कर्नाटक की राजनीति पर गहरा प्रभाव डालता रहा है मैसूर

Karnataka politics infulenced by Mysore history
कमलेश पांडे । May 5 2018 10:57AM

कर्नाटक की राजनीति धर्म से भी अनुप्राणित रही है, हालांकि अब यह धर्मनिरपेक्षता के अनुरूप भी ढल चुकी है। देखा जाए तो श्रवणबेलगोला में गोमतेश्वर (982-983) की एकाश्म-प्रतिमा, आज जैन धर्मावलंबियों के सर्वप्रिय तीर्थों में से एक है।

दक्षिण भारत के मैसूर प्रान्त का राजनैतिक इतिहास अपने आप में विशिष्ठ स्थान रखता है। इसके महत्व का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि कई दफे इसने भारतीय राजनैतिक इतिहास को भी अनुप्राणित किया है। फिलवक्त, अपने स्वर्णिम अतीत से शिक्षा और विभिन्न सियासी उतार-चढ़ावों से सबक लेते हुए मौजूदा कर्नाटक अपने समुज्ज्वल भविष्य को गढ़ने के लिए तत्पर है, संघर्षशील है। यही वजह है कि भारतीय राजनैतिक इतिहास में सदैव ही इसका महत्व बना रहा, जो आगे भी कम नहीं होगा। अमूमन यह प्रदेश दक्षिण भारत का एक गौरवशाली प्रदेश माना गया, और है भी।

कर्नाटक प्रदेश के मौजूदा स्वरूप का गठन 1 नवंबर, 1956 को भाषाई आधार पर गठित राज्य पुनर्गठन अधिनियम के तहत हुआ है। इससे पहले यह क्षेत्र मैसूर राज्य के नाम से सुप्रसिद्ध था। सन 1973 में इसका फिर से नामकरण हुआ, जिसके बाद इसे कर्नाटक के नाम से जाना जाने लगा। इस प्रदेश की सीमाएं पश्चिम में अरब सागर, उत्तर-पश्चिम में गोआ, उत्तर में महाराष्ट्र, पूर्व में आंध्र प्रदेश, दक्षिण-पूर्व में तमिलनाडु एवं दक्षिण में केरल से लगती हैं। इसलिए यहां की सियासी करवटों से आसपास के प्रदेश भी अछूते नहीं रहे। इसका कुल क्षेत्रफल 1,91,976 वर्ग कि॰मी॰ है, जो भारत के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 5.83 प्रतिशत है।

कर्नाटक शब्द का उद्गम कन्नड़ शब्द करु (काली या ऊंची) और नाडु (भूमि या क्षेत्र) से हुआ है। इससे निर्मित करुनाडु शब्द का पूरा अर्थ हुआ काली भूमि या ऊंचा प्रदेश। भौगोलिक दृष्टि से काला शब्द बयालुसीमी क्षेत्र की काली मिट्टी को इंगित करता है और ऊंचा शब्द दक्कन की पठारी भूमि को। हालांकि, ब्रिटिश राज में इस प्रदेश के लिए कार्नेटिक शब्द का बहुधा प्रयोग किया गया, जो कृष्णा नदी के दक्षिणी ओर की प्रायद्वीपीय भूमि के लिए प्रयोग किया जाता है। कर्नाटक शब्द मूलतः कारनेटिक शब्द का ही अपभ्रंश है जो अब प्रचलित नाम बन चुका है।

दक्षिण भारत के राजनैतिक इतिहास में मैसूर का प्राचीन एवं मध्यकालीन राजनैतिक इतिहास भी अपना खास महत्व रखता है, क्योंकि यह प्रदेश कई बड़े शक्तिशाली साम्राज्यों का क्षेत्र रहा है। इन साम्राज्यों के दरबारों के विचारक, दार्शनिक, भाट और कवियों के सामाजिक, साहित्यिक व धार्मिक संरक्षण में वर्तमान का कर्नाटक प्रान्त उपजा है, जिसकी राजधानी बंगलुरु है। इसने भारत के त्वरित आर्थिक विकास एवं प्रौद्योगिकी प्रगति में अपना अग्रणी योगदान दिया है। अब इसे साइबर सिटी भी कहा जाता है।

यह प्रदेश शुरू से ही राष्ट्रीय एकता व अखण्डता का पक्षधर रहा है। तभी तो इसके राजाओं-महाराजाओं ने प्रदेश की सीमा से परे जाकर, यथा-पत्तदकल में मल्लिकार्जुन और काशी में विश्वनाथ मंदिर का भव्य निर्माण करवाया। ये मंदिर यहीं के चालुक्य एवं राष्ट्रकूट वंश द्वारा बनवाये गए थे, जो अब यूनेस्को के विश्व धरोहरों में शुमार किए जाते हैं। इससे जाहिर होता है कि राष्ट्रीय एकता और अखंडता में यहां के राजाओं ने भी अपना-अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया और न केवल राजनैतिक बल्कि सांस्कृतिक रूप से भी सम्पूर्ण भारत भूमि को एक दूसरे से जोड़े रखने का अथक प्रयत्न किया।

कर्नाटक के सियासी इतिहास ने समय के साथ कई करवटें भी बदलीं हैं। इसका प्रागैतिहास पाषाण युग तक जाता है। इसने कई युगों का विकास देखा है और कई ऊंचाइयां भी छुई हैं। मध्य एवं नव पाषाण युगों के साक्ष्य भी यहां पाये गए हैं। खास बात यह कि हड़प्पा में खोजा गया स्वर्ण भी कर्नाटक की खानों से ही निकला था, जिसने इतिहासकारों को 3000 ई.पू. के कर्नाटक और सिंधु घाटी सभ्यता के बीच के संबंधों को खोजने पर विवश किया।

पुरावशेषों और पुरातन ग्रन्थों से जाहिर है कि तृतीय शताब्दी ई.पू. से पूर्व में अधिकांश कर्नाटक राज्य मौर्य वंश के सम्राट अशोक की अधीनता में आने से पहले नंद वंश के अधीन रहा था। उसके बाद सातवाहन वंश को यहां पर शासन करने की चार शताब्दियां मिलीं जिनमें उन्होंने कर्नाटक के बड़े भूभाग पर शासन किया। उनके बाद स्थानीय शासकों यथा, कदंब वंश एवं पश्चिम गंग वंश का उदय हुआ। इसके साथ ही क्षेत्र में स्वतंत्र राजनैतिक शक्तियां अस्तित्त्व में आयीं।

जहां कदंब वंश की स्थापना मयूर शर्मा ने 345 ई. में की और अपनी राजधानी बनवासी में बनायी, वहीं पश्चिम गंग वंश की स्थापना कोंगणिवर्मन माधव ने ३५० ई. में की और अपनी राजधानी तालकाड़ में स्थापित की। हाल्मिदी शिलालेख और बनवसी में मिले एक 5वीं शताब्दी की ताम्र मुद्रा के मुताबिक, ये राज्य प्रशासन में कन्नड़ भाषा के प्रयोग करने वाले प्रथम दृष्टांत बने।

इन राजवंशों के उपरांत शाही कन्नड़ साम्राज्य बादामी के चालुक्य वंश, मान्यखेत के राष्ट्रकूट और पश्चिमी चालुक्य वंश आये जिन्होंने दक्खिन के बड़े भाग पर सुदीर्घ और स्वस्थ शासन किया और अपनी अपनी राजधानियां वर्तमान कर्नाटक में ही बनायीं। पश्चिमी चालुक्यों ने तो एक अनोखी चालुक्य स्थापत्य शैली भी विकसित की और कन्नड़ साहित्य का भी विकास किया जो आगे चलकर 12वीं शताब्दी में होयसाल वंश के कला व साहित्य के योगदानों का आधार बना, जिस पर आज भी गौरव किया जाता है।

आधुनिक कर्नाटक के विभिन्न भागों पर 990-1210 ई. के बीच चोल वंश ने अधिकार किया। अधिकरण की इस प्रक्रिया का आरंभ राजराज चोल प्रथम (985-1014) ने आरंभ किया, जो उसके पुत्र राजेन्द्र चोल प्रथम (1014-1044) के शासन तक चला। आरंभ में राजराज चोल प्रथम ने आधुनिक मैसूर के भाग गंगापाड़ी, नोलंबपाड़ी एवं तड़िगैपाड़ी पर अधिकार किया। फिर उसने दोनूर तक चढ़ाई की और बनवसी सहित रायचूर दोआब के बड़े भाग तथा पश्चिमी चालुक्य की राजधानी मान्यखेत तक अपने बाहुबल से हथिया ली। चालुक्य शासक जयसिंह जब राजेन्द्र चोल प्रथम से हार गया तब तुंगभद्रा नदी को दोनों राज्यों के बीच की सीमा तय किया गया था।

राजाधिराज चोल प्रथम (1042-1056) के शासन में दन्नड़, कुल्पाक, कोप्पम, काम्पिल्य दुर्ग, पुण्डूर, येतिगिरि के अलावा चालुक्य की राजधानी कल्याणी भी उनसे छीन ली गईं। 1053 में, राजेन्द्र चोल द्वितीय चालुक्यों को युद्ध में हराकर कोल्लापुरा पहुंचा और कालांतर में अपनी राजधानी गंगाकोंडचोलपुरम वापस पहुंचने से पूर्व वहां एक विजय स्मारक स्तंभ भी बनवाया। 1066 में पश्चिमी चालुक्य सोमेश्वर की सेना भी अगले चोल शासक वीर राजेन्द्र से हार गयी। इसके बाद उसी ने दोबारा पश्चिमी चालुक्य सेना को कुदालसंगम पर मात दी और तुंगभद्रा नदी के तट पर एक विजय स्मारक की स्थापनी की। 1075 में कुलोत्तुंग चोल प्रथम ने कोलार जिले में नांगिली में विक्रमादित्य षष्टम को हराकर गंगवाड़ी पर अधिकार किया। लेकिन चोल साम्राज्य से 1116 में गंगवाड़ी को विष्णुवर्धन के नेतृत्व में होयसालों ने छीन लिया।

बता दें कि विश्व धरोहर स्थल हम्पी में एक उग्रनरसिंह की मूर्ति है, जो विजयनगर साम्राज्य की पूर्व राजधानी विजयनगर के अवशेषों के निकट स्थित है। प्रथम सहस्राब्दी के आरंभ में ही होयसाल वंश का इस दुर्गम क्षेत्र में पुनरोद्भव हुआ। इसी समय होयसाल साहित्य पनपा। साथ ही, अनुपम कन्नड़ संगीत और होयसाल स्थापत्य शैली के मंदिर आदि बने। होयसाल साम्राज्य ने अपने शासन के विस्तार के तहत आधुनिक आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु के छोटे भागों को कर्नाटक में मिला लिया।

14वीं शताब्दी के आरंभ में हरिहर और बुक्का राय ने विजयनगर साम्राज्य की स्थापना की एवं वर्तमान बेल्लारी जिले में तुंगभद्रा नदी के तट होसनपट्ट (बाद में विजयनगर) में अपनी राजधानी बसायी। इस साम्राज्य ने अगली दो शताब्दियों में मुस्लिम शासकों के दक्षिण भारत में विस्तार पर रोक लगाये रखी, जिसका भारतीय इतिहास में बहुधा जिक्र किया जाता है।

लेकिन, 1565 में समस्त दक्षिण भारत सहित कर्नाटक ने एक बड़ा राजनैतिक बदलाव देखा, जिसमें विजयनगर साम्राज्य को  तालिकोट के युद्ध में मिली अप्रत्याशित हार के बाद यह प्रदेश इस्लामी सल्तनतों के अधीन हो गया। बीदर के बहमनी सुल्तान की मृत्यु उपरांत उदय हुए बीजापुर सल्तनत ने जल्दी ही दक्खिन पर अधिकार कर लिया। इसने 17वीं शताब्दी के अंत में मुगल साम्राज्य से मात होने तक अपना अस्तित्व बनाये रखा। बहमनी और बीजापुर के शासकों ने उर्दू एवं फारसी साहित्य तथा भारतीय पुनरोद्धार स्थापत्यकला (इण्डो-सैरेसिनिक) को बढ़ावा दिया, जिसका प्रधान उदाहरण गोल गुम्बज है।

पुर्तगाली शासन द्वारा भारी कर वसूली, खाद्य आपूर्ति में कमी और महामारियों के कारण 16वीं शताब्दी में कोंकणी हिन्दू मुख्यतः सैल्सेट, गोआ से विस्थापित होकर कर्नाटक में आए। इसी तरह 17वीं तथा 18वीं शताब्दियों में विशेषतः बारदेज़, गोआ से विस्थापित होकर मंगलौरियाई कैथोलिक ईसाई आए और दक्षिण कन्नड़ में आकर बस गए। समय के साथ इन लोगों ने भी अपनी राजनैतिक छाप छोड़ने की कोशिश की, लेकिन पूरी तरह सफल नहीं हुए।

#आधुनिक कर्नाटक के राजनैतिक प्रशासन से जुड़े विशेष तथ्य:-

आधुनिक कर्नाटक राज्य में 30 जिले हैं जिनमें बागलकोट, बंगलुरु ग्रामीण, बंगलुरु शहरी, बेलगाम, बेल्लारी, बीदर, बीजापुर, चामराजनगर, चिकबल्लपुर, चिकमंगलूर, चित्रदुर्ग, दक्षिण कन्नड़, दावणगिरि, धारवाड़, गडग, गुलबर्ग, हसन, हवेरी, कोडगु, कोलार, कोप्पल, मांड्या, मैसूर, रायचूर, रामनगर, शिमोगा, तुमकुर, उडुपी, उत्तर कन्नड़ एवं यादगीर आदि प्रमुख हैं। कर्नाटक के छह बड़े नगरों की सूची में बंगलुरु, हुबली-धारवाड़, मैसूर, गुलबर्ग, बेलगाम एवं मंगलौर आते हैं। यहां की कुल जनसंख्या का 83 प्रतिशत हिन्दू हैं और 11 प्रतिशत  मुस्लिम, 4 प्रतिशत ईसाई, 0.78 प्रतिशत जैन, 0.73 प्रतिशत बौद्ध और शेष लोग अन्य धर्मावलंबी हैं। इन सबकी गोलबन्दी से भी कर्नाटक की राजनीति प्रभावित होती आई है।

कर्नाटक राज्य में भारत के अन्य राज्यों की भांति ही लोकतांत्रिक प्रक्रिया द्वारा चुनी गयी एक द्विसदनीय संसदीय सरकार है: विधान सभा एवं विधान परिषद। विधान सभा में 224 सदस्य हैं जो पांच वर्ष की अवधि हेतु चुने जाते हैं। विधान परिषद एक 75 सदस्यीय स्थायी संस्था है और इसके एक-तिहाई सदस्य (25) प्रत्येक 2 वर्ष में सेवा से निवृत्त होते जाते हैं।

कर्नाटक सरकार की अध्यक्षता विधान सभा चुनावों में जीतकर शासन में आई पार्टी के सदस्य द्वारा चुने गए मुख्यमंत्री करते हैं। वे अपने मंत्रिमंडल सहित तय किये गए विधायी एजेंडा का पालन अपनी अधिकांश कार्यकारी शक्तियों के उपयोग से करते हैं। फिर भी राज्य का संवैधानिक एवं औपचारिक अध्यक्ष राज्यपाल ही कहलाता है जिसको 5 वर्ष की अवधि हेतु केन्द्र सरकार के परामर्श से भारत के राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किया जाता है। कर्नाटक राज्य की जनता द्वारा आम चुनावों के माध्यम से 28 लोक सभा सदस्य भी चुने जाते हैं। विधान परिषद के सदस्य भारत की संसद के उच्च सदन, राज्य सभा हेतु 12 सदस्य चुन कर भेजते हैं।

प्रशासनिक सुविधा हेतु कर्नाटक राज्य को चार राजस्व विभागों, 49 उप-मंडलों, 29 जिलों, 275 तालुक तथा 745 राजस्व वृत्तों में बांटा गया है। राज्य की न्यायपालिका में सर्वोच्च पीठ कर्नाटक उच्च न्यायालय है, जिसे स्थानीय लोग "अट्टार कचेरी" बुलाते हैं। ये राजधानी बंगलुरु में स्थित है। इसके अधीन जिला और सत्र न्यायालय प्रत्येक जिले में तथा निम्न स्तरीय न्यायालय ताल्लुकों में कार्यरत हैं। कर्नाटक राज के आधिकारिक चिह्न में गंद बेरुंड बीच में बना है। इसके ऊपर घेरे हुए चार सिंह चारों दिशाओं में देख रहे हैं। इसे सारनाथ में अशोक स्तंभ से लिया गया है। इस चिह्न में दो शरभ हैं, जिनके हाथी के सिर और सिंह के धड़ हैं। कर्नाटक की राजनीति में मुख्यतः तीन राजनैतिक पार्टियों: भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी और जनता दल (एस) का ही वर्चस्व रहता है। कर्नाटक के राजनीतिज्ञों ने भारत की संघीय सरकार में प्रधानमंत्री तथा उपराष्ट्रपति जैसे उच्च पदों की भी शोभा बढ़ायी है।

#सूबे की राजनीति को गहरे तक प्रभावित करने वाले संस्कृति तत्व:-

कर्नाटक राज्य में विभिन्न बहुभाषायी और धार्मिक जाति-प्रजातियां बसी हुई हैं। इनके लंबे राजनैतिक इतिहास ने राज्य की सांस्कृतिक धरोहर में अमूल्य योगदान दिया है। कन्नड़िगों के अलावा, यहां तुलुव, कोडव और कोंकणी जातियां, भी बसी हुई हैं। यहां अनेक अल्पसंख्यक जैसे तिब्बती बौद्ध तथा अनेक जनजातियां जैसे सोलिग, येरवा, टोडा और सिद्धि समुदाय हैं जो राज्य में भिन्न रंग घोलते हैं।

कर्नाटक की राजनीति धर्म से भी अनुप्राणित रही है, हालांकि अब यह धर्मनिरपेक्षता के अनुरूप भी ढल चुकी है। देखा जाए तो श्रवणबेलगोला में गोमतेश्वर (982-983) की एकाश्म-प्रतिमा, आज जैन धर्मावलंबियों के सर्वप्रिय तीर्थों में से एक है।

आदि शंकराचार्य ने शृंगेरी को भारत पर्यन्त चार पीठों में से दक्षिण पीठ हेतु चुना था। विशिष्ट अद्वैत के अग्रणी व्याख्याता रामानुजाचार्य ने मेलकोट में कई वर्ष व्यतीत किये थे। वे कर्नाटक में 1098 में आये थे और यहां 1122 तक वास किया। इन्होंने अपना प्रथम वास तोंडानूर में किया और फिर मेलकोट पहुंचे, जहां इन्होंने चेल्लुवनारायण मंदिर और एक सुव्यवस्थित मठ की स्थापना की। इन्हें होयसाल वंश के राजा विष्णुवर्धन का संरक्षण मिला था।

12वीं शताब्दी में जातिवाद और अन्य सामाजिक कुप्रथाओं के विरोध स्वरूप उत्तरी कर्नाटक में वीरशैव धर्म का उदय हुआ। इन आन्दोलन में अग्रणी व्यक्तित्वों में बसव, अक्का महादेवी और अलाम प्रभु थे, जिन्होंने अनुभव मंडप की स्थापना की जहां शक्ति विशिष्टाद्वैत का उदय हुआ। यही आगे चलकर लिंगायत मत का आधार बना जिसके आज कई लाख अनुयायी हैं। कर्नाटक के सांस्कृतिक और धार्मिक ढांचे में जैन साहित्य और दर्शन का भी महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है।

इस्लाम का आरंभिक उदय भारत के पश्चिमी छोर पर 10वीं शताब्दी के लगभग हुआ था। इस धर्म को कर्नाटक में बहमनी साम्राज्य और बीजापुर सल्तनत का संरक्षण मिला। कर्नाटक में ईसाई धर्म 16वीं शताब्दी में पुर्तगालियों और 1545 में सेंट फ्रांसिस ज़ेवियर के आगमन के साथ फैला। राज्य के गुलबर्ग और बनवासी आदि स्थानों में प्रथम सहस्राब्दी में बौद्ध धर्म की जड़े पनपीं। गुलबर्ग जिले में 1986 में हुई अकस्मात खोज में मिले मौर्य काल के अवशेष और अभिलेखों से ज्ञात हुआ कि कृष्णा नदी की तराई क्षेत्र में बौद्ध धर्म के महायन और हिनायन मतों का खूब प्रचार हुआ था।

#प्रादेशिक विशेषताएं:- 

कन्नड़ भाषा में प्राचीनतम अभिलेख 450 ई. के हल्मिडी शिलालेखों में मिलते हैं। अशोक के समय की राजाज्ञाओं व अभिलेखों से ज्ञात होता है कि कन्नड़ लिपि एवं साहित्य पर बौद्ध साहित्य का भी प्रभाव रहा है। हल्मिडी शिलालेख 450 ई. में मिले कन्नड़ भाषा के प्राचीनतम उपलब्ध अभिलेख हैं, जिनमें अच्छी लंबाई का लेखन मिलता है। प्राचीनतम उपलब्ध साहित्य में 850 ई. के कविराजमार्ग के कार्य मिलते हैं। इस साहित्य से ये भी सिद्ध होता है कि कन्नड़ साहित्य में चट्टान, बेद्दंड एवं मेलवदु छंदों का प्रयोग आरंभिक शताब्दियों से होता आया है।

राष्ट्रकवि कुवेंपु 20वीं शताब्दी के कन्नड़ साहित्य के प्रतिष्ठित कवि और लेखक थे, जिन्होंने जय भारत जननीय तनुजते लिखा था, जिसे अब राज्य का गीत (एन्थम) घोषित किया गया है। इन्हें प्रथम कर्नाटक रत्न सम्मान दिया गया था, जो कर्नाटक सरकार द्वारा दिया जाने वाला सर्वोच्च नागरिक सम्मान है।

अपने विस्तृत भूगोल, प्राकृतिक सौन्दर्य एवं लम्बे राजनैतिक इतिहास के कारण कर्नाटक राज्य बड़ी संख्या में आकर्षणों से परिपूर्ण है। जहां एक ओर प्राचीन शिल्पकला से परिपूर्ण मंदिर हैं तो वहीं दूसरी ओर आधुनिक नगर भी हैं। कहीं नैसर्गिक पर्वतमालाएं हैं तो कहीं अनान्वेषित वन संपदा भी हैं। यहां व्यस्त व्यावसायिक कार्यकलापों में उलझे शहरी मार्ग हैं तो लम्बे सुनहरे रेतीले एवं शांत सागरतट भी हैं। बीजापुर का गोल गुम्बज, बाईज़ैन्टाइन साम्राज्य के हैजिया सोफिया के बाद विश्व का दूसरा सबसे बड़ा गुम्बद है।

राज्य के मैसूर शहर में स्थित महाराजा पैलेस इतना आलीशान एवं खूबसूरत बना है, कि उसे सबसे विश्व के दस कुछ सुंदर महलों में गिना जाता है। हम्पी में विजयनगर साम्राज्य के अवशेष तथा पत्तदकल में प्राचीन पुरातात्त्विक अवशेष युनेस्को विश्व धरोहर चुने जा चुके हैं। इनके साथ ही बादामी के गुफा मंदिर तथा ऐहोल के पाषाण मंदिर बादामी चालुक्य स्थापात्य के अद्भुत नमूने हैं तथा प्रमुख पर्यटक आकर्षण बने हुए हैं। बेलूर तथा हैलेबिडु में होयसाल मंदिर क्लोरिटिक शीस्ट (एक प्रकार के सोपस्टोन) से बने हुए हैं एवं युनेस्को विश्व धरोहर स्थल बनने हेतु प्रस्तावित हैं। यहाँ बने गोल गुम्बज तथा इब्राहिम रौज़ा दक्खन सल्तनत स्थापत्य शैली के अद्भुत उदाहरण हैं।

मैसूर में टीपू सुल्तान और हैदर अली ने 1780 में सबसे पहला धातु के सिलिंडर और लोहे से बने रॉकेट का तोपखाना बनाया था, जिसने इसके राजनैतिक महत्व को एक नई दिशा दी। अब भी भारत के राष्ट्रीय ध्वज का निर्माण और आपूर्ति कर्णाटक से ही की जाती है, जिसका निर्माण बुंगरी के हुबली में किया जाता है। इसके लिए सन 1957 में स्थापित कर्नाटक खादी ग्रामोद्योग संयुक्त संघ को विशेष अधिकार और प्राधिकरण प्राप्त है।

मैसूर प्रान्त का विजयनगर साम्राज्य, मुगल साम्राज्य की तुलना में लंबे समय तक चला हुआ साम्राज्य है। यही नहीं, झांसी की रानी लक्ष्मी बाई से लगभग तीन से अधिक दशक पहले कित्तूर रियासत की रानी चेन्नम्मा (1778-1829) वह पहली स्त्री थी जिन्होंने ब्रिटिश शासन के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह किया था। यह विद्रोह उन्होंने 1824 में कप्पा कर के खिलाफ किया था।

-कमलेश पांडे

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