कर्नाटक की राजनीति में दलित-मुस्लिम फैक्टर का लंबा है इतिहास

history of the Dalit-Muslim Factor in Karnataka politics
कमलेश पांडे । May 11 2018 10:07AM

दलित-मुस्लिम फैक्टर यानी दम समीकरण की परोक्ष भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता है। लेकिन हैरत की बात है कि इस समीकरण की मुख्य भूमिका को लेकर इन दोनों समुदायों का कोई भी नेता मुखर होने से बचना चाह रहा है।

कर्नाटक विधानसभा चुनाव में बहुचर्चित दलित-मुस्लिम फैक्टर यानी दम समीकरण की परोक्ष भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता है। लेकिन हैरत की बात है कि इस समीकरण की मुख्य भूमिका को लेकर इन दोनों समुदायों का कोई भी नेता मुखर होने से बचना चाह रहा है। यह अनायास नहीं बल्कि रणनीतिक है। इसलिए महत्वपूर्ण सवाल है कि आखिर वह कौन सी सूबाई सियासी परिस्थिति है कि अमूमन इन मसलों पर आग उगलने वाले नेता मौजूदा चुनाव में भूलकर भी इस समीकरण की चर्चा नहीं कर रहे हैं। क्या इनका नेतृत्व यहां इतना कमजोर है, या फिर निहित स्वार्थों के चलते यहां की तीन प्रमुख राजनीतिक पार्टियों कांग्रेस, बीजेपी और जेडीएस का पिछलग्गू बन चुका है? क्या यह स्थिति इन दोनों समुदायों के हित में है?

ऐसा इसलिए कि उत्तर भारत की सुप्रसिद्ध दलित नेत्री मायावती के नेतृत्व वाली बहुजन समाज पार्टी और दक्षिण भारत के बहुचर्चित मुस्लिम नेता असदुद्दीन ओवैसी के नेतृत्व वाले एआईएमआईएम ने अपना अपना समर्थन समाजवादी मूल की क्षेत्रीय पार्टी जनता दल सेक्युलर को दे दिया है जो कि पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा की पार्टी है। आजकल इसकी कमान उनके ही पुत्र पूर्व मुख्यमंत्री एचडी कुमारस्वामी के हाथों में है। शायद यही वजह है कि उनकी पार्टी जेडीएस यहां सत्तारूढ़ कांग्रेस और प्रमुख विपक्षी पार्टी बीजेपी पर न केवल रणनीतिक रूप से भारी पड़ रही है, बल्कि अपने जनाधार वाले इलाकों से इतर कई निर्वाचन क्षेत्रों में उन्हें कड़ी चुनावी टक्कर भी दे रही है।

कहना न होगा कि कर्नाटक में जेडीएस को कांग्रेस और बीजेपी के कतिपय असंतुष्ट गुटों के अलावा समाजवादी पृष्ठभूमि के दिग्गज नेताओं का रणनीतिक समर्थन और गुप्त आर्थिक सहयोग हासिल है जिससे उसकी सियासी स्थिति लगातार मजबूत होती जा रही है। जिस तरह से जेडीएस कहीं कांग्रेस तो कहीं बीजेपी के पर कतर रहा है, उससे इस बात की उम्मीद बढ़ती जा रही है कि कहीं वह अप्रत्याशित परिणाम नहीं दे दे। ऐसा इसलिए कि मिशन 2019 की रणनीतिक सफलता के मद्देनजर दलित और अल्पसंख्यक राजनेता भी उस पर फिदा नजर आ रहे हैं ताकि समाजवादी राजनीति मजबूत हो और तीसरे मोर्चे की संभावना फिर से बने।

देश के कुछेक वैसे व्यावसायियों जो किसी न किसी कारणवश कांग्रेस या बीजेपी खेमे के करीब नहीं जा सके, वे भी समाजवादी राजनीति की मजबूती में ही अपना उज्ज्वल पेशेवर भविष्य देख रहे हैं। वे मानते हैं कि लालू-मुलायम-चौटाला जैसे नेताओं के चलते समाजवादी राजनीति पर सवाल उठे, लेकिन कांग्रेस नीत यूपीए और बीजेपी नीत एनडीए की लगभग समान नई आर्थिक नीतियों की विफलता से उपजे जनाक्रोश को यदि समाजवादी सियासत के नजरिए से भुनाया जाए और उसमें कुछ मौलिक जनोन्मुखी बदलाव लाने का भरोसा लोगों को दिलाया जाए तो इस बात में कोई दो राय नहीं कि समाजवादी राजनीतिक पृष्ठभूमि वाले क्षेत्रीय दलों को व्यापक मजबूती मिलेगी। फिर उनकी आपसी समझदारी से जो तीसरा मोर्चा बनेगा, वह दीर्घजीवी होगा, अल्पजीवी नहीं जैसा कि इतिहास चुगली करता है।

देखा जाए तो सूबे में दलितों-मुस्लिमों का मजबूत जनाधार है, लेकिन उनके बीच से कोई कद्दावर नेता नहीं निकल पाया है। यही वजह है कि यहां पर दलितों की 19 फीसदी, अनुसूचित जनजातियों की 5 फीसदी और मुसलमानों की 16 फीसदी आबादी होने के बावजूद उनका नेतृत्व किसी बाहरी स्वजातीय नेताओं के हाथों में है। चाहे बसपा नेत्री सुश्री मायावती हों या फिर एआईएमआईएम नेता ओवैसी, ये दोनों जितना मुखर होकर स्थानीय समाजवादी राजनीति को मजबूती प्रदान कर रहे हैं, उसके दो कारण तो स्पष्ट नजर आ रहे हैं।

पहला यह कि बिहार की लोक जनशक्ति पार्टी के नेता और मोदी सरकार के गठबन्धन सहयोगी कैबिनेट मंत्री रामविलास पासवान और यूपी की बसपा नेत्री और पूर्व मुख्यमंत्री सुश्री मायावती के नेतृत्व में क्रमशः दोनों राज्यों में बने दलित-मुस्लिम यानी दम समीकरण की जो भद्द पिटी और कोई खास सियासी उपलब्धि हासिल नहीं हुई, उससे ये नेता सबक दे चुके हैं और देश के दूसरे हिस्सों में भी इसे नहीं आजमाना चाहते। दूसरा यह कि जिस तरह से यूपी और बिहार के दलित नेताओं ने बदलती राजनैतिक परिस्थितियों में समाजवादी या राष्ट्रवादी राजनीति का दामन थाम लिया है और पिछलग्गू सहयोगी बनना स्वीकार कर लिया है, उसकी स्पष्ट झलक कर्नाटक विधानसभा चुनाव में भी दिखाई दे रही है।

खास बात यह कि राष्ट्रवादी पार्टी बीजेपी के दिनोंदिन बढ़ते राष्ट्रीय और क्षेत्रीय जनाधार से अल्पसंख्यक राजनीति इतनी हतोत्साहित हो चुकी है कि वह बीजेपी विरोधी मिशन 2019 के मद्देनजर कोई भी रिस्क लेना नहीं चाह रही है। यही वजह है कि उसके नेता अपनी सुविधानुसार कहीं कांग्रेस तो कहीं समाजवादी सियासी आधार वाले क्षेत्रीय दलों को अपना समर्थन देकर मजबूती प्रदान कर रहे हैं ताकि बीजेपी के सियासी दुष्चक्र से बचा जा सके। हाल ही में जेडीएस के समर्थन में चुनाव प्रचार करने के दौरान विवादास्पद अल्पसंख्यक राजनेता असद्दुदीन ओवैसी ने जिस तरह से मुसलमानी टोपी की बजाय भगवा पगड़ी बांध रखी थी वह संकेतों में ही बहुत कुछ कह रहा है।

उधर, समाजवादी राजनीति की आड़ में घोर पिछड़ावादी एजेंडा चलाने और फिर जातिवादी परिस्थितिवश पिछड़ा-अत्यन्त पिछड़ा खेमों में बंट गए राजनेताओं के पास भी कांग्रेस या बीजेपी के खेमों में जाने के अलावा कोई दूसरा चारा नहीं दिखाई दे रहा है। जबकि दलितवादी एजेंडा चलाकर जातिवादी परिस्थितिवश दलित-महादलित खेमों में बंट चुके नेताओं के पास भी कांग्रेस, बीजेपी या समाजवादी पृष्ठभूमि वाले नेताओं के खेमों में जाने के अलावा कोई अन्य विकल्प नजर नहीं आ रहा है। कमोबेश पसमांदा मुस्लिम समाज की राजनीति करने वाले राजनेताओं का भी यही हाल है।

उल्लेखनीय है कि 224 कर्नाटक विधानसभा सीटों में से एससी के लिए 36 सीटें आरक्षित हैं, जबकि एसटी व अन्य के लिए 15 सीटें आरक्षित हैं जो कि एक बड़ी चुनावी ताकत है। ये पूरे प्रदेश में फैली हुई हैं, इसलिए किसी भी दल या चुनाव को प्रभावित कर सकते हैं। सीवी रमन नगर और पुलकेशिनगर (दोनों अ. जाति, बैंगलोर उत्तर), मुधोल (अ. जा. बागलकोट), देवनहल्ली और नेलामंगल (दोनों अ. जा. बैंगलोर ग्रामीण), अनेकाल और महादेवपुर (दोनों अ. जा. बैंगलोर शहरी), कुडाची और रायबाग (दोनों अ. जा. बेलगाम), एमकांमर्दी (अ. जन. जा. बेलगाम), बेल्लारी, संदूर, सिरुगुप्पा, कुडलीगी और कम्पिल (पांचों अ. जन. जा. बेल्लारी), हादगल्ली और हगारीबोम्मनाहल्ली (दोनों अ. जा. बेल्लारी), और (अ. जा. बीदर), नागठन (अ. जा. बीजापुर), कोल्लेगल (अ. जा. चामराजनगर), मुदिगेरे (अ. जा. चिक्कामगलुरु), छल्लाकेरे और मोलकलमुरु (दोनों अ. जन. जा. चित्रदुर्ग), होलालकेरे (अ. जाति, चित्रदुर्ग), सुलिया (अ. जा. दक्षिणी कन्नड़), जगलूर (अ. जन. जा. दावणगेरे), मायाकोंडा (अ. जा. दावणगेरे) हुबली धारवाड़ पूर्व (अ. जा. धारवाड़), शिराहट्टी (अ. जा. गडग), चिंचोली, चित्तापुर और गुलबर्गा ग्रामीण (तीनों अ. जा. गुलबर्गा), सक्लेश्पुर (अ. जा. हसन), हावेरी (अ. जा. हावेरी), बंगारपेट, कोलार गोल्ड फील्ड और मुल्बगल (तीनों अ. जा. कोलार), कनकागिरी (अ. जा. कोप्पल), मालवाली (अ. जा. मंड्या), हेग्गादादेवनाकोटे (अ. जन. जा. मैसूर), नंजनगुड और टी नरसिपुर (दोनों अ. जा. मैसूर), देवदुर्गा और मानवी (दोनों अ. जन. जा. रायचूर), लिंगसुगुर (अ. जा. रायचूर), मास्की और रायचूर ग्रामीण (दोनों अ. जन. जा. रायचूर), शिमोगा ग्रामीण (अ. जा. शिमोगा), कोर्टगेरे और पवागड़ा (दोनों अ. जा. तुमकुर), शोरापुर (अ. जन. जा. यादगीर), लेकिन उक्त सीटों पर ऐसी कोई लहर दिखाई नहीं दे रही है।

यह सच है कि कर्नाटक विस चुनाव लगभग 65 सीटों पर जीत-हार का फैसला मुस्लिम मतदाता करते हैं, लेकिन वे कहां पर कांग्रेस को समर्थन देंगे और कहां पर जेडीएस को, यह भ्रम उनके बीच भी बना हुआ है। सम्भव है इसी भ्रमपूर्ण स्थिति का फायदा बीजेपी को मिले। आंकड़ों पर नजर डालें तो भटकल, बीदर और कलबुर्गी जैसे क्षेत्रों में मुस्लिम मतदाता 30 से 50 फीसदी तक हैं। बंगलुरू के 20 विधान सभा क्षेत्रों में भी इनकी तादाद लगभग 10 से 50 फीसदी तक है। सवाल है कि जब जदएस के राष्ट्रीय अध्यक्ष एचडी देवगौड़ा अपना अगला जन्म मुस्लिम समाज में ही लेना पसंद करेंगे, तो इस जन्म में उनका साथ मुस्लिम समाज नहीं छोड़ेगा। लेकिन पूर्व कांग्रेसी प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने भी कहा था कि देश के संसाधनों पर पहला अधिकार मुसलमानों का है, इसलिए उनके साथ भी यह वर्ग छल नहीं कर सकता। यही वजह है कि जो जहां मजबूत होगा और बीजेपी को हराएगा, उसी के साथ अल्पसंख्यक समाज जाएगा। कांग्रेस से 17 और जदएस से 8 मुस्लिम प्रत्याशी भी मैदान में हैं।

यही वजह है कि जिन इलाकों में मुस्लिम आबादी रहती है, वहां पर जेडीएस द्वारा ओवैसी की रैलियां आयोजित करवाई जा रही हैं, जिनमें ओवैसी के निशाने पर कहीं सत्ताधारी कांग्रेस है तो कहीं केंद्र में सत्ताधारी बीजेपी। इससे साफ है कि चुनाव में यदि किसी भी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला तो देवगौड़ा की पार्टी जेडीएस किंगमेकर साबित होगी, क्योंकि तब किसी भी दल को बहुमत के लिए उसका साथ लेना ही पड़ेगा। लेकिन सबसे बड़ा सवाल है कि क्या जेडीएस बीजेपी के साथ जाकर सरकार बनाएगा जैसा कि पहले भी वह कर चुका है! और यदि ऐसा होगा तो फिर बसपा और एआईएमआईएम का रुख क्या होगा, ये तो वही जानें।

इन बातों से स्पष्ट है कि कर्नाटक की सियासत में दलित और मुस्लिम फैक्टर को लकवा मार दिया है जिसे राजनैतिक इलाज और सियासी बैसाखी दोनों की जरूरत है ताकि समाज के इस उपेक्षित जमात की भी भलाई सुनिश्चित हो सके।

-कमलेश पांडे

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