंच बन जाती। ऐसे में रूस को अपनी सुरक्षा को भी सुनिश्चित करना था। पुतिन ने ज़ेलेंस्की को तमाम चेतावनी दी और जब कोई बात नहीं बनीं तब रूस ने यूक्रेन पर हमला कर दिया और यूक्रेन के जो क्षेत्र रूस से लगे हुए थे उस पर कब्जा कर लिया।

किसी को नहीं पता था कि यूक्रेन और रूस के बीच का युद्ध इतना लंबा खिच जाएगा। इस समय यूक्रेन और रूस के युद्ध ने पूरी दुनिया पर पुरा प्रभाव डाला हुआ हैं। यूरोप के कई बड़े देश जैसे फ्रांस, ब्रिटेन, जर्मनी में मंहगाई ने लोगों के होश उड़ा रखे हैं। यूरोप के देशों को रूस से 40 प्रतिशत से भी ज्यादा गैस और तेल की सप्लाई की जाती थी ऐसे में रूस पर लगे प्रतिबंधों से कंपनियों को बहुत ज्यादा नुकसान हुआ हैं। हर दिन युद्ध का असर दुनिया पर बुरा प्रभाव डाल रहा हैं। 

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ज़ेलेंस्की ने अपनी नाटो में शामिल होने की बेकरारी के चलते पूरे देश की बली दे दी लेकिन ऐसा करने के बावजूद ज़ेलेंस्की को नाटो का साथ नहीं मिला। आठ महीनों से नाटो यूक्रेन पर रूस के हमले की केवल निंदा कर रहा हैं बाकी और कुछ नहीं! मंहगाई की मार झेल रहे अमेरिका सहित यूरोप के देशों ने भी अब यूक्रेन को हथियारों की सप्ताई करने से हाथ खड़े कर लिए हैं।

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ऐसे में यूक्रेन के प्रति अपनी संवेदना दिखाते हुए रूस के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र महासभा में निंदा प्रस्ताव लाया गया। संयुक्त राष्ट्र महासभा ने यूक्रेन के चार क्षेत्रों में रूस के ‘‘अवैध कब्जे के प्रयास’’ की निंदा करने और इन कदमों को तत्काल वापस लिए जाने की मांग के पक्ष में अभूतपूर्व मतदान किया। इस मतदान के जरिये दुनियाभर के देशों ने सात महीने से जारी युद्ध और रूस की अपने पड़ोसी देश के क्षेत्र पर कब्जा करने की कोशिश पर कड़ा विरोध जताया है। संयुक्त राष्ट्र के 193 सदस्यों में से 143 ने इस प्रस्ताव के पक्ष में मतदान किया। वहीं, पांच देशों ने इसके विरोध में मत दिया, जबकि भारत समेत 35 देश मतदान में अनुपस्थित रहे। यह प्रस्ताव रूसी बलों द्वारा 24 फरवरी को यूक्रेन पर हमला किए जाने के बाद संयुक्त राष्ट्र महासभा की ओर से यूक्रेन को दिया गया अब तक का सबसे बड़ा समर्थन और रूस के प्रति सबसे कड़ा विरोध है।

यूक्रेन के दोनेत्स्क, लुहान्स्क, खेरसॉन और जापोरिज्जिया क्षेत्रों पर पिछले महीने कब्जा करने की रूस की घोषणा के जवाब में पश्चिमी देशों द्वारा प्रयोजित यह प्रस्ताव पेश किया गया था। रूसी संसद के दोनों सदनों ने दोनेत्स्क, लुहान्स्क, खेरसॉन और जापोरिज्जिया क्षेत्रों को रूस का हिस्सा बनाने से जुड़ी संधियों को मंजूरी दी थी। चारों प्रांतों में कथित जनमत संग्रह के बाद इस संधि पर मुहर लगा दी गई थी। इस जनमत संग्रह को यूक्रेन और उसके पश्चिमी सहयोगियों ने अवैध बताकर खारिज किया है।

यूक्रेन पर आपातकालीन विशेष सत्र में वक्ताओं ने दो दिन तक अपना-अपना पक्ष रखा। इस दौरान रूस पर संयुक्त राष्ट्र चार्टर के अहम सिद्धांतों के उल्लंघन का आरोप लगाया गया, जिसमें सदस्य देशों की संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता का सम्मान करने का सिद्धांत भी शामिल है। कुल 143 देशों ने इस प्रस्ताव के पक्ष में मतदान किया, जबकि रूस, बेलारूस, उत्तर कोरिया, सीरिया और निकारागुआ ने इसके खिलाफ मतदान किया। 

वहीं, 19 अफ्रीकी देशों, दुनिया के सर्वाधिक आबादी वाले दो देशों चीन और भारत तथा पाकिस्तान एवं क्यूबा समेत 35 देशों ने मतदान में हिस्सा नहीं लिया। महासभा से अधिक शक्तिशाली सुरक्षा परिषद रूस के वीटो अधिकार के कारण यूक्रेन के मामले में उसके खिलाफ कोई कदम नहीं उठा पाई है। परिषद के प्रस्ताव कानूनी रूप से बाध्यकारी होते हैं, जबकि महासभा यूक्रेन पर युद्ध की निंदा करने वाले चार प्रस्ताव पारित कर चुकी है। हालांकि, महासभा में मतदान विश्व की राय को दर्शाता है, लेकिन यह कानूनी रूप से बाध्यकारी नहीं है।

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