कर्नाटक में राष्ट्रपति शासन का पुराना है इतिहास, इस बार भी आशंकित हैं दल

What will happen if someone does not get a clear majority in Karnataka
कमलेश पांडे । May 9 2018 10:13AM

जेडीएस के साथ गठबंधन साथियों के हुए हश्र को देखते हुए लोगों के बीच अभी से ही इस बात की आशंका घर करने लगी है कि यदि किसी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला तो सूबे में राष्ट्रपति शासन की संभावना को खारिज नहीं किया जा सकता है।

कर्नाटक विधानसभा चुनाव 2018 में जहां एक ओर किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत मिलने के आसार क्षीण दिखाई पड़ रहे हैं, वहीं दूसरी ओर क्षेत्रीय दल जेडीएस के साथ गठबंधन साथियों के हुए हश्र को देखते हुए लोगों के बीच अभी से ही इस बात की आशंका घर करने लगी है कि यदि किसी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला तो सूबे में राष्ट्रपति शासन की संभावना को खारिज नहीं किया जा सकता है! लिहाजा, यह सवाल सबके जेहन में एक ही सवाल है कि वह कौन सी और कैसी संवैधानिक और सियासी परिस्थितियां होंगी जब कर्नाटक में राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफारिश करने के अलावा राज्यपाल के पास कोई और विकल्प नहीं बचेगा, जिसे स्वीकार करना राष्ट्रपति की भी संवैधानिक मजबूरी होगी। 

बता दें कि भारतीय संविधान के आर्टिकल 356 को 'राष्ट्रपति शासन' कहा जाता है। हालांकि 'राष्ट्रपति शासन' शब्द का उल्लेख संविधान में कहीं भी नहीं मिलता है, फिर भी बढ़ते प्रचलनों से इस शब्द को लगभग सबकी मान्यता मिल चुकी है। दरअसल, इस अनुच्छेद के तहत किसी भी राज्य सरकार को बर्खास्त कर दिया जाता है, जिसके बाद अपने आप राज्य के सत्ता की बागडोर राज्यपाल के पास चली जाती है, क्योंकि गवर्नर की नियुक्त‍ि राष्ट्रपति द्वारा ही होती है। मसलन, अनुच्छेद 356 के लागू होने के बाद राज्य में मुख्यमंत्री की कुर्सी खाली हो जाती है और मंत्रिमंडल समूह कोई भी काम नहीं कर सकता है। 

यह बात दीगर है कि देश में इस आर्टिकल का उपयोग कम और दुरुपयोग ज्यादा हुआ है। प्रायः यह देखा गया है कि केन्द्र में सत्तारूढ़ सरकारें समय-समय पर विरोधी पार्टियों को परेशान करने के लिए इस अनुच्छेद का इस्तेमाल करती हैं, जिसके बाद सर्वोच्च न्यायालय ने इसके उपयोग पर कतिपय अनिवार्यताएं स्पष्ट कर दी हैं जिसके बाद से इसका दुरुपयोग थमा तो है, लेकिन दुर्भाग्यवश रुका नहीं है। 

आलम यह है कि 'सबका साथ-सबका विकास' चाहने वाली मोदी सरकार भी उत्तराखंड और अरुणाचल प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लागू किए जाने के मसले पर विवादों में घिर चुकी है। शायद यही वजह है कि लोगों को इस बात की आशंका प्रबल है कि यदि कर्नाटक विधानसभा चुनावों में किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला और जनता दल सेक्युलर (जेडीएस) ने अपने पुराने रवैये में बदलाव नहीं किया तो एक बार फिर से कर्नाटक में राष्ट्रपति शासन लागू करने का बहाना मोदी सरकार को मिल जाएगा। इसलिए लोगों को चाहिए कि वे चुनावी पूर्वानुमानों से सबक लें और जिस किसी को भी चाहें, उसे स्पष्ट बहुमत दें ताकि केन्द्र सरकार को राष्ट्रपति शासन लागू करने का बहाना ही नहीं मिल पाए।

गौरतलब है कि किसी भी राज्य में राष्ट्रपति शासन अनुच्छेद 356 लगाने की कुछ शर्तें हैं:- पहला, राज्य की विधानसभा अपना मुख्यमंत्री नहीं चुन पा रही हो; दूसरा, अपने अन्तर्विरोधों से गठबंधन ढह गया हो; तीसरा, विधानसभा में किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं हो अथवा किसी कारणवश अल्पमत में आ गई हो; चौथा, किन्हीं अपरिहार्य कारणों से विधान सभा का चुनाव न हो पाया हो। लेकिन 1990 के दशक तक प्रायः ऐसा देखा जाता था कि केन्द्र की सरकारें राज्यपाल की मदद से ऐसी परिस्थितियां पैदा कर देती थीं कि वहां राष्ट्रपति शासन के अलावा और कोई विकल्प ही शेष नहीं बचता। यही नहीं, कुछ अतिशय महत्वाकांक्षी राज्यपाल भी निहित स्वार्थवश ऐसा करने करवाने से नहीं चूकते। हालांकि सन् 1994 में सर्वोच्च न्यायालय के एक फैसले के बाद इसका अनुचित इस्तेमाल कम हो गया, फिर भी कुछेक आशंकाएं तो हमेशा बनी रहेंगी।

याद दिला दें कि सन 1977 से 2013 के बीच छह बार ऐसे मौके आए जबकि कर्नाटक में भी राष्ट्रपति शासन लगाने पड़े। यूं तो देश के अन्य हिस्सों की तरह ही यहां पर भी ज्यादातर शासन कांग्रेस पार्टी का ही रहा है। फिर भी केंद्र में सत्तारूढ़ कांग्रेस ने अपनी ही पार्टी के मुख्यमंत्री वीरेंद्र पाटिल को 19 मार्च 1971 को बर्खास्त कर दिया और राज्य में पहली बार राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया जो एक वर्ष एक दिन बाद 20 मार्च 1972 को समाप्त हुआ और कांग्रेस नेता डी देवराज उर्स सूबे के मुख्यमंत्री बने। 

लेकिन जनता पार्टी की देशव्यापी लहर के बाद केंद्र में सत्तारूढ़ हुई मोरारजी सरकार ने 31 दिसम्बर 1977 को देवराज की सरकार को बर्खास्त कर दिया और सूबे में दूसरी बार राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया जो 59 दिन तक चला और 28 फरवरी 1978 को समाप्त हुआ। लेकिन किस्मत का खेल देखिए कि विधानसभा चुनाव के बाद कांग्रेस की ही देवराज सरकार स्पष्ट बहुमत प्राप्त करके फिर से सत्ता में लौटी।

कहने को तो स्वतंत्र भारत में कर्नाटक के इतिहास में पहली बार 6 जनवरी 1983 को जनता पार्टी के नेता रामकृष्ण हेगड़े ने सूबे में सिर्फ कांग्रेसी सरकारों के ही बनने की परंपरा तोड़ी और पहली बार गैर कांग्रेसी मुख्यमंत्री बने, किन्तु उनका शासन भी ज्यादा दिनों तक कायम नहीं रहा। उनके बाद जनता पार्टी के ही दूसरे नेता एसआर बोम्मई ने सूबे की कमान सम्भाली और राज्य के मुख्यमंत्री बने। लेकिन उनकी सरकार केंद्र में सत्तारूढ़ कांग्रेस की राजीव सरकार की आंखों में लगातार चुभती रही और 21 अप्रैल 1989 को बर्खास्त कर दी गई, जिसके बाद राज्य में तीसरी बार राष्ट्रपति शासन लगा जो 30 नवम्बर 1989 तक चला। 

वर्ष 1989 के कर्नाटक विस चुनाव में भी कांग्रेस को स्पष्ट बहुमत प्राप्त हुआ और एक बार फिर बीरेन्द्र पाटिल के नेतृत्व वाली भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की सरकार ने सत्ता हासिल करने में कामयाब रही, लेकिन पार्टी की अंदरूनी रस्साकशी के चलते वह एक साल से ज्यादा दिन तक मुख्यमंत्री नहीं रह पाए और एक नाटकीय घटनाक्रम के बाद 10 अक्टूबर 1990 को केंद्र सरकार ने उनकी सरकार को बर्खास्त कर दिया और राज्य में चौथी बार राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया जो मात्र एक सप्ताह तक चला और 17 अक्टूबर 1990 को कांग्रेस में नेतृत्व परिवर्तन समस्या का समाधान निकलते ही समाप्त हो गया। 

वर्ष 2006 में बीजेपी-जेडीएस गठबंधन की सरकार बनी और पूर्व प्रधानमंत्री देवेगौड़ा के बेटे एच. डी. कुमारस्वामी सूबे के मुख्यमंत्री बने, पर यह सरकार भी गठबंधन के दांवपेंच के चलते ज्यादा दिनों तक नहीं चल पाई और 9 अक्टूबर 2007 को बर्खास्त कर दी गई और राज्य में पांचवीं बार राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया जो 11 नवम्बर 2007 तक चला। 

उसके बाद पहली बार यहां पर बी.एस. येदियुरप्पा के नेतृत्व में बीजेपी की सरकार बनी जो मात्र सात दिन ही चल पाई। 20 नवंबर 2007 को येदियुरप्पा सरकार बर्खास्त कर दी गई और राज्य में छठी बार राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया जो 27 मई 2008 तक चला। फिर कर्नाटक विस चुनाव 2008 में बीजेपी को स्पष्ट बहुमत मिला और मुख्यमंत्री के रूप में येदियुरप्पा की फिर से वापसी हुई, लेकिन बीजेपी के 5 साल के शासन में उसे 3 बार मुख्यमंत्री बदलने पड़े, जिससे लोगों के बीच उसकी भी साख को बट्टा लगा। यही वजह है कि 2013 में कांग्रेस स्पष्ट बहुमत प्राप्त कर सत्ता में लौटी, सिद्धारमैया मुख्यमंत्री बने और उनके नेतृत्ववाली कांग्रेस सरकार 5 साल तक सफलतापूर्वक चली जो उनकी दूसरी बड़ी उपलब्धि है।

# अब तक किन-किन राज्यों में और कितनी बार लगा है राष्ट्रपति शासन, इसका विवरण निम्न है- 

आंध्र प्रदेश: 2, 

अरुणाचल प्रदेश: 4, 

असम: 4, 

बिहार: 8, 

दिल्ली: 1, 

गोवा: 5, 

गुजरात: 5, 

हरियाणा: 3, 

हिमाचल प्रदेश: 2, 

जम्मू कश्मीर: 6, 

झारखंड: 3, 

कर्नाटक: 6, 

केरल: 4, 

मध्य प्रदेश: 3, 

महाराष्ट्र: 2, 

मणिपुर: 10, 

मेघालय: 2, 

मिजोरम: 3, 

नगालैंड: 4, 

उड़ीसा: 6, 

पुडुचेरी: 6, 

पंजाब: 8, 

राजस्थान: 4, 

सिक्किम: 2, 

तमिलनाडु: 4, 

त्रिपुरा: 3, 

उत्तर प्रदेश: 9 

पश्चिम बंगाल: 4 बार

आंकड़ों से स्पष्ट है कि अब तक जम्मू कश्मीर में अधिकतम राष्ट्रपति शासन 6 साल 264 दिन चला है, जबकि न्यूनतम कर्नाटक प्रान्त में मात्र 7 दिनों तक चल पाया है। आमतौर पर राष्ट्रपति शासन उन राज्यों में लगाया जाता है जहां केन्द्र में विराजमान पार्टी सत्ता में नहीं होती। लेकिन दो ऐसे भी मौके आए हैं जब इंदिरा गांधी की सरकार ने कांग्रेस शासित राज्यों में भी राष्ट्रपति शासन लगा दिया था। उदाहरणार्थ, पंजाब में सन् 1983 और आंध्र प्रदेश में 1973 में ऐसा हुआ था। 

#अनुच्छेद 356 के अधीन उद्घोषणा के आधार:-

संविधान के अनुच्छेद 356 के अनुसार यदि राष्ट्रपति, किसी भी राज्यपाल के प्रतिवेदन के आधार पर या फिर अन्य किसी भी प्रकार से यह स्पष्ट हो जाए कि वहां ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न हो गयी है जिसके फलस्वरूप राज्य का शासन संवैधानिक उपबंधों के अनुसार नहीं चलाया जा सकता, तो वह संकटकाल की घोषणा कर सकता है। उद्घोषणा के अधीन राज्य विधानमंडल की शक्तियों का प्रयोग संसद या संसद द्वारा प्राधिकृत व्यक्ति कर सकता है। राज्य विधानसभा का विघटन किया जा सकता है या उसे निलम्बित अवस्था में रखा जा सकता है। राष्ट्रपति उद्घोषणा की पूर्ति हेतु उच्च न्यायालय की शक्ति को छोड़कर अन्य समस्त शक्ति अपने हाथ में ले सकता है। अनुच्छेद 356 के अधीन राष्ट्रपति शासन के प्रवर्तन के दौरान संसद, राज्य की विधायी शक्तियां राष्ट्रपति को सौंप सकती है और उसे यह अधिकार दे सकती है कि वह इन शक्तियों को अन्य प्राधिकारियों को दे दे (अनुच्छेद 357)। संकटावधि में राष्ट्रपति संविधान के अनुच्छेद 19 द्वारा प्रदत्त स्वतंत्रताओं पर निर्बंधन लगा सकता है और उसके जीवन एवं दैहिक स्वतंत्रता के अतिरिक्त अन्य अधिकारों के साथ संवैधानिक उपचारों के अधिकार को भी समाप्त किया जा सकता है। उल्लेखनीय है कि अनुच्छेद 356 के अधीन उद्घोषणा के द्वारा साधारणतया राज्य सरकार और राज्यपाल की शक्तियां राष्ट्रपति में समाहित कर दी जाती हैं। लिहाजा, आम बोलचाल की भाषा में इसे राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू होना कह दिया जाता है, हालांकि संविधान में इस अभिव्यक्ति का कहीं प्रयोग नहीं है।

-कमलेश पांडे

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