कर्नाटक में भाषा-जल विवाद, जातीयता और भष्टाचार का है पुराना इतिहास

political parties side lined public issues in karnataka polls
कमलेश पांडे । May 7 2018 10:59AM

राजनीतिक हलकों में काफी सरगर्मियां देखी जा रही हैं, लेकिन सूबे की सियासत की प्रमुख पार्टियां उन कुछेक बड़े विवादों को लेकर असमंजस में दिखाई दे रही हैं जिनका समाधान बहुत पहले ही ढूंढ लिया जाना चाहिए था।

कर्नाटक विधानसभा चुनाव को लेकर भले ही राजनीतिक हलकों में काफी सरगर्मियां देखी जा रही हैं, लेकिन सूबे की सियासत की प्रमुख पार्टियां उन कुछेक बड़े विवादों को लेकर असमंजस में दिखाई दे रही हैं जिनका समाधान बहुत पहले ही ढूंढ लिया जाना चाहिए था। आलम यह है कि केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी और राज्य में काबिज पार्टी आपसी प्रतिस्पर्द्धा के चलते उन खास मुद्दों को भी उलझाए रखती हैं जिनका समाधान आम आदमी के लिए बहुत जरूरी है।

इसलिए सुलगता सवाल है कि भाषा विवाद, जल विवाद, क्षेत्रीय अस्मिता, भ्रष्टाचार, जातीय अहंकार, रोजगार आदि विभिन्न जटिल मुद्दों का उचित समाधान आखिरकार कौन, कब और कैसे निकलेगा? या फिर उसी तरह लटकाए रखेगा जिस तरह कि आजादी के सात दशक बाद भी ये मुद्दे त्रिशंकु की तरह बीच में ही लटके दिखाई दे रहे हैं। हैरत की बात है कि विपक्ष में रहते हुए जिनके लिए ये ज्वलन्त मुद्दे होते हैं, सत्ता मिलते ही उसके सुर बदल जाते हैं। यही वजह है कि चाहे कांग्रेस हो या बीजेपी या फिर जेडीएस, तीनों जनविश्वास गंवा चुके हैं और विभिन्न चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों में त्रिशंकु विधानसभा के आसार बताए जा रहे हैं। यानी कि किसी को भी स्पष्ट बहुमत नहीं मिलने की आशंका प्रबल है।

ऐसा स्पष्ट प्रतीत हो रहा कि सूबे की सियासत की तीन बड़ी राजनैतिक पार्टियां यथा- बीजेपी, कांग्रेस और जेडीएस सूबे के भविष्य से जुड़े कुछेक बड़े विवादों को सुलझाना ही नहीं चाह रहीं हैं ताकि उनकी राजनीति चलती रहे। क्योंकि इन विवादों से जुड़ी साधारण गुत्थियों को भी सुलझाने में इनकी कोई दिलचस्पी नहीं है, बल्कि इनके पारस्परिक दांव-प्रतिदांव में ही सारे विवाद उलझे नजर आ रहे हैं।

देखा जाए तो कर्नाटक विधानसभा चुनाव देश की दो बड़ी पार्टियों कांग्रेस और बीजेपी के लिए जहां प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया है, वहीं वरिष्ठ समाजवादी नेता और पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवेगौड़ा की पार्टी जेडीएस 'किंगमेकर' की भूमिका में साफ नजर आ रही है। कहने को तो सूबे की राजनीति में कई अहम मुद्दे हैं लेकिन लिंगायत में विरोधाभास, हिंदी भाषा का विरोध, स्थानीय भाषा को तरजीह दिए जाने, नदी जल विवाद, धार्मिक मठों को लेकर हो रही राजनीति, कन्नड़ भाषा-भाषी लोगों की अस्मिता, कृषि और रोजगार संकट, भ्रष्टाचार और व्यक्तित्व की टकराहट आदि कुछ ऐसे चुनावी मुद्दे हैं जो न केवल मतदाताओं पर अपना अच्छा खासा असर डालते हैं, बल्कि चुनावी हवा के रुख को भी प्रभावित करते हैं। यही वजह है कि किसी अंतिम निष्कर्ष पर पहुंचना जल्दबाजी होगी।

पहला, जहां तक स्थानीय कन्नड़ भाषा को बढ़ावा देने की मांग की बात है तो यह कौन नहीं जानता कि इसको लेकर प्रदेश में कई दशकों से लगातार आंदोलन चलता रहा है। चुनाव दर चुनाव इसे मुद्दा भी बनाया जाता है, लेकिन स्थिति ढाक के तीन पात वाली हो जाती है। बता दें कि बीते वर्ष भी केंद्र सरकार द्वारा हिंदी को अनिवार्य किए जाने पर कर्नाटक की राजधानी बेंगलुरु में बहुत बड़ी बहस छिड़ी थी। क्योंकि शुरूआत में बेंगलुरु मेट्रो में हिंदी बोर्ड लगाने का पुरजोर विरोध होने के बाद यह मुद्दा सामने आया था। तब ट्विटर और फेसबुक पर यह सर्वाधिक चर्चा का विषय बना हुआ था। ऐसा इसलिए कि सूबे की मुन्नोटा, बनसवी बालागा और कन्नड़ ग्राहक कूट जैसे स्थानीय संगठनों के युवा सोशल मीडिया पर धमाल मचाए रहे। देखा जा रहा है कि इन दिनों भी ये लोग ज्यादा सक्रिय हैं और अपने मुद्दे पर ही चुनाव को प्रभावित करने के लिए कटिबद्ध हैं क्योंकि इन्हें कांग्रेस का पूर्ण समर्थन प्राप्त है। 

बताते चलें कि तब इन्हीं लोगों ने बेंगलुरु मेट्रो रेल (नम्मा मेट्रो) स्टेशन से हिंदी भाषा के बोर्ड हटाने का आंदोलन भी किया था। जिसका समर्थन करते हुए सीएम सिद्धारमैया ने केंद्र सरकार को पत्र लिखकर हिंदी वाले बोर्ड को हटाने की मांग की थी जिससे उनकी लोकप्रियता सूबे में बढ़ गई। शायद कर्नाटक के चुनावी इतिहास में पहली बार इन युवाओं ने तीनों दलों यथा- कांग्रेस, बीजेपी और जेडीएस से मांग रखी है कि वे घोषणा पत्र में बताएं कि कन्नड़ भाषा के लिए क्या-क्या कर रहे हैं? यही वजह है कि सभी पार्टियों ने इन मुद्दों को अपने घोषणा पत्रों में जगह दी है।

दूसरा, लिंगायत समुदाय कर्नाटक की राजनीति में अहम चुनावी फैक्टर माना जाता हैं, जो कि राज्य की कुल आबादी का सर्वाधिक करीब 21 फीसदी है। यही वजह है कि कांग्रेस नेता और मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने लिंगायत समुदाय को धार्मिक अल्पसंख्यक का दर्जा देकर केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा सरकार को मुश्किल में डाल दिया है। बता दें कि कर्नाटक विधानसभा की करीब 100 सीटें ऐसी हैं जहां लिंगायत समुदाय का अच्छा खासा प्रभाव रहता है और ये निर्णायक भूमिका निभाते हैं। कहने को तो भाजपा के पूर्व मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा भी इसी लिंगायत समुदाय से आते हैं, जिसे उसका कोर वोटर भी माना जाता है। 

लेकिन जिस तरह से लिंगायतों को धार्मिक अल्पसंख्यक का दर्जा देकर कांग्रेस ने सियासी कार्ड खेला है, उससे साफ है कि उसने बीजेपी के वोट बैंक में सेंध लगाने की सफल कोशिश की है। यही वजह है कि कांग्रेस को इसका न केवल हाल के चुनावों में फायदा मिल सकता है बल्कि अगले वर्ष होने वाले लोकसभा चुनावों में भी वह इस मुद्दे को भाजपा के खिलाफ भुना सकती है। शायद इसलिए भी बीजेपी भीतर ही भीतर परेशान नजर आ रही है और जेडीएस से अंदर ही अंदर चुनावी चोंच लड़ा रही है।

तीसरा, कहना न होगा कि देश के जिन राज्यों में सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार है, उनकी सूची में कर्नाटक सबसे अव्वल है। इस बात का खुलासा 11वीं इंडिया करप्शन स्टडी-2017 की रिपोर्ट भी करती है। बताया गया है कि सरकारी कामों को कराने के लिए दिए जाने वाले सुविधा शुल्क (घूसों) के आधार पर विभिन्न भ्रष्ट राज्यों की जो सूची तैयार की गई है, उसकी रिपोर्ट में साफ कहा गया है कि सर्वे में करीब एक तिहाई लोगों ने माना कि पिछले साल उन्हें कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में रिश्वत देनी पड़ी। लेकिन अचरज की बात है कि बीजेपी लगातार यह आरोप लगाती रही है कि कांग्रेस की सिद्धारमैया सरकार भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी हुई है। लेकिन खुद बीजेपी का दामन भी बेदाग नहीं है और उसके मुख्यमंत्री उम्मीदवार बीएस येदुरप्पा खुद भी भ्रष्टाचार के विभिन्न गम्भीर आरोपों में न केवल सत्ता गंवा चुके हैं बल्कि जेल जा चुके हैं। कहने का तात्पर्य यह कि चलनी सुप को दुष रही है।

चौथा, कर्नाटक प्रदेश में विभिन्न मठ भी राजनीति के प्रमुख केंद्र बनकर उभरे हैं जो अपने समर्थक वर्ग को राजनीतिक नजरिये से भी प्रभावित करते रहते हैं। समझा जाता है कि यहां अलग-अलग समुदायों के अपने अपने मठ हैं जो कि शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी अपनी सेवाओं से भी लोगों को लाभान्वित और प्रभावित करते हैं। उदाहरणतया, लिंगायत समुदाय के लगभग 400 मठ हैं, जबकि वोकालिंगा समुदाय से जुड़े तकरीबन 150 मठ हैं। बताया जाता है कि मतदाताओं पर इन मठों के खास प्रभाव के मद्देनजर ही प्रायः हर राजनीतिक दल का राजनेता इन मठों का आशीर्वाद पाने के लिए मंदिर-मठों पर मत्था टेकते रहे हैं और टेक भी रहे हैं।

पांचवां, कर्नाटक में अभी भी जल संकट है, लेकिन पिछले सालों की तुलना में इस बार यह संकट कम है। यहां के दक्षिणी इलाके में कावेरी जल बंटवारे को लेकर तमिलनाडु से विवाद चल रहा था जो सर्वोच्च न्यायालय के स्पष्ट दिशा-निर्देश के बाद समाप्त हुआ। दूसरी ओर उत्तरी कर्नाटक में महादयी जल बंटवारे को लेकर गोवा से विवाद चल रहा है जिस पर सर्वोच्च न्यायालय का ताजा दिशानिर्देश लागू होता है। फिर भी कर्नाटक के किसानों की खुदकुशी का मसला अब तक गंभीर बना हुआ है। महादयी जल विवाद को लेकर अमूमन कर्नाटक बंद जैसे आयोजन होते रहते हैं। बावजूद इसके ये विवाद अभी तक अनसुलझे हुए ही हैं। 

खास बात यह कि स्थानीय किसान तथा सामान्य नागरिक महादयी नदी के पानी का लंबे समय से इंतजार कर रहे हैं। यही वजह है कि उनमें बहुत आक्रोश है। यही वजह है कि सीएम सिद्धारमैया पिछले लगभग एक साल से इस गम्भीर मसले को चुनावी मुद्दा बनाए हुए हैं। जिसके बाद बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने गोवा के सीएम मनोहर पर्रिकर और कर्नाटक के पार्टी नेताओं के साथ एक बैठक की। उसके बाद पर्रिकर ने कर्नाटक के सीएम पद के बीजेपी उम्मीदवार येदियुरप्पा को पत्र लिखकर कहा कि गोवा कर्नाटक के लिए पेयजल के वास्ते पानी छोड़ने को तैयार है। यही वजह है कि सीएम सिद्धारमैया ने इसे अनुचित ठहराते हुए कहा कि पर्रिकर को येदियुरप्पा के बजाय उनको पत्र लिखना चाहिए था। 

बताते चलें कि महादयी नदी, कर्नाटक के भीमगढ़ के पास स्थित 30 झरनों के एक क्लस्टर से निकलती है, जो गोवा में मोंडोवी कही जाती है। वास्तव में, बेलागावी जिले के खनकपुर तालुका अंतर्गत देगांव में यह नदी का स्वरूप लेती है। यह बरसाती नदी है जो मानसून के महीनों में ही अपने उफान पर होती है। यह नदी कर्नाटक में 35 किमी और फिर गोवा में 52 किमी तक बहती है, और फिर अरब सागर में जाकर विलीन हो जाती है। इसी को लेकर दोनों राज्यों में विवाद रहता है, लेकिन कोई समुचित समाधान नहीं निकलने से लोग रुष्ट रहते हैं।

छठा, देखा जाए तो लिंगायतों के अलावा वोक्कालिगा समुदाय का भी यहां पर काफी असर रहा है, क्योंकि इनकी 11 फीसदी की आबादी विधानसभा की कई अहम सीटों पर महत्वपूर्ण असर डालती है। दरअसल, इस राज्य में कांग्रेस जहां लिंगायत, अल्पसंख्यक और दलितों-पिछड़ों के सहारे दोबारा सत्ता में आना चाहती है, वहीं बीजेपी लिंगायत के साथ-साथ वोक्कालिगा और दलितों-पिछड़ों को हिन्दू अस्मिता की रक्षा के नाम पर अपने साथ लामबंद करना चाहती है।

सातवां, जब कर्नाटक प्रान्त के अपने अलग क्षेत्रीय झंडे से जुड़े याचिकाकर्ताओं के एक समूह के सवालों के जवाब में राज्य की कांग्रेस सरकार ने "क़ानूनी तौर पर मान्य झंडे का डिज़ाइन तैयार" करने के लिए अधिकारियों की एक समिति तैयार की, तो इसका बीजेपी ने जमकर विरोध किया। ऐसा इसलिए कि भारत में जम्मू-कश्मीर के अलावा किसी भी दूसरे राज्य के पास अपना झंडा नहीं है। यही नहीं, जम्मू-कश्मीर के पास भी धारा 370 के तहत अपना अलग झंडा है जिसे समाप्त करने के लिए देशव्यापी मांग चल रही है। यही वजह है कि प्रायः बीजेपी के विपरीत चलने वाली कांग्रेस ने राज्य के लिए अलग झंडा की मांग करके एक नई सियासी चाल चली है, जिसका लिटमस टेस्ट इस चुनाव में होना है।

आठवां, जिस तरह से कर्नाटक विस चुनाव में विभिन्न पार्टियों के द्वारा विभिन्न वंचित समुदायों को आरक्षण दिए जाने का वादा किया जा रहा है और सूबे के अपने अलग झंडे जैसे अति राष्ट्रवाद के मुद्दे उछाले जा रहे हैं, उससे साफ है कि राजनीतिक दलों के मन में जनहित के प्रति खोट है। यदि ऐसा नहीं होता तो वे सिर्फ भावनात्मक मुद्दों को नहीं भड़काते। ताजा सूरतेहाल यह है कि पहले कांग्रेस की क्षुद्र कोशिशों और अब पाकिस्तान की सोशल मीडिया हरकतों से परेशान बीजेपी ने कर्नाटक विधानसभा चुनाव 2018 में टीपू सुल्तान जैसे क्रूर मैसूर शासक को भी चुनावी मुद्दा बना दिया और कांग्रेस की नीयत पर सन्देह जताया। स्पष्ट है कि ऐसा करके बीजेपी ने परोक्ष रूप से कट्टर हिन्दू हित साधक नेतृत्व का दांव भी चल दिया है।

गौरतलब है कि गत दिनों पाकिस्तान सरकार ने ट्वीटर पर जब टीपू सुल्तान की भूरि भूरि प्रशंसा की तो बीजेपी भड़क गई। क्योंकि उसका यह ट्वीट कर्नाटक चुनावों के लिए मतदान होने से कुछ दिन पहले ही आया है। इसलिए बीजेपी ने आरोप लगाया कि कांग्रेस ने पाकिस्तान को ट्वीट जारी करने के लिए प्रभावित किया होगा ताकि सम्प्रदाय विशेष के मतदाताओं को लामबंद किया जा सके। बता दें कि पाकिस्तान सरकार ने अपने आधिकारिक ट्विटर हैंडल के माध्यम से 18वीं शताब्दी के विवादास्पद मैसूर शासक और सैन्य नेता टीपू सुल्तान की प्रशंसा की है जिसका शासन तत्कालीन मैसूर साम्राज्य पर आज से 219 साल पहले था।

याद दिला दें कि वर्ष 2015 में मुख्यमंत्री सिद्धारमैया की अगुआई वाली कांग्रेस सरकार ने टीपू सुल्तान की जयंती मनाने का फैसला किया था, जो उन्हें स्वतंत्रता सेनानी के रूप में वर्णित करता था। जबकि, बीजेपी नेता उन्हें एक जुल्मी शासक मानते हैं जिसने हिंदुओं को काफी दमन और भारी वध किया। यही वजह है कि तब कांग्रेस सरकार के कदम के खिलाफ हुए विरोध प्रदर्शन में दो लोगों ने अपनी जान भी गंवा दी थी। इसलिए अब यह बात किसी से छिपी हुई नहीं है कि जब कर्नाटक चुनाव से ऐन पहले पाकिस्तान ने टीपू सुल्तान की प्रशंसा की तो बीजेपी प्रवक्ता और राज्यसभा सांसद जीवीएल नरसिम्हा राव ने इसे विचित्र मामला करार देते हुए स्पष्ट आरोप लगाया कि कांग्रेस ने पड़ोसी देश की सरकार को चुनावों पर नजर डालने के लिए प्रभावित किया होगा। 

-कमलेश पांडे

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